सोमवार, सितंबर 28, 2009

विजयादशमी आत्म-सम्मान दिवस कब बनेगा ?

आदरणीय महाराज दशानन जी, प्रणाम !

हम जानते हैं कि आज विजयादशमी है । आज का दिन इतिहास का सबसे काला दिन है । यही वह दिन है जब अपने विरोधियों से आपको परास्त होना पड़ा था । यद्यपि जनबल आपके ही साथ था किन्तु विजय का सेहरा अयोध्या के दो अनजाने से राजकुमारों के सिर बाँधकर आपके विरोधी जनता की नज़रों में खलनायक बनने से बच गए थे । यदि विभीषण जैसे देशद्रोहियों ने जिस थाली में खाया उसी में छेद न किया होता तो आज विजयादशमी तो मनायी जाती । किन्तु आपके विशालकाय पुतले को जलाने की बजाय उसकी पूजा की जा रही होती ।

जिसकी लाठी उसकी भैंस की उक्ति यहाँ बिल्कुल सटीक बैठती है । राम ने यूँ तो सूर्पनखा की नाक काटकर कोई भला काम नहीं किया था । वन में भटकी हुई अकेली अबला पर बल प्रयोग करना कहीं की वीरता नहीं हो सकती । आपके साथ राम का भला क्या मुकाबला ?

आपने फिर भी राम को सबक तो सिखा ही दिया कि पर-स्त्री को कैसे अपने संरक्षण में रखकर भी आपने उसकी पवित्रता का सम्मान किया और अपनी जान दे दी फिर भी अबला के विरुद्ध कभी बल प्रयोग की बात सोची भी नहीं । किन्तु अब बहुमत का जमाना है । जिस बात को ज्यादा लोग कहें वही सत्य मानी जाती है । समाज ऐसी संसद बनकर रह गया है जहाँ हर प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित करा लिया जाता है । आपके समर्थक चाहते हुए भी अल्पमत में रहने के डर से आपके पक्ष में हाथ खड़े नहीं कर पाते ।

यदि गुप्त मतदान प्रणाली से मतदान कराया जाय तो हमें पूरा भरोसा है कि इस बात पर दो तिहाई बहुमत अवश्य आपके पक्ष में होगा कि सत्य आपके साथ था । क्या आज भी अपनी बहन के अपमान का बदला अधिकतर लोग इससे भी घटिया तरीके अपनाकर नहीं लेते ? क्या हिन्दी फिल्मों का हीरो यह सब करके हिट नहीं हो जाता ?

आज शाम को जब आपका पुतला जल रहा होगा तो सत्य मानिये हमारा दिल जल रहा होगा । हमारा वश चलता तो आज का दिन आत्म-सम्मान दिवस के रूप में धूम-धाम से मनाते । लेकिन जिस देश में हिटलर के नाम पर दुकान का नाम नहीं रखा जा सकता वहाँ अभी आपके पक्ष में खुलकर बोलना खतरे से खाली नहीं होगा । डूबते हुए के साथ डूब जाना तो कहीं की बुद्धिमानी नहीं होती न ?

आशा है लोग अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुनकर खुलकर आपके पक्ष में खड़े होंगे । ऐसा होने भी लगा है । फिर आपका पुतला जलाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकेगा । आज का दिन आत्मसम्मान दिवस के रूप में दुनिया भर में मनाया जायेगा ।

अपनी बात

आज पता चला ब्लॉगवाणी बंद हो गया । जानकर दु:ख हुआ । हिन्दी चिट्ठों का बड़ा अच्छा संकलक था । हमने इसके साथ बहुत मजा किया । यह मानने में हमें कोई बुराई नहीं दिखती कि हमने भी जब से इसकी पसंद के भेद को समझा तबसे अपनी पोस्ट को जब तब खुद ही पसंद करते रहे । आखिर अपनी पोस्ट किसे पसंद नहीं होती ?

एक वाकया याद आता है । एक बार किसी महिला को अपने बच्चे के लिए स्कूल में खाना भिजवाना था । राह चलते एक आदमी को उसने खाना पकड़ा दिया और कहा कि स्कूल में जो बच्चा सबसे सुन्दर हो उसे ही यह खाने का डिब्बा दे दें । संयोग से उस आदमी का बेटा भी उसी स्कूल में पढ़ता था । उसने बेझिझक खाना अपने बेटे को दे दिया । इसमें गलती किसकी रही ?

वैसे चिट्ठाजगत धड़ाधड़ महाराज की जिम्मेदारी अब बढ़ गयी है । चिट्ठाजगत में यदि पोस्ट का सही समय दिखाया जाय तो अच्छा रहेगा ।

शुक्रवार, सितंबर 25, 2009

शरद ऋतु लायी नई बहार

शरद ऋतु लायी नई बहार


भोर और संध्या हैं ताजा
सूरज हुआ उदार
शरद ऋतु लायी नई बहार


नया नया सा मौसम आया
बिखरा-बिखरा सा सब पाया
पहले वह थोड़ा झुँझलाया
करने लगा सुधार
शरद ऋतु लायी नई बहार

कट्टर-पंथी चुनाव हारे
धूप और लू छिपकर सारे
आपस में लड़ते बेचारे
शासन करत उदार
शरद ऋतु लायी नई बहार

गरमी में जो मारे चाँटे
बिना बात ही सबको डाँटे
तब जो धूप चुभोए काँटे
करे वही अब प्यार
शरद ऋतु लायी नई बहार

ईद, दशहरा, गरबा छाये
एक साथ सब मिलकर आये
दीवाली की रौनक लाए
भाये सब त्यौहार
शरद ऋतु लायी नई बहार

भोर और संध्या हैं ताजा
सूरज हुआ उदार
शरद ऋतु लायी नई बहार

मंगलवार, सितंबर 22, 2009

जानिये 108 और 786 के बारे में

108

आपने बड़े बड़े संत महात्माओं और पूज्यनीय व्यक्तित्वों के नाम के पहले 'श्री-श्री १०८ श्री' जैसे विभूषण अवश्य देखे होंगे । क्या आपको पता है यह संख्या १०८ का क्या महत्व है । यदि पता है तो हमें बताया क्यों नहीं ? और यदि नहीं पता है तो अब जान लीजिये :

असल में हिन्दी वर्णमाला के सभी अक्षरों को यदि क्रमानुसार अंक दिये जाएं तो । 'ब्रह्म' शब्द के सभी अक्षरों से संबंधित अंकों का योग करने पर १०८ बनता है । यही कारण है कि हिन्दू धर्म में इस संख्या को पवित्र माना गया है ।

'सीताराम' शब्द के अक्षरों से संबंधित अंकों का योग करने पर भी १०८ की संख्या ही मिलती है । इस प्रणाली से किसी शब्द से संबंधित संख्या प्राप्त करने के लिए । वर्णमाला के स्वर और व्यंजनों को अलग अलग अंक दिये जाते हैं ।

ब्रह्म = ब + र + ह + म = 23 + 27 + 33 + 25 = 108

सीताराम = स + ई + त + आ + र + आ + म = 32 + 4 + 16 + 2 + 27 + 2 + 25 = 108

786

यही कहानी संख्या 786 के पीछे भी है । 786 की संख्या को इस्लाम धर्म में पवित्र समझा जाता है । आमतौर पर अधिकांश मुस्लिम इस संख्या से किसी न किसी तरह जुड़े रहना चाहते हैं ।

पवित्र कुरआन की शुरुआत होती है ' बिस्मिलाह-उर रहमान-उर रहीम' से जिसका अर्थ होता है ' आरम्भ उस ईश्वर के नाम पर किया जाता है जो अनुग्रही और दयालु है' । इसी 'बिस्मिलाह-उर रहमान-उर रहीम' को अरबी लिपि में लिखने पर यदि इसके सभी अक्षरों से संबंधित अंकों का योग किया जाय तो 786 की संख्या मिलती है । इस प्रणाली में अक्षरों को अंक विशेष पद्यति से दिये जाते हैं जिसमें 10 के बाद 100 , 200, 300,......... आदि आते हैं और 900 के बाद 1000, 2000, 3000,... आदि आते हैं ।

विभागीय सूचना :श्री श्री १०८ श्री समीर लाल 'समीर' उर्फ़ बाबा समीरानंद जी 'उड़न तश्तरी वाले' स्वप्नलोक पर टिप्पणियों का शतक लगाने में सफल हुए हैं . उन्हें कम्पनी की ओर से बहुत बहुत बधाइयाँ .

