सोमवार, सितंबर 14, 2009

सपनों की दुनिया

सपनों की दुनिया भी क्या है ।

सबकी अपनी जुदा-जुदा है ॥

जब भी मुझे नींद आती है ।

स्वप्नलोक में ले जाती है ॥

देख रहा हूँ एक मरुस्थल ।

यद्यपि यहाँ उपस्थित है जल ॥

गंगा एक बह रही उजली ।

यह न शिव-जटाओं से निकली ॥

निकली है यह सुप्त नयन से ।

करुण अश्रुओं के क्रंदन से ॥

अविरल धार आँसुओं की यह ।

सदियों से कहती है बह-बह ॥

कन्या-भ्रूण मरेंगे जब तक ।

हत्या मनुज करेंगे जब तक ॥

तब तक यही मरुस्थल होगा ।

बंजर भू अंत:स्थल होगा ॥

मिले न पशु, पक्षी, हरियाली ।

पड़ीं खाइयाँ बनी सवाली ॥

मैं प्रश्नों से नज़र चुराता ।

बालू पर हूँ पकड़ बनाता ॥

हाथ लगी लेकिन असफलता ।

बार बार मैं रहा फिसलता ॥

मैं खाई से निकल न पाया ।

पत्नी जी ने मुझे जगाया ॥

लेकिन सपना वह दु:खदाई ।

कैसी थी वह गहरी खाई !

कन्या भ्रूणों के वे साये ।

मुझे भूलते नहीं भुलाए ॥

अरे मूर्ख मानव अब मानो ।

पापकर्म यह है पहचानो ॥

करो न ह्त्या कभी भ्रूण की ।

समीर खुश्बू दे प्रसून की ॥

सूचना : यह कविता समीर जी द्वारा रचित इसी शीर्षक की कविता से प्रेरित है । इसके लिए समीर जी की अनुमति प्राप्त कर ली गई है ।

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