सपनों की दुनिया भी क्या है ।
सबकी अपनी जुदा-जुदा है ॥
जब भी मुझे नींद आती है ।
स्वप्नलोक में ले जाती है ॥
देख रहा हूँ एक मरुस्थल ।
यद्यपि यहाँ उपस्थित है जल ॥
गंगा एक बह रही उजली ।
यह न शिव-जटाओं से निकली ॥
निकली है यह सुप्त नयन से ।
करुण अश्रुओं के क्रंदन से ॥
अविरल धार आँसुओं की यह ।
सदियों से कहती है बह-बह ॥
कन्या-भ्रूण मरेंगे जब तक ।
हत्या मनुज करेंगे जब तक ॥
तब तक यही मरुस्थल होगा ।
बंजर भू अंत:स्थल होगा ॥
मिले न पशु, पक्षी, हरियाली ।
पड़ीं खाइयाँ बनी सवाली ॥
मैं प्रश्नों से नज़र चुराता ।
बालू पर हूँ पकड़ बनाता ॥
हाथ लगी लेकिन असफलता ।
बार बार मैं रहा फिसलता ॥
मैं खाई से निकल न पाया ।
पत्नी जी ने मुझे जगाया ॥
लेकिन सपना वह दु:खदाई ।
कैसी थी वह गहरी खाई !
कन्या भ्रूणों के वे साये ।
मुझे भूलते नहीं भुलाए ॥
अरे मूर्ख मानव अब मानो ।
पापकर्म यह है पहचानो ॥
करो न ह्त्या कभी भ्रूण की ।
समीर खुश्बू दे प्रसून की ॥
सूचना : यह कविता समीर जी द्वारा रचित इसी शीर्षक की कविता से प्रेरित है । इसके लिए समीर जी की अनुमति प्राप्त कर ली गई है ।
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