सोमवार, सितंबर 21, 2009

गंगाराम पटेल और बुलाकी नाई

गंगाराम पटेल और बुलाकी नाई के किस्से आपने सुने ही होंगे । फिर भी हमने जैसा सुना वैसा आपको सुना देते हैं ।

गंगाराम पटेल को जब गंगा-स्नान का विचार आया तो उन्होंने बुलाकी नाई को बुलाकर अपने साथ चलने का हुक्म सुना दिया । बुलाकी नाई की शादी को अभी ज्यादा अरसा नहीं हुआ था इसलिए उसका मन नई दुल्हन को छोड़कर घर से दूर जाने का न था फिर भी सीधे-सीधे मना न कर सकता था । गाँव में रहना था तो पटेल जी से बिगाड़ नहीं होना चाहिए । लिहाजा उसने अपनी छत्तीस विद्याओं में से एक का प्रयोग किया । बोला, " मालिक ! मैं चलने को तो तैयार हूँ लेकिन मेरी एक शर्त है । मैं हर पड़ाव पर आपसे एक सवाल पूछूँगा । उस सवाल का जवाब यदि आप संतोषजनक न दे सके तो मैं वहीं से वापस आ जाऊँगा । "

गंगाराम पटेल ने अपने बाल धूप में सफेद न किए थे । वे अनुभवी आदमी थे तुरंत ताड़ गए कि यदि शर्त न मानी गई तो बुलाकी विद्रोह कर सकता है । उन्होंने शर्त को स्वीकार कर लिया ।

यात्रा की तैयारियाँ हो गईं और वह दिन भी आ पहुँचा जब गंगाराम पटेल और बुलाकी नाई गंगा-स्नान करने के लिए यात्रा पर चल पड़े । पहले दिन जोश थोड़ा ज्यादा था । घोड़ा भी तरोताजा था । शाम तक काफी दूर निकल गए । जब नजदीक आया तो उन्होंने डेरा जमा लिया । बुलाकी को जल्दी थी । वह आत्म विश्वास से लबरेज था । उसने रुकते ही अपने सवाल का जवाब देने का आग्रह किया । लेकिन गंगाराम पटेल बोले, " उतावला न हो । घोड़े को पेड़ से बांध । शहर जा । आटा दाल ला । घोड़े के लिए दाना-घास ला । आकर खाना पका । हमें खिला । फिर तू खा । हमारे लिए हुक्का भर । फिर तू हमारी पैर-चप्पी करना और हम तेरे सवाल का जवाब देंगे । "

बुलाकी ठगा सा रह गया । पर करता क्या ? जल्दी जल्दी सब काम निपटाने के इरादे से शहर की तरफ निकला । शहर से आते समय एक अजीब दृश्य देखकर वहीं खड़ा होकर देखने लगा । जब उसकी समझ में कुछ न आया तो सोचा कि आज क्यों न गंगाराम पटेल से यही सवाल पूछ लूँ ? उसने ऐसा ही किया । जल्दी-जल्दी पटेल के बताये सभी काम निपटाकर वह हुक्का भर लाया । गंगाराम पटेल हुक्का गुड़गुड़ाने लगे और बुलाकी उनके पैर दबाने लगा । तब गंगाराम पटेल ने उसे अपना सवाल पूछने को कहा ।

बुलाकी बोला ," मालिक! जब मैं शहर से लौटकर आ रहा था तो मैंने एक अजीब दृश्य देखा । एक युवक अपने छोटे भाई को पीटे जा रहा था । भाई चिल्लाकर कह रहा था कि, " भाई मुझे मत मार, मैंने पिताजी से कोई झूठ नहीं बोला, सब सच ही तो कहा था ।" इस पर भाई बोला, " अब तुझे पिताजी से यह कहना है कि तूने जो कहा था सब झूठ था ।"

आगे बुलाकी नाई बोला, " मालिक! आप मेरी जिज्ञासा शांत करिये कि आखिर उन दोनों के बीच क्या समस्या थी ?"

गंगाराम पटेल बोले, " क्या इसी सवाल के लिए तू इतना उतावला हो रहा था ? सुन :

इस शहर में एक भूतपूर्व पहलवान रहता है, जिसने अपनी जवानी में अच्छे-अच्छे पहलवानों का कचूमर निकाल दिया था । पर जवानी हमेशा नहीं रहती । पहलवान की जवानी भी ढल गयी । उसने अपने बेटे को पहलवान बनाने की पूरी कोशिश की किन्तु पहलवान का बेटा पहलवान नहीं हुआ । हाँ वह पहलवान को दिलासा देता रहता था कि मैंने कल फलाँ शहर में पहला इनाम जीता, और परसों पास के गाँव के पहलवान कटोरीलाल को चित्त कर दिया । बाप हमेशा बेटे को यही समझाता कि खाने-पीने में कुछ कमी लगे तो मुझे बताना पर कभी किसी से दबना मत , जो मेरी इज्जत को दाग लग जाय । लेकिन जो पैसे मुनक्के खरीदने के लिए मिलते थे बेटा उनसे बीड़ी और दारू पी आता । बचते तो कुछ इनाम खरीद लाता ।

छोटा बेटा सब जानता था । लेकिन भाई के डर से कुछ नहीं बोलता था । आखिर बड़ा भाई छोटे भाई पर तो भारी पड़ता ही था और उसे बाप का भी समर्थन था । पर एक दिन छोटे भाई से भी न रहा गया । उसने घर आकर बाप को बता दिया कि, " आज भाई से पास के गाँव का पहलवान चीनीमल एक पेन छीन कर भाग गया । " बाप ने बड़े बेटे को पूछा तो वह साफ मुकर गया कि ऐसा कुछ हुआ था । और छोटे भाई को आँखों ही आँखों में धमकाना चाहा । छोटा भाई बेचारा चुप हो गया । पर बाप को बेटे की पहलवानी पर शक हो गया ।

बस इसी बात पर बड़ा बेटा छोटे बेटे को बाहर जाकर गुस्से में पीट रहा था ।

अरे बुलाकी नाई ! तू कहीं उसे ही तो नहीं देख आया ।"

गंगाराम पटेल की बात सुनकर बुलाकी नाई की घर वापस जाने की इच्छा पर पानी पड़ गया और वह अगले दिन का इंतजार करने लगा !

अनूप जी के आदेश पर :कुछ लोगों को लगा है कि कहीं यह चीनीलाल-चीन, पहलवान-भारत, बड़ा बेटा-सरकार और छोटा बेटा-मीडिया तो नहीं ? हम इसका खण्डन करते हैं । कहानी को मौलिक समझा जाय । इस कहानी को चीनी घुसपैठ से जोड़ कर न देखा जाय ।

रविवार, सितंबर 20, 2009

मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता


मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता!

अपना ज्ञान सँभालो आपै
मुझे न इसकी आवश्यकता
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

स्विस-बैंकों में मेरा खाता
साक्षी मेरी मितव्ययिता का
करने लगूँ खर्च यदि खुलकर
मुद्रा-स्फीति चढ़ेगी ऊपर

मत माहौल बनाओ भय का
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

पहली बार हुआ जब सांसद
तब से सांसद-निधि की भी मद
मैंने कभी न खर्ची पूरी
बनी तभी जनता से दूरी

मौका मिला न मन्त्री-पद का
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

अब जब मैं भी मंत्री ही हूँ
बदला लेकिन रंच नहीं हूँ
तुम हाई-कमान के चमचे
काम नहीं यह होता हमसे

अन्य आइडिया सोचो दद्दा
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

अपना ज्ञान सँभालो आपै
मुझे न इसकी आवश्यकता
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

शनिवार, सितंबर 19, 2009

शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते!


शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते!

हमें पूछते तो क्या होता ?
होठ न हम सिलवाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

तुमने बहुत हमें है माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना ?
खुला राज यह बहुत पुराना
हम न किन्तु कह पाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

पहले उनको कहा जनार्दन
हमको धिक्कारा था निज मन
आम आदमी का दे भूषण
अब उनको बहकाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

राजनीति में नव आगन्तुक!
पहले अपनी सीट करो बुक
बदलो यह साहब वाला लुक
हम कितना समझाते ?
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

तुम कलयुग में ही हो भाया
सतयुग अभी नहीं है आया
फिर क्यों कड़वा सत्य सुनाया ?
मीठा झूठ सुनाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

कहा सत्य ही इन्हें जानवर
कहाँ जायेंगे बुरा मानकर
हाथ हिलायें हम विमान पर
ये तब पूँछ हिलाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

जिनकी तुम खा रहे कमाई
तुमने गाली उन्हें सुनाई
क्या अजीब बुड़बक हो भाई
इसीलिए इतराते ?
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

हमें पूछते तो क्या होता ?
होठ न हम सिलवाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते!

शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

शठे शाठ्यं समाचरेत्

आजकल देखने में आ रहा है कि ब्लॉगरगण कुछ परेशान लग रहे हैं । कुछ इसलिए परेशान हैं कि प्रिंट मीडिया उनकी रचनाओं को छापने लायक नहीं समझता तो कुछ इसलिए परेशान हैं कि प्रिंट मीडिया रचनाएं छाप तो देता है लेकिन शाबाशी रचनाकार को पहुँचाने की बजाय खुद हड़प कर जाता है । कित्ती तो गलत बात है ।

इसी चिन्ता में हम पंखे के नीचे समाधि लगाकर ध्यान-मग्न हो गए तो बोध की प्राप्ति भी शीघ्र ही हो गई । और समस्या का जो हल सूझा वह इस प्रकार है :

जब आप परेशान हों तो 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' के मार्ग पर चलें । और कुछ नहीं तो मानसिक शान्ति तो मिल ही जाएगी ।

जो लोग अपने चिट्ठे की प्रिंट मीडिया द्वारा की जा रही अवहेलना से व्यथित हैं उन्हें प्रिंट मीडिया को भाव देना बन्द कर देना चाहिए । जमकर मीडिया की अवहेलना करें । कोई पूछे, " आज का अखबार देखा ?" तो उत्तर के बदले प्रश्न करें, " ये अखबार क्या होता है भाई ?"

