आज ज्ञानदत्त जी ने धमकी दी है कि अगर मौलिक लेखन न हुआ तो वे ब्लॉगिंग छोड़ भी सकते हैं । अब हम तो ठहरे ज्ञान जी के फ़ॉलोअर लिहाज़ा सपने में भी नहीं सोच सकते कि वे ब्लॉगिंग छोड़ें । अत: अपनी सामर्थ्यानुसार मौलिक लेख लिखने की कोशिश कर रहे हैं । इसके मूल में चूँकि ज्ञान जी हैं अत: यह मौलिक के साथ ज्ञानपूर्ण लेख भी माना जाना चाहिये ।
'मौलिक' का शाब्दिक अर्थ होता है मूल से सम्बन्धित । मूल जड़ को कहा जाता है । दूसरे शब्दों में कहें तो आरम्भ ही मूल कहलाता है ।
मूल उस धन को भी कहा जाता है जो किसी साहूकार द्वारा कर्ज़दार को दिया जाता है । इसी पर ब्याज चलता है । अक्सर ब्याज आता रहता है और मूल ज्यों का त्यों बना रहता है । ब्याज को मूल से प्यारा बताया गया है । ब्याज को अंग्रेजी में इण्टरेस्ट कहा जाता है । इण्टरेस्ट का मतलब रुचि लेना भी होता है । शायद इसीलिये ब्याज में साहूकार की रुचि रहती है और ब्याज मूल से प्यारा हो जाता है । सूद भी ब्याज का ही एक नाम है । जिन लोगों को ब्याज की कमाई खाने की आदत होती है उन्हें ब्याजखोर की बजाय सूदखोर कहना अधिक उपयुक्त माना जाता है । सूदखोर की पहचान समाज में लोभी के रूप में स्वत: ही हो जाती है । लोभ ही तो पाप का मूल है । अगर मनुष्य लोभ को त्याग दे तो यह संसार स्वर्ग बन जाय और हम सब स्वर्गवासी, ऐसा ज्ञानीजन समय समय पर पब्लिक को समझाते रहते हैं । पर क्या मजाल कि पब्लिक ज्ञानियों की किसी बात पर जरा भी कान दे । कहीं सत्संग में ज्ञानी जन प्रवचन दे रहे हों तो वहाँ बड़ी भीड़ लग जाती है । पर प्रवचन में कही गयी बातों का कोई प्रभाव जनता पर परिलक्षित नहीं होता । प्रवचन का असर न होने के पीछे मूल कारण यह बताया जाता है कि लोग एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालते रहते हैं ।
ज्योतिष के अनुसार एक नक्षत्र को भी मूल नाम दिया गया है । बच्चे जन्म के समय के नक्षत्र का प्रभाव उसके स्वभाव पर रहता है । जो व्यक्ति मूल नक्षत्र में पैदा हुआ हो उसका स्वभाव सामान्य नहीं रहता ऐसी आम धारणा है । ऐसे बच्चे के नामकरण से पहले उसके मूल शान्त कराने पड़ते हैं । आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म मूल नक्षत्र में होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया था । उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया था । मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म के मूल में जा बसी है । कबीर ने भी मूर्तिपूजा की निन्दा करते हुए कहा था :
पत्थर पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहाड़ ।जड़ तो मूल है ही । जड़ के बिना पौधे का अस्तित्व ही नहीं होगा । और पौधों के बिना हमारा । जड़ ही तो है जो मिट्टी से पोषक तत्वों को अवशोषित करके पौधे को बढ़ने में सहायता प्रदान करती है । पौधे अपना भोजन पत्तियों में बनाने हैं और सामान्यत: जड़ों में एकत्र कर लेते हैं । शायद उन्हें पता ही नहीं होता कि यह उनके नहीं किसी और के ही काम आने वाला है । गाजर, मूली, शलजम आदि का मूल ही तो है जिसे खाया जाता है ।
जा से तो चाकी भली पीसि खाय संसार ॥
प्राचीनकाल में संन्यासी लोग जंगल में कंद मूल फ़ल खाकर ही तो जीवन निर्वाह किया करते थे ।
अब देखिये न हम मूल मुद्दे से भटककर कहाँ से कहाँ आ गये । चले थे मौलिक लेखन करने , और हो गया अमौलिक । खैर कोई बात नहीं , मौलिक लेखन फ़िर कभी सही । हम कोशिश करते रहेंगे । आप भी करिये !
keep it up, sir.
जवाब देंहटाएंविवेक जी आप तो मूल की बात करते करते अमूल (दुग्धाहार) की तरफ चले गए। मजेदार पोस्ट।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
वाकई आज तो आप अपने मूल स्वरुप की तरफ़ ही लौट आये.
जवाब देंहटाएंरामराम.
इसके टक्कर की टिप्पणी तो आपके गुरुदेव ने मेरे ब्लॉग पर कर रखी है। वही सस्नेह ठेल रहा हूं:
जवाब देंहटाएंआदर्श आदर्श है. विचारधारा विचारधारा है. ऐसे में एक आदर्श विचारधारा खोजी जा सकती है. विचारपूर्वक आदर्शधारा भी खोज सकते हैं. आदर्शपूर्वक विचारधारा खोजने का औचित्य वैसे भी नहीं है. आदर्श को विचारधारा के तराजू पर रखकर तौला जा सकता है लेकिन विचारधारा को आदर्श के तराजू पर नहीं रखा जा सकता. तराजू टूटने का भय रहता है. विचार विकसित होते हैं, आदर्श का विकास संभव नहीं. विकासशील या विकसित विचार कभी भी विकसित आदर्श की गारंटी नहीं दे सकते. विचार को आदर्श की कसौटी पर तौलें या आदर्श को विचारों की कसौटी पर, लक्ष्य हमेशा पता रहना चाहिए. लक्ष्य ही महत्वपूर्ण है. विचारधारा तभी तक महत्वपूर्ण है, जबतक हम उसपर चलते हैं.
