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सोमवार, सितंबर 14, 2009
नहीं यह मेरी मंजिल
या आभासी जगत से, बिरथा कर मत मोह । मोह क्लेश का मूल है, होकर रहे बिछोह ॥ होकर रहे बिछोह, अकेला चल तू राही । ऊपर उठकर देख, त्याग तारीफ़, बुराई ॥ विवेक सिंह यों कहें, नहीं यह मेरी मंजिल । हुआ सफ़र से त्रस्त, आ गया बहलाने दिल ॥
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