जो महानुभाव इस बात से त्रस्त हैं कि प्रिंट मीडिया उनके ब्लॉग से सामग्री लेकर मनमाफिक तरीके से छाप रहा है, उनके लिए सलाह है कि अखबार को पूरा का पूरा ब्लॉग पर छाप दें । बस नाम को छोड़कर ।

बाकी तो हम अधिक क्या कहें थोड़े लिखे को बहुत समझें, क्योंकि आप स्वयं समझदार हैं!

गुरुवार, सितंबर 17, 2009

मंत्री महोदय की सफाई

पता चला है कि एक मंत्री महोदय ने 'इकोनॉमी' क्लास' को 'कैटल क्लास' कह दिया । अब माँस की जीभ है फिसल ही जाती है । फिसल गयी । जनता और विपक्ष सफाई माँग रहे हैं । सूत्रों से पता चला है कि सफाई तैयार की जा रही है । पर कुछ मुश्किलें हैं । पार्टी चाहे तो हमारे ब्लॉग से सफाई वक्तव्य कॉपी कर सकती है । जो यूँ होगा :

"यह विपक्ष और मीडिया की कारस्तानी है । मंत्री महोदय के बयान को तोड़-मरोड़कर जनता के सामने पेश किया गया है । यह बयान निहायत ही सकारात्मक है और पार्टी द्वारा चलाये जा रहे मितव्ययता अभियान की पहली उपलब्धि है ।

हमारी विपक्ष से अपील है कि जनता की भलाई के काम में टाँग न अड़ाए अन्यथा जनता उन्हें अगले चुनाव में जरूर सबक सिखाएगी ।

दरअसल मंत्री महोदय का आशय था कि इकोनॉमी क्लास में ऐसी सुविधाएं दी जा रही हैं कि इसे फिलहाल कैटल क्लास ही कहा जाना चाहिए । हम जनता को ऐसी सुविधाएं दिया जाना कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे । हम रेलवे के जनरल कोच तक वीआईपी वाली सुविधा पहुँचाकर ही दम लेंगे । यदि हम ऐसा न कर सके तो हमारा इकोनॉमी क्लास में जाने का लाभ ही क्या । आखिर इसके फायदे जनता को भी मिलने चाहिए । "

इस सफाई से भूतपूर्व रेल मंत्री का चित होना तो तय माना जा रहा है । पर वर्तमान कहीं बुरा न मान जाएं यही लोचा है ।

बुधवार, सितंबर 16, 2009

ब्लॉग रत्न : फुरसतिया महाराज ( मेरा पन्ना से उधार )



वैसे तो आपके ठीक सामने जो व्यक्ति कम्प्यूटर और चश्मे के पीछे से आपको लगातार घूरे जा रहा है, उसे आप पहचानते ही होंगे . फिर भी यदि किसी कारणवश आप इन्हें न पहचान सके हों तो हम शंका उठने से पहले ही समाधान कर देते हैं . डरिये मत ये सिर्फ दिखते खतरनाक हैं . ये अनूप शुक्ल हैं . आज इनका हैप्पी बड्डे है . इस अवसर पर इनके जन्म के उपलक्ष्य में जितेन्द्र चौधरी का एक पुराना लेख हम लाए हैं । लेख 2006 में आज ही के दिन लिखा गया होगा . पर आज भी प्रासंगिक है . आप जैसा है वैसा ही पढ़कर हमें वापस कर देना . हम जीतू जी को लौटा देंगे . खराब मत करना . उधार का लेख है . कहीं हरजाना देना पड़ जाए . तो पढ़िये जीतू जी का लेख:

ब्लॉग रत्न : फुरसतिया महाराज

आज यानि १६ सितम्बर को सर्वप्रिय लेखक और ब्लॉग जगत के बड़े भाईसाहब अनूप कुमार शुक्ला उर्फ़ शुकुल उर्फ़ फुरसतिया का जन्मदिन है, बोले तो हैप्पी बर्थ डे है। फुरसतिया जी अगर चीन मे होते तो शोक मना रहे होते कि एक साल और निकल गया। लेकिन अब चूंकि ये भारत मै पैदा हुए है, इसलिए जन्मदिन की मुबारकबाद तो सबको देनी ही पड़ेंगी। (दोगे नही तो जाओगे कहाँ, चिट्ठा चर्चा यही लिखते है, और आजकल नारद की अनुपस्थिति मे चिट्ठा चर्चा ही हिन्दी के ताजे चिट्ठों तक पहुँचने का एकमात्र माध्यम है। मैने हिन्दी ब्लॉग लिखने की प्रेरणा इन्ही के चिट्ठे को देखकर ली थी। पहली टिप्पणी इन्ही के ब्लॉग पर की थी। शुरुवात के दिनो मे फुरसतिया और ठलुवा (ये भी बहुत भीषण प्राणी है, इनपर फिर कभी) ब्लॉग मे आपसी बातचीत किया करते थे। इधर से ये फायर करते थे, उधर से वो, दोनो का जवाबी कीर्तन देखने लायक है।

फुरसतिया जी के अनुसार यह कविता एकदम सटीक बैठती है हमने इसे इनके ब्लॉग से ही चांपा है)

हम न हिमालय की ऊंचाई, नहीं मील के हम पत्थर हैं

अपनी छाया के बाढे. हम, जैसे भी हैं हम सुंदर हैं

हम तो एक किनारे भर हैं सागर पास चला आता है.

हम जमीन पर ही रहते हैं अंबर पास चला आता है.

–वीरेन्द्र आस्तिक

अब इन्होने ब्लॉग का नाम फुरसतिया काहे रखा, लो लीजिए इन्ही से सुन लीजिए :

"जब मैनें देखादेखी ब्लाग बनाने की बात सोची तो सवाल उठा नाम का.सोचा फुरसत से तय किया जायेगा.इसी से नाम हुआ फुरसतिया.अब जब नाम हो गया तो पूछा गया भाई फुरसतिया की जगह फोकटिया काहे नही रखा नाम.नाम क्या बतायें?अक्सर ऐसा होता है कि काम करने के बाद बहाना तलाशा जाता है.यहाँ भीयही हुआ.तो बहाना यह है कि ब्लाग फुरसत में तो बनसकता है पर फोकट में नहीं.इसलिये नाम को लेकर हम निशाखातिर हो गये."
फुरसतिया शब्द का अर्थ चाहे जो भी हो, हम तो इसे फुल्ली रसभरी बतिया मानते है। मतलब ये कि फुरसतिया का ब्लॉग पढते समय आप हास्य रस मे सराबोर हो जाते है। शब्दों पर इनकी बहुत अच्छी पकड़ है। विषय वस्तु के बारे मे क्या कहें, हमने इनको लड़कियों से छेड़खानी के ऊपर एक लेख लिखने को कहा तो जनाब प्रेक्टिकल एक्सपीरियन्स लेने (यहाँ इसे ‘छेड़ने‘ पढा जाए) गर्ल्स कालेज के बाहर टहलते मिले। मतलब ये कि बिना अनुभव किए वो लिखते नही और लिखने के लिये अनुभव लेने से भी नही चूकते। अब गालियों का सांस्कृतिक महत्व वाले लेख को ही लीजिए, बाकी आप स्वयं समझ जाएंगे। वैसे अभी पिछले दिनो इन्होने निरन्तर पत्रिका के एड्स विशेषांक पर भी कुछ लेख भी लिखे थे, (आप गलत सलत मत समझिएगा, हम पहले से ही कह देते है।)
फुरसतिया जी के ऊपर तो वैसे अतुलवा बहुत कुछ लिख चुका है, हम यहाँ सिर्फ़ अनछुई बाते ही बताएंगे और हाँ चिकाई बिल्कुल नही करेंगे। फुरसतिया जी बचपन से बहुत चिकाईबाज किस्म के इन्सान रहे है। फुरसतिया के बचपन की बात है, कानपुर में ब्रहम नगर के पास, एक छोटा सा मंदिर था मंदिर के बाहर, एक राक्षसी खुला हुआ मुँह वाली मूर्ति बनी हुई थी, इनको पता नही उस राक्षसी मे क्या नजर आया, मंदिर के बाहर खड़े रहकर, घन्टो छोटे छोटे कंकड़ों से राक्षसी के मुँह का निशाना साधा करते थे। वहाँ से इनका प्रस्थान तभी होता था, जब तक कि कोई इनको गरियाता हुआ खदेड़ता नही था।
ब्लॉग के बारे आपने चाहे कितनी परिभाषाएं सुन रखी हो, ब्लॉग की झकास परिभाषा फुरसतिया जी ने इस तरह से दी है:

"ब्लाग क्या है?इसपर विद्घानों में कई मत होंगे.चूंकि हम भी इस पाप में शरीक हैं अत: जरूरी है कि बात साफ कर ली जाये.हंस के संपादकाचार्य राजेन्द्र यादव जीकहते हैं कि ब्लाग लोगों की छपास पीङा की तात्कालिक मुक्ति का समाधान है.खुद लिखो-छाप दो.मतलब आत्मनिर्भरता की तरफ कदम."

