सोमवार, जनवरी 05, 2009

मुए बता फिर तू क्या पीता ?


कुहरे का प्रकोप था भारी ,
सभी ओर पसरा था जाडा ।
एक गावँ की बुढिया घर से,
निकली लेकर बस का भाडा ॥
बस अड्डे पर पहुँच गई तो,
होने लगी उसे लघुशंका ।
समाधान था बहुत जरूरी,
मिला उपाय न कोई ढंग का ॥
चारों तरफ निराशा देखी,
सहसा एक आइडिया आया ।
कुहरा खूब घना देखा तो,
कुहरे का ही लाभ उठाया ॥
उसने अपना काम जरूरी,
बस के पीछे जा निपटाया ।
लेकिन जब आरही थी वापस,
एक पुलिसवाला टकराया ॥
बोला " बुढिया ! चुपके चुपके ,
इधर कहाँ से तू आती है ?
तूने कोई चोरी की है,
या फिर तू आतंकवादी है ॥ "
बुढिया थी सीधी बेचारी,
आरोपों से बहुत डर गई ।
उसने कुछ भी नहीं छुपाया,
तुरत फुरत सच बयाँ कर गई ॥
सख्त और तब हुआ सिपाही,
"यह तो बहुत बडी गलती है ।
पाँच रुपये जुर्माना देगी,
या फिर तू थाने चलती है ?"
पाँच रुपये देकर बुढिया ने,
झंझट से पीछा छुडवाया ।
लेकिन आगे के मंजर पर,
आँखों को विश्वास न आया ॥
वही सिपाही पाँच रुपये का,
सिक्का जब हॉकर को देकर ।
भरवाके कप एक चाय का,
पीता था चुस्की ले लेकर ॥
जाकर पास कहा बुढिया ने,
"इस वर्दी को लगे पलीता ।
मुझे न जो लघुशंका होती,
मुए बता फिर तू क्या पीता ?"

26 टिप्‍पणियां:

  1. "इस वर्दी को लगे पलीता ।
    मुझे न जो लघुशंका होती,
    मुए बता फिर तू क्या पीता ?"

    क्या बात है! क्या केने!

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  2. इस वर्दी को लगे पलीता ।
    मुझे न जो लघुशंका होती,
    मुए बता फिर तू क्या पीता ?"

    वाह विवेक भाई,

    पुलिस वाले को खूब चखाया लघुशंका का स्वाद।

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  3. बहुत खूब!! घूस के पैसे से वही पीने के लिए उपलब्ध भी होना चाहिये इन नालायकों को.बुढ़िया ने बहुत सही कहा!! आनन्द आ गया.

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  4. विवेक जी नमस्कार,
    बुढिया भी कितनी सजग थी. पुलिस वाले को रंगे हाथों पकड़ लिया.

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  5. हा हा हा...बहुत खूब लिखा है आपने.....सही में मस्त है...

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  6. अच्छी लेखनी है, पढ़ के मजा आगया.
    नए साल की बधाई.

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  7. हा हा हा मज़ा आ गया। बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।

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  8. बहुत खूब,
    कहने को तो मजा आ गया, हँसी के फुहारे भी मगर व्यंग के बहाने आपने जो कठोर चोट हमारे व्यवस्था पर की है नि:संदेह सोचने को मजबूर करती है, गरीब की गरीबी ही लुट का साधन बन गयी है,
    आपको साधुवाद.
    रजनीश के झा
    http://rajneeshkjha.blogspot.com/

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  9. उसके बाद पुलिसिये के चेहरे की कल्पना कीजिए :-)

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  10. ये पीना भी कोई पीना है लल्लू!...

    :) बहुत खूब विवेक भाई.. एक बार फिर गाने को मन कर रहा है.. तू तू तू.. तू तू तारा

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  11. लाजवाब जी. आखिर जिस चीज के एवज मे पैसे लिये थे तो बुढिया ने बिलकुल चौकस सवाल किया .

    रामराम.

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  12. ऐसा भी लिखते हो .चलो इतने लोग कह रहे है तो बढिया है .

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  13. वाह्! बहुत ही अच्छी व्यंग्य रचना. बढिया कटाक्ष किया है ऎसी भ्रष्टाचारी व्यवस्था पर

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  14. वाह क्या कटाक्ष किया पुलिसिया क्रियाकलापों पर !

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  15. सुंदर विवेक जी...मनमोहक काफिये और शानदार व्यंग्य..

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  16. वास्तविकता... हंसी मजाक के साथ; धन्यवाद!

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  17. बुढ़िया ने इतनी गुणकारी मूत्रचाय का बिल नहीं पकड़ाया, क्या ?

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  18. "इस वर्दी को लगे पलीता ।
    मुझे न जो लघुशंका होती,
    मुए बता फिर तू क्या पीता ?"
    लाज़बाब व्यंग रचना मज़ा आ गया साहेब

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  19. स्वप्नलोक में ऐसे ही सपने देखते हो विवेक भाई. हे राम!

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  20. चार लाइन और

    वोय बुढिया, तू बहस न कर,
    और देख मै वर्दी वाला हूँ.
    मैंने चूसा है खून बहुत,
    जो मिला वही खा डाला हूँ.
    तुझे न गर लघुशंका होती,
    क्या मै प्यासा मर जाता,
    कोई बच्चा "कुछ" कर बैठा तो,
    खाने को ना मिल जाता ?

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