हमने जब हाई-स्कूल के बाद केमिकल इंजीनियरिंग में चार साल का डिप्लोमा पास कर लिया तो काफी खुश थे । सच पूछा जाय तो थोड़ा घमण्ड भी हमारे भीतर घर बना लिया था । हमारे जो साथी स्नातक हो गये थे उन्हें हम कुछ भाव ही न देते थे ।
पर ईश्वर ऊपर से यही सब तो देखते रहते हैं । उन्होंने अपने किसी दूत के द्वारा हमें ज्ञान दिया कि हम प्रैक्टीकली चाहे जितना खुश हो लें, पर थियोरिटीकली स्नातकों के लेवल से बहुत नीचे हैं । वह बात अलग है कि टेक्निकल नॉलेज हो जाने के कारण कोई न कोई फैक्टरी हमें काम पर रख ही लेगी । जबकि स्नातक की तो वैल्यू ही अलग है । स्नातक चाहे तो आईएऐस के लिए ट्राई मार सकता है जबकि तुम नहीं । जब तक आदमी स्नातक नहीं हो जाता, उसे सही मायनों में पढ़ा लिखा ही नहीं माना जा सकता । जिसने बीए कर लिया समझो बुद्धिजीवी हो गया । उसे विधान-परिषद में वोटिंग का अधिकार मिल जाता है । उसकी एक विचार-धारा बन जाती है । और तुम रहोगे डिप्लोमची ही , चाहे पैसा कितना ही कमा लेना ।
यह बात हमारे हृदय में घर कर गयी । अगले ही साल इण्टरमीडियेट का प्राइवेट फॉर्म भरा । नौकरी भी की और परीक्षा भी दी । पास भी हो गये । इसी तरह खेंच-कढ़ेर के बीए भी हो गए । पर विचार-धारा न पनपी । सोचा हो सकता है हमारी विचार-धारा बनने में कुछ ज्यादा मेहनत लगे । इसलिए एमए भी करने लगे । वह भी मर-गिर के हो ही गयी । सारा देशी विदेशी इतिहास और राजनीति शास्त्र चाट लिया पर विचार-धारा न पनपी । बल्कि और कनफ्यूज से हो गये ।
अब तो अक्कल-दाढ़ भी जोर मार रही है । कहते हैं जिसके मुँह में ऐग्जैक्ट बत्तीस दाँत हों उसकी जिव्हा पर सरस्वती जी आकर बैठ जाती हैं और आदमी सच बोलने लगता है ।
सोच रहा हूँ जिसकी कोई विचार-धारा ही नहीं वह अगर सच बोले तो क्या परिणाम होंगे ? इसी उधेड़बुन में रहता हूँ कि कौन सी विचार-धारा ज्वॉइन करूँ- कौन सी न करूँ । अलग अलग विचार-धारा वाले लोगों के प्रवचन सुनता हूँ । प्रभावित होता हूँ । पर अगले विचारक के विचार सुनते ही पहले वाले के विचार भूल जाता हूँ । बड़ी विकट समस्या है । मन की सरकार में विचार-धारा का संवैधानिक संकट सा खड़ा हो गया है । आशा है अक्कल-दाढ़ पूरी बाहर आने से पहले कोई न कोई विचार-धारा बन ही जाएगी ।
ईब क्या है कि वो जो बिचार की धारा है ना वो बहती रहती है .... काइसे...आइसे कि जुकाम की नाक.. तो ईब अपना विचार थोरा नाक की ओर मोडो.....शायद विचार का अचार मिलेबा :)
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया व्यंग्य. बधाई विवेक जी (अक्ल डाढ़ की!!!)
जवाब देंहटाएंक्या बताएँ विवेक जी, एक ज़माने में हमारी भी अक्कल-दाढ़ निकल आई थी। सरस्वती वगैरह भी विराजमान हो गईं थीं जिव्हा पर। मगर जब तलक कोई विचार-धारा बनती तब तक दाढ़ सेंट्रिंग ठीक से न लग पाने के कारण तिरछी हो गई और मसूड़ा उससे क्वारल करने लगा। डॉ. साहब ने पक्षपात करते हुए मसूड़ा वहीं रहने दिया और दाढ़ उखाड़ ली, और हम हमेशा के लिए विचार धारा से महरूम रह गए। Alas!
जवाब देंहटाएंआपका यह विचार भी एक पुष्ट विचारधारा की ओर संकेत है, कुछ-कुछ post-modernism......:)
जवाब देंहटाएंधारा का चक्कर है घनचक्कर
जवाब देंहटाएंविचारपूर्ण होना ही है बेहतर
विचार धारा का अचार डालेंगे क्या? आप तो वइसही अच्छी सोच रखने लगे हैं। किसी ने शायद आपको कन्फ्यूज कर दिया है। या आप किसी को कन्फ्य़ूज करने की फिराक में हैं। रहम करो गुरू जी, पहले भी कितने लोग पागल होकर घूम रहे हैं।
जवाब देंहटाएंअब हम का कहे ........हम तो खुद ही कनफुजिया गया हूँ ई मामला में !
जवाब देंहटाएंइसी उधेड़बुन में रहता हूँ कि कौन सी विचार-धारा ज्वॉइन करूँ- कौन सी न करूँ । अलग अलग विचार-धारा वाले लोगों के प्रवचन सुनता हूँ । प्रभावित होता हूँ ।
जवाब देंहटाएंअजी छोडो इस उधेड़बुन को सीधे लालू के चरन पकड लो बस.... विचार धारा गंगा की तरह बहेगी
क्या जरूरत है किसी को ज्वाएन करने की अपनी विचार धारा खुद बनाइये...
जवाब देंहटाएंविचार धारा कोई पार्टी थोड़े ही है जो ज्वाईन कर लूँ,
जवाब देंहटाएंअकल दाढ़ के आने का तो हम भी इंतजार कर रहे हैं चलो आपने सर्टिफ़ाई कर दिया कि बी.ए. स्नातक का लेवल अलग होता है। हम भी खुश हो लिये हैं।
अक्क्ल दाढ से बचपन याद दिला दिया आपने।बचपन मे ज़रूरत से ज्यादा शरारती होने के कारण आये दिन मेरी पीठ-पूजा होती रहती थी,घर पर भी और छुट्टियों मे ननिहाल मे भी इससे छुटकारा नही मिलता था।मेरे एकलौते मामा जी हमेशा मुझे पकड़ कर कहते थे दिखा तो मुंह खोल तेरी अक्कल दाढ आई या नही देखूं।फ़िर वि भविष्यवाणी करते थे इस्को अक्कल दाढ आने वाली नही है और देखो कमाल कि सही मे अक्कल दाढ निकली नही है या निकल नही पा रही है।और जब भी निकलने की कोशिश करती है असहनीय दर्द ये दुआ मांगने पर मज़बूर कर देता है कि बिना अक्कल दाढ के ही ठीक हूं भगवन्।
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