अनूप भाई की एक खास बात है, ये किसी को भी पिटता हुआ नही देख सकते। अगर दो लोग मिलकर किसी तीसरे की पिटाई कर रहे हों तो फुरसतियाजी बिना मसला जाने, तुरन्त पाला बदलकर पिटने वाले के घाव सहलाने लगते है। पिछले कई किस्से बयां किए जा सकते है। हमारा बऊवा जो हर बार पिटने वाले काम करता था, फुरसतियाजी उसकी पिटाईपरान्त तत्काल घाव सहलाने के लिए उपलब्ध रहते थे। यहाँ तक तो गनीमत थी, लेकिन एक दिन कल्लू पहलवान ने अपना लट्ठ लहराते हुए फुरसतियाजी से पूछा “बहुत याराना लगता है…. क्यो?” उस दिन के बाद से अनूप भाई बऊवा से ऐसे कन्टी हुए कि बऊवा से सिर्फ़ हमारे ब्लॉग तक की पहचान रखे हैं। एक और बात फुरसतिया जी नेकी करके भूल जाते है, ना जाने कितनी बार बऊवा को पिटने से बचाते बचाते खुद चोटिल हुए। फुरसतिया जी अब ये मत पूछना बऊवा कौन? हम जानते है आप महान आत्मा है जो नेकी कर दरिया मे डाल वाले सिद्दान्त पर विश्वास करते है।
शुकुल भाई चिकाई करने मे बहुत आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी है, कभी भी किसी की चिकाई करने मे विदेशी सहायता पर निर्भर नही रहते। अकेले अपने बलबूते पर चिकाई लेते है। सार्वजनिक रुप से भरपूर चिकाई लेते है और व्यक्तिगत रुप से मेल मुलाकात कर आते है। जैसे भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान, सार्वजनिक रुप से बयानबाजी (चिकाई) करते है, मिलने पर हैंहैं करते हुए पाए जाते है। अगला बन्दा इनका ब्लॉग (दो तीन बार पढकर) सोचता है कि इसने चिकाईबाजी तो की है, लेकिन कुछ उखाड़ने की सोचे इस बीच शुकुल गूगलटाक पर चहकते हुए, पब्लिक रिलेशन करते हुए नजर आते है।बन्दा अभी कुछ कहे, उससे पहले ही ये कहते है, अरे वो हम सिर्फ़ मौज ले रहे थे। वो लेख तुम्हारे लिए थोड़े ही था, वो तो पब्लिक के लिए था। बन्दा लुटा पिटा, ठगा सा रहा जाता है। इसे बोलते जबरी मारे और रोने भी ना दे।
फुरसतिया जी को समय समय पर साहित्यिक बीमारियां भी होती रहती है, कभी कविता (अरे वो वर्मा जी की लड़की नही, काव्य वाली कविता) का शौंक, कभी हाइकू का हैंगओवर और कभी जीवनियों का जोश। कभी ये जीवित कवियों की जीवनी लिखते है, कभी मरहूम शायर को भी जन्नत मे चैन नही लेने देते। कविताएं भी लिखी है इन्होने, अब समझने वालों से पूछो कि कैसे समझ मे आयी। आखिरी समाचार मिलने तक इस पर अभी शोध जारी है। इनके लेख इतने लम्बे लम्बे होते है कि पढने वाला अगर पूरा पढने बैठे तो अर्सा लग जाए। इसलिए पहला और आखिरी पैराग्राफ पढकर लोग तारीफ़ करके कट लेते है। लेखन मे इन्होने देवी देवताओं को भी नही छोड़ा, कई कई बार वहाँ से कम्पलेन्ट आयी कि भई देखो और समझाओ इसको क्या क्या लिखॆ जा रहा है। अनेको बार तो बवाल बहुत बढ गया लेकिन नारद ने हर बार मान्डवली करायी।
फुरसतिया की लेखन शैली मे शब्दों का अजीब लेकिन परपेक्ट सा घालमेल होता है, साहित्य की गम्भीरता, हास्य की मिठास, कनपुरिया चिकाई की चाश्नी और व्यंग का तीखापन एक साथ एक ही जगह पर देखने को मिलती है। लेखन मे विषय भी इतने धाकड़ होते है कि हम लोग सोचते रह जाते है, ये लिखकर आ भी जाते है। एक बात और, लिखने के तुरन्त बाद, ये गूगल टाक पर शिकार तलाशते नजर आते है, जो पहले पकड़ मे आया, तड़ से उसको बोलते है, पढ। अगर किसी ने झूठ मूठ बोला कि पढ लिया, तो फुरसतिया जी हैडमास्टर की तरह लेख सम्बंधित सवाल पूछने लगते है। और अगर किसी ने दबाव मे आकर बोला, “वाह! वाह! क्या लिखा है।” बस फिर तो फुरसतिया जी गुलाम अली की तरह हारमोनियम उसकी तरफ़ करके, पूरी प्रस्तावना से उपसंहार तक उसको बता देते है। अनलिखे प्वाइन्ट भी बता देते है। उसके बाद बारी होती है, टिप्पणी तकादे की। फुरसतिया तुरन्त उसको बोलते है, टिप्पणी कर। मरता ना क्या करता, अगला तुरन्त टिप्पणी करके पतली गली से सरक लेता है, और अगली बार गूगल टाक पर मिस्टर इन्डिया वाली सैटिंग से ही लागिन करता है या फिर अति व्यस्त लिखकर ही अवतरित होता है।
फुरसतिया जी आसान लेखन मे विश्वास नही करते, इनका मत है:

    1. पहली बार तो बन्दा लेख देखने आए, (बन्दा लेख लम्बा देखकर पतली गली से निकल जाता है)
    2. दूसरी बार पढने आए (अगर फुरसतिया गूगल टाक पर दिख गए तो पक्का पकड़कर लाया गया होगा)
    3. तीसरी बार डिक्शनरी बगल मे दबाकर दोबारा पढने आए। (बशर्ते डिक्शनरी मिल जाए)
    4. चौथी बार टिप्पणी के लिए (पिछली बार गूगल टाक पर गोली देकर निकले बन्दो के लिए) आए।


इसके अलावा अनूप भाई युवा चिट्ठाकारों को बहुत प्रोत्साहन देते है, ये प्रोत्साहन उस वक्त दोगुना चौगुना हो जाता है यदि वो चिट्ठाकार कोई महिला चिट्ठाकार हो। उनको सहायता देने मे फुरसतिया जी की ऊर्जा देखते ही बनती है। हम तो सिर्फ़ एक इमेल की दूरी पर रहते है लेकिन फुरसतिया, वो तो यह दूरी भी मिटाकर मोबाइल नम्बर तक दे देते है।हम लोगों ने भी कई बार चिकाई चिकाई मे महिला चिट्ठाकार वाला खेल इनके साथ खेला है, सचमुच मे अनूप भाई बहुत अपनापन दिखाते है….बाकी हम कैसे लिखे यहाँ पर।
अनूप भाई को एक बहुत बड़ी चिन्ता रहती है अपने ब्लॉग पर हिट संख्या की। विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि इन्होने अपने ब्लॉग पर एक नही दो नही, तीन तीन हिट काउन्टर लगा रखे है। ज्यादा कुरदने पर पता चला कि यदि एक हिट काउन्टर इनके मन मुताबिक विजिटर संख्या नही दिखाता तो ये दूसरे वाले को देखते है। अगर दोनो कम दिखाते है तो इसको बदलने की सोचने लगते है।जैसे लोग अखबार मे राशिफल पढते समय पहले जन्मतिथि अनुसार राशिफल पढते है, कुछ गलत सलत होता है तो नाम के पहले अक्षर वाला राशिफल पढते है, ठीक वैसा ही।
इन सबके बावजूद भी फुरसतिया जी का ब्लॉग मेरा मनपसन्द ब्लॉग है। सुबह जब मै लागिन करता हूँ तो पहला काम इनका ब्लॉग देखने जरुर जाता हूँ, जैसे गुरद्वारे मत्था टेकने जाते है लोग बाग। सचमुच फुरसतिया का लेखन बहुत कमाल का है, यदि कोई सीखना चाहे तो फुरसतिया का ब्लॉग अपने आप मे एक इन्स्टीट्यूशन है। हास्य व्यंग का पुट, समसामयिक आलोचना, ज्वलन्त मुद्दे, सामाजिक कुरीतिया सभी पर इन्होने बहुत ही अच्छे तरीके से लिखा है। हिन्दी के इस ब्लॉग रत्न को मेरी तरफ़ जन्मदिन की बहुत बहुत बधाइयां। आशा है वे इस तारीफ को पाकर फ़ूलेंगे नही, और अपना लेखन लगातार जारी रखेंगे। इन्ही शुभकामनाओं के साथ…..( और चिकाई के जवाबी फायर की उम्मीद में)उनका अनुज, शिष्य और ब्लोंगोटिया यार (ये लंगोटिया टाइप का होता है)

-जीतू

चलते-चलते

फुरसतिया जी हो गए, छियालीस के आज .

ब्लॉग नीरनिधि मौज के बादशाह बेताज ..

बादशाह बेताज, मुबारक होय जनमदिन .

यूँ ही लेते रहें मौज ये सबसे प्रतिदिन ..

विवेक सिंह यों कहें, हमारी इन्हें दुआएं .

देने वाले मौज, स्वयं आकर दे जाएं ..



