एक बार स्वर्ग के समाचार पत्र में ब्लॉगर कोना छपा तो इन्द्र ने चित्रगुप्त से उसके बारे में पूछा । चित्रगुप्त बोला," देवराज ! मैं अभी आपको इसके बारे में बताने का विचार कर ही रहा था . वस्तुत: यह नारद मुनि की लीला है . उन्होंने ही भगवान शंकर के शाप के कारण इण्टरनेट के रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया है .एक्चुअली यह एक खेल है जिसमें सभी खिलाड़ियों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता होती है .
इसमें कुछ लोग नाम कमाते हैं, तो कुछ धन कमाने की इच्छा रखते हैं . बिरले
भाग्यशाली ही नाम कमाने के साथ साथ लक्ष्मी जी की अनुकम्पा प्राप्त करने में
भी सफल रहते हैं . बाकी सब वे बंदर हैं जो श्रीराम के साथ लंका में केवल
सीताजी के दर्शन के लालच में अपनी जान जोखिम में डाल दिए थे . यह खेल
मृत्युलोक में काफी प्रचलित होता जा रहा है, और नेता, अभिनेता, खिलाड़ी तथा
डॉक्टर व इंजीनियर सभी इसको खेलने लगे हैं . पत्रकारों को तो खैर इसका व्यसन ही है ."
इन्द्र अचानक बोले," अरे चित्रगुप्त ! क्यों न हम भी ब्लॉगिंग करें ?"
"आइडिया तो बुरा नहीं है महाराज, पर जनता आपकी क्लास ले लेगी । और आपने समझदारी से काम न लिया तो दो मिण्ट में आपकी हिन्दी हो जाएगी . वैसे आपने हिन्दी ब्लॉगिंग में हाथ आजमाया तो कोई आपकी हिन्दी न कर सकेगा क्योंकि वहाँ पहले ही सबकी हिन्दी हुई पड़ी है ."
"पर हम तो इसकी ए बी सी डी भी नहीं जानते ." इन्द्र बोले .
"तो भी टेंशन नहीं लेने का गुरु ." चित्रगुप्त ने समझाया," किसी अच्छे से हिन्दी ब्लॉगर को स्वर्गवासी कर देते हैं . थोडा डराएँगे, धमकाएँगे तो आपके नाम से लिखने को तैयार हो जाएगा ."
इन्द्र : और यदि वह तैयार न हुआ तो ?
चित्रगुप्त : तो उसको नर्क में डालने की धमकी दे देंगे .
इन्द्र : इतने पर भी न माना तब ?
चित्रगुप्त : तो उसको राजी कराने के लिये उत्तर प्रदेश से एक ऐसे पुलिसिये को स्वर्गवासी करके लाएंगे जो कम से कम दस बेकसूरों से गुनाह कबूल करवा चुका हो .
इन्द्र : पुलिस वाला राजी होगा ?
चित्रगुप्त : उसकी छोडो वो सब तो अपने यमराज के चेले हैं .
इन्द्र : अच्छा ठीक है ब्लॉगिंग शुरू हो गयी फिर ?
चित्रगुप्त : फिर क्या धडाधड टिप्पणियाँ ! मान सम्मान !
"मान सम्मान तो ठीक है मगर टीका-टिप्पणी भी सहनी पड़ेगी क्या ?" इन्द्र बोले .
"सहनी नहीं पड़ेगी शुरू में तो माँगनी भी पड़ेगी और करनी भी पड़ेगी . हाँ आप सीनियर हो जाइएगा तो जबरदस्ती झेलनी भी पड़ेंगी . फिर मना किया तो और भी ज्यादा आयेंगी . यही तो इस खेल का आनन्द है और यही इसमें सम्मान . आप क्या सोचे कोई स्वर्ण पदक मिलने वाला है आपको ?" अबकी बार चित्रगुप्त ने खोलकर समझाया .
इन्द्र कुछ उदास होकर बोले," रहने दो चित्रगुप्त मुझे ब्लॉगिंग नहीं करनी ."
देवराज ऐसा कह ही रहे थे कि मेरी आँख खुल गयी और सपना अधूरा ही रह गया .
khari-khari.wah anand aa gaya
जवाब देंहटाएंहास्य और व्य्रग्य का अनूठा संगम। बेजोड़ लिखा है आपने।
जवाब देंहटाएंbadhiya swapn tha aapka....kaash poora dekh lete to aur aanand aata..
जवाब देंहटाएंफ़िर से सो जाइए, अक्सर स्वप्न की पुनरावृति हो जाती है. आपका स्वप्न पढ़ कर मन में इन्द्र के ब्लाग पर टिपण्णी करने की इच्छा बहुत तीव्र हो गई है. बहुत से हिसाब चुकाने हैं इन महाशय से.
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया लिखा ! और भी कुछ दिखा क्या सपने में ?
जवाब देंहटाएंजैसे वहा कोई ब्लागरिया बैठा पोस्ट लिख रहा हो ? :)
बहुत शुभकामनाएं !
टिप्पणी के लिये हमारा नाम तो नहीं सुझा आये..पता चला, आपका तो व्यंग्य लेखन हो गया और हम नप गये. :)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिखा!!