ऐसे में कहा जा सकता है कि आदर्श पर ही चलना चाहिए.
सचमुच मूल चिंतन
जवाब देंहटाएंइतना मौलिक चिंतन करने और अपने विचारों से अवगत कराने के लिए धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंप्योर ब्लोगिगं!!!! हंस सकते हैं...
जवाब देंहटाएंपर मूल की बात से हमें याद आया एक वर्गमूल होता था और एक घनमूल.. और इस मूल का उस मूल से क्या संबध है.. मूल तो मूल है.. क्या मूल भी दो हो सकतें हैं.. सोचे कैसा मजा आये एक मूल यहाँ और दूसरा वहाँ.. मूल जड़ और दो जड़ हो तो जड़ जड़ न होकर चेतन हो जायेगा. चेतन है तो छोटा भी होगा तभी तो छोटा चेतन फिल्म बनी पर फिल्मों के मूल मे क्या है?
हा हा हा...
"सर्व सज्जनों को सूचित किया जाता है कि इस ब्लॉग पर लिखी बातों का हमारी विचारधारा से मेल खाना आवश्यक नहीं है, अत: किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न रखें !- विवेक सिंह" ये तो आज ही दिखा... वैसे ये कौन विवेक सिंह है बताना जरुरी है... नहीं तो पता चला इसके मूल में कोई और विवेक सिंह है हो इस ब्लोग के मूल में नहीं है.. और जो इस ब्लोग के मूल में नहीं है उसका इस ब्लोग पर लिखी बातों से क्या लेना देना?
जवाब देंहटाएंहा हा हा.......
माफ करना विवेक भाई अगर ज्यादा हो गया हो तो..
मूल को तो ऐसा चीरा फाड़ा है कि अब आगे क्या होगा...जब मूल ही नहीं रहा तो सृजन की संभावनाऐं खत्म. ज्ञान जी को बिदा करके आते हैं फिर. :)
जवाब देंहटाएंmool + intrest = vivek vichaar
जवाब देंहटाएंaaj to mool ka pura postmartam hi kar diye ho |
जवाब देंहटाएंbahut badhiya padhne me maja aa gaya |
जड़ों को सींचते राव, यही सार हमने निकला है. आभार इस मूल चिंतन के लिए.
जवाब देंहटाएंयही तो है ब्लोगिंग .... :)
जवाब देंहटाएंविवेक जी
जवाब देंहटाएंवाकई मौलिक रचना कर डाली आपने तो --
यह अलग बात है बकौल आपके ही आप मूल मुद्दे से भटक चुके है.
वैसे ये मुद्दा क्या था ?
आपने मूल से मूली उखाड़ ली, अब प्याज़ का क्या होगा। शायद वही होगा जो मूल धन निकाल लेने पर ब्याज़ का होता है:)
जवाब देंहटाएंशब्दान्वेषण से इतर अर्थान्वेषण । मौलिक प्रविष्टि । आभार ।
जवाब देंहटाएंआनंदाई विश्लेषण ... मूल चिंतन से अमूल्य पोस्ट निकली :)
जवाब देंहटाएंसाधू
क्या गजब का मौलिक लेखन है. आप तो मौलिक लेखन के मूल तक पहुँच कर, उसकी मूली बनाकर उसका रसास्वादन कर चुके है... आगे क्या होगा आप खुद ही समझदार हैं....
जवाब देंहटाएंगुरु चेले दोनों की ही टिप्पणिया रास आई जी हमें..
जवाब देंहटाएंवाह वाह मज़ा आ गया विवेक भाई ! क्या मौलिकता है, ज्ञान भाई को समझ आ गयी होगी !
जवाब देंहटाएंलगे रहो विवेक भाई ...
मूल से निर्मूल तक की ये यात्रा बहुत आनन्ददायी रही:)
जवाब देंहटाएंकहीं इस धमकी के पीछे कुछ और तो नहीं।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ऐसा तो चलता ही रहता है..
जवाब देंहटाएंआजकल मुझे भी अपना कुछ लिखने का मन नहीं करता है सो कभी गीत तो कभी कव्वाली ठेल रहा हूं..
मौलिक मे भी जब तक आत्मसंतुष्टी नहीं मिलती है तब तक उसे ठेलने का मन नहीं करता है..
मौलिकता की आड़ लेकर मेरा शिष्य क्या लिकता? (लिखता होना चाहिए क्या? कोई बात नहीं. लिकता में ज्यादा मौ-लिकता है.)
जवाब देंहटाएंमूल में चाहे जो हो, उसे तूल नहीं देना चाहिए. बांग्ला में तूल का मतलब होता है रुई. तो अगर तूल देकर कुछ कर भी दोगे तो लोग नहीं मानेंगे. वे कानों में तूल डालकर रखते हैं. कान से याद आया कि आना-कानी शब्द सुनने में बड़ा अच्छा लगता है. अब अच्छा लगने का तो यह है कि तुम कुछ भी लिखोगे, मौलिक हो चाहे तौलिक (?) अच्छा ही रहेगा. तौलिक शब्द तोलने से सम्बंधित तो नहीं है. तोलने से याद आया कि "लादा बाबू तो दया.." तो नहीं तो नहीं...तो दया. तो त्या तम्झे?
तैते ही तिखते लहो.
विवेक जी अदभूत विश्लेषण! मज़ा आ गया!
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