जितेन्द्र चौधरी: विवेक भाई,
लेख छापने का धन्यवाद।
इतने साल हो गए ये लेख लिखे, शुकुल(फुरसतिया) ना बदला, ना ही बदलेगा।
आज जब शुकुल 46 साल के माशाअल्लाह जवां मर्द हो गए है, उनको उनके जन्मदिन पर ढेर सारी बधाईयां। शुकुल तुम जियो हजारों साल, लिखो लेख पचास हजार।

एक बार फिर से धन्यवाद और शुकुल को बधाई।

सोमवार, सितंबर 14, 2009

सपनों की दुनिया

सपनों की दुनिया भी क्या है ।

सबकी अपनी जुदा-जुदा है ॥

जब भी मुझे नींद आती है ।

स्वप्नलोक में ले जाती है ॥

देख रहा हूँ एक मरुस्थल ।

यद्यपि यहाँ उपस्थित है जल ॥

गंगा एक बह रही उजली ।

यह न शिव-जटाओं से निकली ॥

निकली है यह सुप्त नयन से ।

करुण अश्रुओं के क्रंदन से ॥

अविरल धार आँसुओं की यह ।

सदियों से कहती है बह-बह ॥

कन्या-भ्रूण मरेंगे जब तक ।

हत्या मनुज करेंगे जब तक ॥

तब तक यही मरुस्थल होगा ।

बंजर भू अंत:स्थल होगा ॥

मिले न पशु, पक्षी, हरियाली ।

पड़ीं खाइयाँ बनी सवाली ॥

मैं प्रश्नों से नज़र चुराता ।

बालू पर हूँ पकड़ बनाता ॥

हाथ लगी लेकिन असफलता ।

बार बार मैं रहा फिसलता ॥

मैं खाई से निकल न पाया ।

पत्नी जी ने मुझे जगाया ॥

लेकिन सपना वह दु:खदाई ।

कैसी थी वह गहरी खाई !

कन्या भ्रूणों के वे साये ।

मुझे भूलते नहीं भुलाए ॥

अरे मूर्ख मानव अब मानो ।

पापकर्म यह है पहचानो ॥

करो न ह्त्या कभी भ्रूण की ।

समीर खुश्बू दे प्रसून की ॥

सूचना : यह कविता समीर जी द्वारा रचित इसी शीर्षक की कविता से प्रेरित है । इसके लिए समीर जी की अनुमति प्राप्त कर ली गई है ।

नहीं यह मेरी मंजिल

या आभासी जगत से, बिरथा कर मत मोह ।
मोह क्लेश का मूल है, होकर रहे बिछोह ॥
होकर रहे बिछोह, अकेला चल तू राही ।
ऊपर उठकर देख, त्याग तारीफ़, बुराई ॥
विवेक सिंह यों कहें, नहीं यह मेरी मंजिल ।
हुआ सफ़र से त्रस्त, आ गया बहलाने दिल ॥

रविवार, सितंबर 13, 2009

हिन्दी-दिवस पर हिन्दी-बैण्ड


मैंने जब से होश सँभाला स्वयं को बृजभाषामय वातावरण में पाया । खड़ी बोली हिन्दी तो वहाँ बस लिखने और पढ़ने के लिए है । यदि कोई बोलने की कोशिश भी करे तो धाराप्रवाह बोलना कठिन होता था । आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि बाहरी लोग ही 'क्या कू' बोलते अच्छे लगते हैं, या फिर ज्यादा पढ़े लिखे लोग । अगर कोई आम आदमी यह कोशिश करता तो मजाक होता था कि, " देखो तो, अंग्रेजी की टाँग को तोड़े ही दे रहा है ।" यदि गाँव का व्यक्ति शहर में जाकर बस गया है तो वह जब भी गाँव घूमने आये उसे गाँव की भाषा में ही बोलना चाहिए न कि अंग्रेजी फुर्रकनी चाहिए ऐसी आम धारणा है । अन्यथा कहा जाता है कि वह उड़ने लगा है । घमण्डी हो गया है । आदि आदि ।

मैं जब कभी किसी के बारे में सुनता कि अमुक व्यक्ति कई भाषाएं जानता है तो यही विचार आता कि कैसे वह किसी भाषा में बोलते समय अन्य भाषाओं के शब्दों को घालमेल होने से बचाता होगा । पर अब लगता है कि आदमी एक ऐसे रेडियो की तरह होता है जिसका बैण्ड स्वयमेव परिस्थिति के अनुरूप बदलता रहता है ।

ऑफिस में हों या बेटों से बात करें तो शहरी हिन्दी का बैण्ड, पत्नी से बात करें या गाँव में हों तो गाँव की अपनी प्यारी बृजभाषा का बैण्ड, अभी चेन्नई से किसी पुराने साथी का फोन आ जाए तो अंग्रेजी का बैण्ड अपने आप ही लग जाता है । पर जो बात बृजभाषा बैण्ड में होती है वह किसी और में कहाँ ? इसीलिए पत्नी को मैंने उसकी इच्छा के प्रतिकूल मुझसे बात करते समय बृजभाषा बैण्ड पर रहने को राजी किया हुआ है । इससे बड़ी शान्ति मिलती है । अन्यथा ऐसा लगता है जैसे मैं अभिनय करता जा रहा हूँ ।

यह तो हुई अपनी भाषा की बात । अब आते हैं हिन्दी दिवस पर । अब हिन्दी दिवस में अधिक देर नहीं बची । इसलिए मैं एक हिन्दी दिवस की कविता का पुन:ठेलन कर ही देता हूँ । झेलिए :



हिन्दी दिवस के अवसर पर

समारोह कार्यालय में था,
हिन्दी दिवस मनाना था ।
सभ्य समाज उपस्थित सब,
मर्दाना और जनाना था ।

एक-एक कर सब बोले,
सबने हिन्दी का यश गाया ।
हिन्दी ही सत्य कहा सबने,
अंग्रेजी तो है बस माया ।

साहब एक बढ़े आगे,
अपना कद ऊँचा करने में ।
"मिलती है अद्भुत शान्ति सदा ही,
हिन्दी भाषण करने में ।

चले गए अंग्रेज यहाँ से,
पर अंग्रेजी छोड़ गए ।
बुरा किया अंग्रेजों ने,
मिलकर भारत को तोड़ गए ।

किन्तु नहीं चिन्ता हमको,
हम मिलकर आगे जाएंगे ।
उत्थान करेंगे हिन्दी का,
हिन्दी में हँसेंगे, गाएंगे ।

अब बात करेंगे हिन्दी में,
हम सब अंग्रेजी छोड़ेंगे ।
जो अंग्रेजी में बोलेगा,
हम उससे नाता तोड़ेंगे ।"

सचमुच उनका कद उच्च हुआ,
करतल ध्वनि की हुँकार हुई ।
अंग्रेजी पडी रही नीचे,
तो हिन्दी सिंह सवार हुई ।

पर यह क्या सब कुछ बदल गया,
अनहोनी को तो होना था ।
बस चीफ बॉस का आना था,
हिन्दी को फिर से रोना था ।

आगमन चीफ का हुआ सभी ने,
उठकर गुड मॉर्निंग बोला ।
"मोर्निंग मॉर्निंग हाउ आर यू ?"
साहब ने गिरा दिया गोला ।

खड़े हुए जा माइक पर,
फिर हिन्दी की तारीफ करी ।
"ऑल ऑफ अस शुड यूज़ हिन्दी,
जस्ट लीव इंग्लिश यू डॉण्ट वरी ॥"

शनिवार, सितंबर 12, 2009

अरे तू अब बस भी कर यार









अरे तू अब बस भी कर यार !
कर दी ऊपर अगर शिकायत,
बहुत पड़ेगी मार.....


सही समय पर रहा नदारद
रहे तरसते सब नाले-नद
सूख गए सब खेत धान के
किसान बैठे हार मान के
कर करके इंतजार......

रहा घूमता तू बदली संग
झूम रहा था ज्यों पी हो भंग
भूल गया निज जिम्मेदारी
कर लीं खत्म छुट्टियाँ सारी
कर दी बहुत अबार.......

बरस रहा अब बिना ब्रेक ही
धूप दिखाई न दी नेंक भी
चार माह का काम अधूरा
चार दिनों में करता पूरा
बना बड़ा होशियार.....

सुनी नहीं क्या उक्ति पुरानी
'का वर्षा जब कृषि सुखानी'
कीमत समझ समय की लल्लू !
आज छोड़ बदली का पल्लू
हो जा खुद-मुख्तार......

जाँच बिठाई जाएगी जब
सत्य सामने आयेगा तब
तुझको किसने था उकसाया ?
तू ऐसा कैसे कर पाया ?
सो गए क्या सब पहरेदार....

यह संवेदनशील काम है
लेकिन तू तो बेलगाम है
बादल तुझे कौन बनवाया ?
क्या तू आरक्षण से आया ?
कार्यवाही को हो तैयार....

नौकरी तेरी चली न जाय
मिलेगी फिर न ऊपरी आय
नौकरी छोटी हो या बड़ी
ऊपरी आय चीज है बुरी
कराती गलत कार्य हर बार......

अरे तू अब बस भी कर यार !


सूचना: स्वप्नलोक पर गत्यात्मक ज्योतिष वाली संगीता पुरी जी ने अर्ध-शतक ठोकने में सफलता हासिल की है । उन्हें बहुत बहुत बधाई ! इस अवसर पर इनके बारे में इन्हीं की जुबानी :

पोस्‍ट-ग्रेज्‍युएट डिग्री ली है अर्थशास्‍त्र में .. पर सारा जीवन समर्पित कर दिया ज्‍योतिष को .. अपने बारे में कुछ खास नहीं बताने को अभी तक .. ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन-मनन करके उसमे से वैज्ञानिक तथ्यों को निकलने में सफ़लता पाते रहना .. बस सकारात्‍मक सोंच रखती हूं .. सकारात्‍मक काम करती हूं .. हर जगह सकारात्‍मक सोंच देखना चाहती हूं .. आकाश को छूने के सपने हैं मेरे .. और उसे हकीकत में बदलने को प्रयासरत हूं .. सफलता का इंतजार है।

बुधवार, सितंबर 09, 2009

वहीं हमारे काशी-काबा


छोटा सा है गाँव हमारा ।
लगता हमें जहाँ से प्यारा ॥

जब स्कूल बन्द हो जाते ।
हम सब गाँव घूमने जाते ॥

भागदौड़ शहरों में जैसी ।
देखी नहीं गाँव में वैसी ॥

सुबह-शाम खेतों पर जाना ।
घर पर ऊधम खूब मचाना ॥

अम्मा-बाबा हँसते रहते ।
पापा भी कुछ हमें न कहते ॥

काश छुट्टियाँ जल्दी आयें ।
फिर से गाँव घूमने जायें ॥

जहाँ हमारे अम्मा-बाबा ।
वहीं हमारे काशी-काबा ॥

सोमवार, सितंबर 07, 2009

चाँद-तारा प्रहेलिका का परिणाम

चाँद-तारा प्रहेलिका में जो पाठक भाग ले सके उन्हें बधाई । जो भाग न ले पाये उन्हें अगली प्रहेलिका के लिए शुभकामनाएं । सबने खूब मजा किया । कुछ लोग सीरियस हो गए तो कुछ ने ठण्डे दिमाग से प्रहेलिका पर हल चलाया ।

वस्तुत: चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा लगभग 27.3 दिन में करता है । धरती की परिक्रमा करते समय यह पश्चिम से पूरब की ओर जाता है । किन्तु पृथ्वी अपनी कल्पित धुरी पर इससे भी तेज पश्चिम से पूरब की ओर घूमती है । इसीलिए चन्द्रमा हमें पश्चिम की ओर जाता दिखाई देता है । यदि कभी पृथ्वी थोड़ी देर अपनी धुरी पर घूमना छोड़कर सुस्ताने लगे तो और चाहे जो हो पर चन्द्रमा आपको अवश्य पश्चिम से पूरब की ओर जाता दिखाई देगा ।

तारा धरती की परिक्रमा नहीं करता । उसका पूरब से पश्चिम की ओर जाते हुए दिखना सिर्फ धरती के अपनी धुरी पर घूमने के कारण है । इसलिए जब पृथ्वी सुस्ताने के लिए रुकेगी तो यह भी रुक जाएगा ।

अब चलते हैं प्रहेलिका के उत्तर की ओर :

जिस समय चन्द्रमा और तारा एक जगह पर हों, उससे आगे तारा धीरे-धीरे आगे होता जाएगा और चन्द्रमा पीछे रह जाएगा । दोंनों पूरब से पश्चिम वाले रूट पर चलेंगे । पश्चिम के क्षितिज में पहले तारा फिर चन्द्रमा डूब जाएंगे ।

विवेक रस्तोगी जी, संगीता पुरी जी , और दिनेशराय द्विवेदी जी, विजेता बनने में सफल हुए । सभी को बधाइयाँ ।

अन्य टिप्पणियाँ भी मजेदार रहीं । कुछ लोगों ने फोटू देखकर ही पहचान लिया कि यह तारा नहीं ग्रह है । और ग्रह भी शुक्र है यह भी पता लगा लिया । उन्हें बधाई । उनका नाम नोबेल पुरुस्कार के लिए आगे सरका दिया गया है । स्वाहा !

रविवार, सितंबर 06, 2009

चाँद-तारा प्रहेलिका


चाँद-तारा प्रहेलिका में आपका हार्दिक स्वागत है । प्रहेलिका इस प्रकार है:
आसमान में चाँद के बिल्कुल पास एक तारा है । आपको बताना है कि अब क्या होगा ?
क्या चाँद और तारा साथ-साथ रहेगें ?
या फिर इनमें से कोई एक, दूसरे को पीछे छोड़ जाएगा ?
पीछे छोड़ जाएगा तो छोड़कर किधर जाएगा ?
जैसा होगा वैसा क्यों होगा ?
आदि जिज्ञासाओं को आपको शान्त करना है । और जितना आपकी बैटरी में दम हो उतना प्रकाश इस स्थिति पर डाल सकते हैं ।
प्रहेलिका का विजेता कोई एक नहीं होगा । प्रहेलिका का परिणाम घोषित होने से पहले जितने लोगों के उत्तर सही पाये जायेंगे । वे सभी संयुक्त विजेता होंगे । इसलिए यह न सोचें कि, "अब क्या उत्तर देंगे जी अब तो लेट हो गये ।"

शनिवार, सितंबर 05, 2009

अब क्या खाओगे......?

आश्विन मास के साथ ही शरद ऋतु का तोहफा भी आ पहुँचा है । चहुँ ओर धुला धुला सा वातावरण है । हरियाली के बीच फूल ऐसे ही सुशोभित हो रहे हैं जैसे सुंदरियों के होठों पर लिपिस्टिक । सुबह और शाम सुहाने हो गए हैं । शाम को बाहर घूमने निकलें तो हवा की ताजगी देखकर लगता है जैसे जीवन में पहली बार आज ही साँस ली हो । गरमी में तो हालत यह होती है कि घर से बाहर निकलो तो गरम हवा के थपेड़े अपमानित करने के लिए हर समय तैयार मिलते हैं । निकलते ही एक कान के नीचे खैंच के पड़ता है फिर जैसा आपका साहस वैसी सेवा । गरमी का मौसम एक जाट की दुकान की तरह है । अपना सीधे सीधे सामान खरीदकर लाना है तो ठीक अन्यथा जरा सी चूँ चपड़ करते ही अगली दुकान की ओर इशारा कर देगा । उसे यह तो बाद में महसूस होगा कि बेकार ही एक ग्राहक को नाराज कर दिया । लेकिन शरद ऋतु में आपके साथ ऐसा नहीं होगा । अब आप बनिये की दुकान पर आ गये हैं । यहाँ का मूल मत्र है 'बनिये' 'बिगड़िये मत' । ' जी सर' , 'यस सर' जैसे शब्दों से आपकी सेवा होगी ।

श्राद्ध पक्ष की धूम है । ब्राह्मणों की चाँदी है । दावतें उड़ाने का मौसम है । इन दावतों के चक्कर में इतिहास में बहुत लोगों को को उल्लू बनाया गया है । गरीबों की गरीबी से भी रस चूसा गया है । पितरों को भोजन पहुँचाने के नाम पर भूखे बच्चों के मुंह का निवाला छीनकर खाया गया है । और यह सब अब भी हो रहा है । धर्म, जो निहायत ही व्यक्तिगत होना चाहिये, समाज का पर्याय बना दिया गया है । समाज में रहना है तो स्वयं भूखे रहो पर पितरों के नाम पर दावतें खिलाओ । समाज में रहना है तो बच्चों को भूखे रखो पर अन्त्येष्टि की दावत खिलाओ । शायद किसी गरीब की अन्तरात्मा ने ही मजबूर होकर कहा होगा :

आये कनागत फूले काँस पण्डित कूदे नौ-नौ बाँस ।

गये कनागत फूले झुण्ड, अब क्या खाओगे ......... ?

आज शिक्षक-दिवस पर यह उनके लिए कहना पड़ा जिन्हें समाज ने सदियों से अपना शिक्षक माना । शिक्षक जब अपनी जिम्मेदारी भूलकर स्वार्थरत हो जाएं तो ट्यूशन और पेपर आउट करने जैसी स्थितियाँ जन्म लेती हैं । और छात्रों का बेड़ा गर्क होता जाता है । भगवान शिक्षकों को शिक्षक बनाए रखें ।

गुरुवार, सितंबर 03, 2009

मैना की अनंत कहानी



उस दिन नाइट शिफ्ट करने के बाद रिलीवर के छुट्टी मारने की वजह से पापा मॉर्निंग शिफ्ट में भी रुके हुए थे । लिहाजा अनन्त को स्कूल से उस दिन पैदल ही आना था । जब वह भारी भरकम बैग को कंधों पर लादे धूप में घर आ रहा था तो घर से कुछ दूरी पर उसे एक चिड़िया का बच्चा सड़क पर तड़पता हुआ दिखा । एक आंटी उसे देख रही थीं । अनन्त ने पशु-पक्षियों के प्रति स्वभावत: जिज्ञासु होने के कारण आंटी से मामला पूछा तो पता चला कि चिड़िया के ऊपर किसी का पैर पड़ गया है । अनंत ने उसे सड़क के किनारे घास में छुपा दिया ताकि कौए की दृष्टि उस पर न पड़ सके । उदास मन से घर आ गया । मम्मी को सारा मामला समझाकर चिड़िया के लिए भोजन-पानी पहुँचाने की अनुमति माँग रहा था । इतने में पापा भी ऑफ़िस से आ गए तो मामला उन्होंने अपने हाथ में ले लिया । वे एक गत्ते का डिब्बा लेकर घटनास्थल पर गए और चिड़िया को घर ले आए । चिड़िया के दोनों पैर ऊपर की ओर मुड़ गए थे और कदाचित उसे अंदरूनी चोट भी लगी थी । जिससे वह बार बार मल-त्याग कर रही थी । यह एक भारतीय मैना थी । जिसे गाँव में गलगलिया कहा जाता है । हालांकि उसके पंख पूर्ण विकसित हो चुके थे लेकिन शायद उसने अभी उड़ना नहीं सीखा था ।


अनंत तो चिड़िया को घर में अंदर रखे जाने का पक्षधर था पर घर छोटा होने के कारण चिड़िया के रहने व्यवस्था अंदर न हो सकती थी, लिहाजा उसे बाहर बालकनी में इस तरह रखा गया कि कौओं से बची रहे । फिर भी वह खतरों से अनजान, घिसट-घिसटकर और पंख फड़फड़ाकर बाहर खुले में जाने की कोशिश कर रही थी । उसे पानी पिलाया गया । रोटी के छोटे टुकड़े खिलाये गये जो उसने कम ही खाए ।


जब रात हुई तो अनंत ने फिर उसे घर के अंदर लाने का प्रस्ताव रखा । प्रस्ताव गिर गया । क्योंकि दो तिहाई मत इसके विरोध में थे । एक सदस्य सनत( अनंत का छोटा भाई) ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया । अनंत को समझाया गया कि चिड़िया की देखभाल करते समय उसे कम से कम छेड़ा जाय । आप चाहे कितने ही शुभ उद्देश्य से पक्षियों को छेड़िए किन्तु उन्हें तो स्वतंत्र रहने की आदत है । इसलिए उन्हें किसी की छेड़छाड़ अच्छी नहीं लगती ।


अनंत ने उसे डॉक्टर के पास ले जाने की भी माँग की । उसे समझाया गया कि पक्षी तो स्वयं ही ठीक हो जाते हैं । उनका डॉक्टर ईश्वर होता है । उसके सामने रहीम जी के इस दोहे का दोहे का भी अर्थ सहित पाठ किया गया :

रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छाँड़त साथ ।

खग-मृग बसत अरोग वन, हरि अनाथ के नाथ ॥

किसी तरह रात कट गई । सुबह देखा तो चिड़िया जैसी शाम को छोड़ी थी वैसी ही थी । पंख फड़फड़ाकर घर की चारदीवारी के पास पहुंच गयी थी । रात में कौए न होने के कारण सुरक्षित थी । अब अनंत को स्कूल जाना था । वह चला गया । चिड़िया को एक बड़ी जालीदार डलिया के नीचे रखा गया, ताकि वह संकट से दूर रह सके ।


दोपहर में पापा ऑफिस चले गए, अनंत स्कूल से आ गया और चिड़िया की जिम्मेदारी सँभाल ली । उसे पानी पिलाकर अनंत अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गया । कुछ देर बाद मम्मी ने उसे बुलाकर कहा कि चिड़िया की गरदन टेड़ी हो गई है । जाकर देखा तो वह गरदन टेढ़ी किए पंख फड़फड़ा रही थी । चोंच थोड़ी सी खुली थी । अनंत उसे प्यासी जानकर पानी लेने गया । लौटकर देखा तो चिड़िया शान्त पड़ी थी । अनंत ने मम्मी को बुलाकर पूछा कि क्या चिड़िया सो गई है ? " चिड़िया सोई नहीं, मर गई है । " मम्मी ने कहा ।


इन शब्दों ने बालमन को झकझोरकर रख दिया । सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ कि अभी थोड़ी देर पहले तक जो चिड़िया जीवित थी वह मर गई है । वह ठंडा पानी उसके ऊपर छिड़कने लगा । उसे आशा थी कि चिड़िया बेहोश हो गयी होगी और ठंडा पानी छिड़कने से होश में आ जाएगी । पर मरे हुए को कौन जीवन दे सका है । अब अनंत को धीरे धीरे विश्वास होने लगा । जैसे जैसे विश्वास होता जाता बच्चे की सिसकियाँ बढ़ती जाती थीं । थोड़ी ही देर में वह दहाड़ मार मारकर रोने लगा । भागा भागा घर में ही बने छोटे मंदिर के सामने जाकर खड़ा हो गया । रोता जाता और कहता जाता कि, " भगवान ! चिड़िया को जीवित कर दो । " लेकिन भगवान का हृदय न पसीजा । अंत में बच्चा निराश होकर बेड पर गिर गया और कहने लगा कि, " भगवान ! आप बहुत बुरे हो , आपने चिड़िया को क्यों मारा ? मारना ही था तो उसके ऊपर पैर रखने वाले को मारते । "


अनंत को इतना भावुक होता देख मम्मी को भी चिन्ता हो रही थी । मम्मी भी रुआँसी हो रही थी और बच्चे को समझाने की असफल कोशिश कर रही थी । पर उसकी एक ही रट थी, " अब मैं कैसे जीऊँगा ? चिड़िया की जान मेरी वजह से गई है । न मैं उसे घर लेकर आता , न चिड़िया मरती ।" उसके मन में अपराधबोध घर कर रहा था । छोटा भाई चुपचाप यह माजरा देख रहा था । वह क्या समझ रहा था नहीं पता ।


स्थिति को गंभीर होता देख पापा को फोन किया गया और सारा मामला बताया गया । पापा को दुख तो हुआ पर चिड़िया के मरने का कम, बच्चे के परेशान होने का अधिक । उन्होंने अनंत से फोन पर चिड़िया की मृत्यु पर शोक प्रकट करना चाहा, पर वह रोए जा रहा था । अनंत भी अन्य बच्चों की ही तरह अपने पापा को सर्वज्ञ समझता है । पापा के ऊपर जैसे बन पड़ें वैसे सवाल दागने का उसे शौक है । पर आज शौक से नहीं शोक से उसने रोते हुए पूछा, " पापा चिड़िया क्यों मर गई ? उसे भगवान जी ने क्यों मारा ? मैं उसे न लाता तो शायद वह न मरती । "


पापा ने कहा, " उसे शायद अंदर चोट लगी होगी जो धीरे-धीरे उसकी मृत्यु का कारण बनी । तुमने लाकर उसे मारा नहीं बल्कि उसे आज तक जीवित रखा है, तुम उसे न लाते तो शायद कल ही कोई कुत्ता या कौआ उसे खा जाता , तुम्हें अभी पिछले सप्ताह साइकिल से गिरकर चोट लगी थी तो एक अंकल ने तुम्हारी सहायता की थी, इसी के बदले में तुमने चिड़िया की सहायता की समझ लो । "


" लेकिन भगवान तो उसे बचा सकते थे न ?" अनंत ने पूछा ।


" हाँ भगवान उसे बचा तो सकते थे, पर उन्होंने सोचा होगा कि इसके पैर तो टूट ही गए हैं , यह कब तक परेशान रहेगी , इससे अच्छा इसे दूसरा जन्म ही दे देता हूँ ।" पापा ने गीता के उन्हीं उपदेशों की याद दिलाई जो मृत्यु संबंधित जिज्ञासा के के उत्तर में उन्होंने अनंत को समझाए थे । पर आज ये उपदेश कोई प्रभाव न छोड़ सके ।


"मैं उसके ऊपर पैर रखने वाले को ढूँढ़ निकालूँगा और उसे छोड़ूँगा नहीं ।" उसने नोमिता स्टाइल में कहा ।


इसके बाद उसने मम्मी को फोन दे दिया । मम्मी को पापा ने कहा कि इसे खुलकर रो लेने दिया जाय । इसके बाद अनंत लगभग डेढ़ घण्टे खुलकर रोया और रोते रोते ही सो गया । थोड़ी देर बाद ही उसकी निद्रा भंग हुई तो जागते ही रोने लगा । अब धीरे धीरे वह थकता जा रहा था ।


मम्मी ने चिड़िया को दफनाने को उसे मुश्किल से राजी किया । चिड़िया को घर के पास ही गंगाजल आदि छिड़ककर , दफनाकर उसके ऊपर एक नीम का पौधा यादगार के लिये लगाया गया । थोड़ी देर बाद ही उसने चिड़िया को उखाड़कर देखने की इच्छा प्रकट की । पर उसे समझा दिया गया ।


यह घटना अनंत के मस्तिष्क में एक अमिट छाप छोड़ गयी । पर समय सब घावों को भर देता है ।


सूचना : "अमीर धरती गरीब लोग" वाले श्री अनिल पुसदकर जी स्वप्नलोक पर टिप्पणियों का अर्धशतक लगाने में कामयाब रहे हैं । इन्हें बहुत-बहुत बधाइयाँ । इस अवसर पर हमें इनके बारे में इन्हीं की जुबानी रोचक जानकारी यहाँ दुहराने में प्रसन्नता हो रही है ।


अनिल पुसदकर : "राजनैतिक प्रभाव और आर्थिक दबाव में कलम को दम तोड़ते देख पत्रकारिता छोड़ ब्लॉग की दुनिया में कदम रखा है। रोज मरती खबरों को जिंदा रखने की कोशिश कर रहा हूँ। छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी के विधायकों के खरीद फरोख्त प्रकरण में राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल हो जाने के बाद लगा पत्रकार कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं है। लंबे अरसे तक प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने के बाद महसूस हुआ कि नौकरों की कलम आजाद नहीं रहती सो नोकरी छोड़ कलम को आजाद करा लिया है। पत्रकारिता के अलावा दस साल तक मंदबुध्दि बालक-बालिकाओं का आश्रम भी चलाया। इसके अलावा क्रिकेट और बास्केटबॉल संघ में भी महत्तवपूर्ण पदों पर काम किया। राजधानी के प्रेस क्लब का तीसरी बार अध्यक्ष चुना जाने वाला पहला पत्रकार और छत्तीसगढ़ पत्रकार महासंघ का प्रदेशाध्यक्ष भी हूँ"

बुधवार, सितंबर 02, 2009

क्या देह ही है सब कुछ ?

पिछले सप्ताह जब हम अखिल भारतीय कवि सम्मेलन देखने में व्यस्त थे तो मौके का फायदा उठाकर फुरसतिया अपना लगभग पाँच साल पुराना लेख 'क्या देह ही है सब कुछ ?' पुन: ठेलने में सफल हो गए । हमने उसी दिन निर्णय लिया कि हमें भी इस शीर्षक पर लेख जैसा कुछ लिखकर अपना नाम इतिहास में अवश्य ही दर्ज़ कराना है । आज वह मौका आ ही गया । तो आइये विचार करें :

क्या देह ही है सब कुछ ?

यह वाकई गुड क्वेश्चन की श्रेणी में आता है किन्तु इसमें प्रथम दृष्टया ही विरोधाभास अलंकार के दर्शन हो रहे हैं । 'सब' और 'कुछ' का भला क्या मेल ? हम यहाँ शब्दों के बाल की खाल निकाले बिना सीधे भावनाओं पर चढ़ जाते लेकिन शब्द का मतलब समझे बिना भावनाओं पर क्या खाक विचार करेंगे ? कबीर जी ने कहा है :

आब गयी आदर गया, नैनन गया सनेह ।
ये तीनों तब ही गये, जबकि कहा कछु देह ॥

इस दोहे से 'देह' शब्द का मतलब काफी हद तक स्पष्ट हो जाता है । 'देह' का अर्थ हुआ 'देना' । अब 'देह' के इस अर्थ को समीकरण में रखने पर प्रश्न बनता है 'क्या देना ही है सब कुछ ?' । अब यह प्रश्न कठिन नहीं रहा । सब कुछ भला कौन देना चाहता है ? आजकल तो ऐसे लोग भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं जो कुछ देना चाहते होंगे । और आप सब कुछ देने की बात करते हैं । किस युग में जी रहे हैं जी ? 'फेंक दूँगा पर किसी को दूँगा नहीं' यह मानसिकता आम है । जो सब कुछ दे चुका हो ऐसा आदमी तो हिमालय की किसी कंदरा में ढूँढ़ना पड़ेगा ।

देने वालों का हमारे देश में सर्वथा अभाव भी नहीं रहा । भारत का इतिहास ऐसे दानी लोगों की गाथाओं से भरा पड़ा है । देवासुर संग्राम में जब असुर देवताओं पर भारी पड़ने लगे तो इन्द्र को चिन्ता हो गई । सारे अस्त्र-शस्त्र फेल हो रहे थे । वृत्तासुर काल सरीखा बढ़ा आता था । ऐसे में में किसी ने बताया कि यदि महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बनाकर उससे वृत्तासुर पर प्रहार किया जाय तो उसका वध संभव है । इन्द्र के माँगने पर दधीचि ने सहर्ष अपनी देह का त्याग कर दिया । और वृत्तासुर का नाश हुआ ।

महाभारत में कर्ण भी दानी थे । उन्होंने जब अपनी देह से काट-काटकर कवच-कुंडल इन्द्र को दे दिये तो यह दान की पराकाष्ठा थी ।

यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो जहाँ देहू होता है वहाँ लेहू भी होता है । संक्षिप्त में कहें तो 'जहाँ देह वहाँ लेह' । लेह के पीछे हम चाहें तो लेह-लद्दाख तक जा सकते हैं पर जा नहीं रहे । आजकल भले ही देहुओं की तुलना में लेहुओं की संख्या हजारों गुना ज्यादा दिखाई दे लेकिन पहले देहू ज्यादा थे और लेहू बहुत कम । ऊपर के दोनों उदाहरणों पर ही विचाए कर लें । दो देने वाले और लेने वाले अकेले इन्द्र ।

दान देने वाला यदि दानी होने का गर्व करे तो उस दान का पुण्य नहीं मिलता । ऐसा शास्त्रों में लिखा है । दान ऐसे करें कि दाएं हाथ से दें तो बाएं हाथ को पता न चले । मतलब गुप्त-दान का बड़ा महत्व है । सेंटा क्लाज की कहानी में हमने यही पढ़ा कि उन्होंने एक गरीब हो गये जमींदार की सहायता गुप्त रूप से की ताकि उसके आत्म सम्मान को ठेस न लगे ।

कुछ केस में देने वाला देना चाहता है पर लेने वाले लेना नहीं चाहते । ऐसा अक्सर उन त्यौहारों पर होता है जिन पर लोग पुण्य कमाने हेतु राहगीरों को पानी पिलाने, खाना खिलाने आदि का कार्य करना चाहते हैं । बात खींचातानी तक भी पहुँचती देखी जाती है । हमारा मानना है कि ऐसी स्थिति में लेने वाला यदि ले ले तो यह इसलिए प्रसंशनीय है क्योंकि वह देने वाले को दानी होने के अहसास की खुशी दे रहा है ।

ऊपर देह शब्द का प्रयोग शरीर के अर्थ में भी हुआ है । इसलिए 'देह' के इस अर्थ को भी समीकरण में रखकर विचार किया जा सकता है । यह पहले भी कई विद्वानों द्वारा विचारित हो चुका है, तो हम जैसे लोग इस पर भला क्या खाकर विचार कर पायेंगे ?

मंगलवार, सितंबर 01, 2009

छेड़ू मुल्क पाकिस्तान

पाकिस्तान में एक अमेरिकी से छेड़छाड़ का एक नया मामला प्रकाश में आया है . इस बार छेड़छाड़ का शिकार बेचारी हारपून को होना पड़ा है . यूँ तो विदेशियों से छेड़छाड़ के मामले हमारे देश में भी यदा-कदा प्रकाश में आते रहते हैं, लेकिन हम उन्हें जल्दी ही घसीटकर वापस अँधेरे में पहुँचाने में सफल हो जाते हैं . कोशिश तो पाकिस्तान ने भी की होगी छेड़छाड़ की इस घटना को अँधेरे में पहुँचाने की लेकिन किस्सा आम हो ही गया . जब आम हो गया तो आम के आम और गुठलियों के दाम तो होंगे ही .

पाकिस्तान को छेड़ू मुल्क घोषित करने की माँग भारत द्वारा अमेरिका से पुराने समय से की जाती रही है . लेकिन अमेरिका ने कभी कान नहीं दिया इधर . हारपून को पाकिस्तान में इसी शर्त पर भेजा गया था कि उसके साथ छेड़छाड़ नहीं की जाएगी, हाँ यदि सुन्दरी का छिड़वाने का मन करे तो छेड़ने के लिए अमेरिकियों को ही बुलाया जाएगा । फिर भी कुछ मनचलों का मन हारपून को देखकर मचल ही गया और उनसे छेड़े बिना न रहा गया .

पाकिस्तान में छेड़ुओं की कमी नहीं है . वहाँ के कबीले सरकार को छेड़ देते हैं . तालिबान परमाणु बम को छेड़ने की ताक में रहता है . सुन्नी शियाओं को छेड़ते हैं और शिया सुन्नियों को . कुछ स्वयंभू ऑरिजिनल लोग मुहाजिरों को छेड़ते हैं .

वहाँ के शासक भी कम छेड़ू नहीं रहे . वे भारत से छेड़छाड़ करते रहते हैं . जनरल मुशर्रफ ने कारगिल वार छेड़ दिया . आतंकवादी तथाकथित जिहाद छेड़ देते हैं .

वहाँ बाकयदा छेड़छाड़ की ट्रेनिंग दी जाती है . कैम्प चलते हैं . कुछ लोग छेड़ने भारत तक चले आते हैं . कभी मुम्बई में आकर छेड़ दिया तो कभी दिल्ली में छेड़ दिया .

भारत को चाहिये कि हारपून को अपने यहाँ बुलाकर सम्मानित करे । और साबित करे कि हमारे यहाँ विदेशियों से छेड़छाड़ नहीं होती ।

यदि हारपून को यहाँ कोई सुयोग्य वर पसंद आ जाय तो हो सकता है हमें भी बारात में नाचने का सुअवसर मिल जाए । बारात किए बहुत दिन हो गए । इसी बहाने हारपून को देखने का मौका भी मिल जाएगा ।

देखें तो सही, जिस हारपून से छेड़छाड़ के किस्से इतने प्रचलित हो लिए वह कितनी सुन्दर है ?

मित्रगण