एक दिन एक पतंग उड़ते उड़ते धरती से बहुत ऊपर चली गयी । धागा बार-बार उसको समझाता कि और ऊपर जाने में खतरा हो सकता है, पर पतंग को धागे की बातें अच्छी नहीं लग रही थीं . वह आग्रह कर करके हर बार थोड़ा और ऊपर उड़ने की अनुमति ले लेती थी . धागा यद्यपि उदारवादी था तथापि उसकी लम्बाई असीमित नहीं थी . उसकी हिम्मत जवाब दे गयी . बोला, " अपनी सामर्थ्यानुसार जितनी सहायता मुझसे बन पड़ी मैंने की, पर अब तुम्हें और ऊपर जाने देने के लिये मुझे अपने मूल को छोड़ना पड़ेगा और यह मैं नहीं कर सकता . " पतंग को धागे की यह बात अच्छी न लगी . उसकी इच्छा थी कि धागा अपने मूल को छोड़कर उसे खुले आकाश में निर्बाध उड़ने दे . तभी उसे खयाल आया कि क्यों न वह धागे को छोड़कर स्वयं खुले आसमान स्वच्छंद उड़े . वह ऐसा सोच ही रही थी कि उसके ऊपर एक बूँद गिरी . उसने ऊपर देखा तो डर से सहम गयी . उसके ऊपर एक बादल था . पतंग ने हिम्मत करके बादल की ओर देखा . बादल उदास था . उसकी आँखें भरी हुई थीं . वह बादल का आँसू ही था जो बूँद बनकर पतंग के ऊपर गिरा था .
बादल को उदास देख उससे डरने की बजाय पतंग को उससे सुहानुभूति हुई . उसने बादल से पूछा, " बादल ! तुम इतने बड़े होकर भी रो रहे हो ? तुम तो धरती से इतने ऊपर उठ चुके हो और तुम्हारे ऊपर किसी का नियन्त्रण भी नहीं है . तो फ़िर ऐसा क्या हुआ कि तुम रो रहे हो ? क्या मैं तुम्हारी किसी प्रकार सहायता कर सकती हूँ ?
दु:ख के समय सुहानुभूति पाकर बहुधा हम भावुक हो जाते हैं . बादल का गला रुँध गया . बोला, " जो दिखाई देता है वह हमेशा सच नहीं होता । जैसा तुम्हें लगता है वैसा है नहीं । मैं स्वच्छंद दिखाई देता हूँ पर स्वच्छंद हूँ नहीं । असल में मेरे ऊपर हवा का कठोर नियंत्रण रहता है । हवा मुझे जहाँ चाहे ले जाती है । पर हवा दिखाई नहीं देती, इसलिये देखने वालों को लगता है कि मैं स्वच्छंद हूँ और अपनी इच्छा से इधर उधर घूमता रहता हूँ । इसी से मुझे आवारा कहा जाता है ।
यह सब मेरी ही गलतियों का परिणाम है । मैं एक झील के जल का हिस्सा था ।मैं अक्सर आसमान के बादलों को देखकर उनके जैसा बनने के सपने देखा करता था । और अपनी तुलना कुँये के मेंढक से करके किसी तरह बाहर निकलने के लिये आतुर रहा करता था । एक दिन अचानक गरमी और हवा को देखकर मुझे आसमान की सैर करने की सूझी । मैं कुछ ऊर्जावान जलकणों को साथ लेकर हवा पर सवार हो गया और ऊपर की ओर चल दिया । मेरे साथियों ने मुझे रोकने की भरसक कोशिश की पर जीवन में उन्नति करने की महत्वाकांक्षा के चलते मैंने उनकी एक न सुनी । तब से मैं यूँ ही निरुद्देश्य अनाथ सा हवा का गुलाम बना घूमता रहता हूँ । अपना कोई अस्तित्व होकर भी मानो नहीं है । कब किसी महामेघ में विलीन होकर अपना अस्तित्व खो बैठूँगा, मैं नहीं जानता । कभी कोई बड़ा बादल पास से गुजरता है तो गरजकर हड़का देता है । आगे से अपने इलाके में न दिखायी देने की चेतावनी देकर चला जाता है ।
आज मैंने निर्णय लिया है कि मैं यह झूठी शानोशौकत छोड़कर धरती पर वर्षा बनकर जाऊँगा । यद्यपि मुझे नहीं पता कि मेरी बूँदें कहाँ जाकर गिरेंगी, अपनी मातृ-झील के पानी में मिलने का सपना तो शायद सपना ही रह जाय । तथापि पानी बनकर धरती पर किसी के काम आया तो स्वयं को धन्य समझूँगा ।
तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हें धागे जैसा साथी मिला है जो तुम्हें ऊपर उड़ते हुए भी सँभाले रहता है , तुम्हें जड़ों से जोड़े रहता है, और सफ़लता को तुम्हारे ऊपर हावी नहीं होने देता । मैंने अपनी जड़ों से कटकर उन्नति भी की तो क्या की ।"
इतना कहकर बादल बूँद-बूँद होकर धरती पर गिर गया । पतंग को बादल की मृत्यु पर शोक था और अपने धागे पर गर्व !
धागा इस वार्तालाप से अनभिज्ञ पतंग को सँभलाने में व्यस्त था ।
कथा बहुत सुंदर बन पड़ी है। अक्सर ऐसा होता है कि जिस उद्देश्य को ले कर हम लिखना प्रारंभ करते हैं। वह हवा के हवाले हो कर अनेक नए अर्थ देने लगता है। यही रचना की सफलता है। इस कथा में भी ऐसा ही हुआ है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कथा । कथा में संवेदना का स्पर्श है इसलिये पूरी कथा प्रभावकारी बन गयी है । कुछ अवदान आपकी दृष्टि का भी है । आभार ।
जवाब देंहटाएंबादल कथा सुन्दर करतारी। बढिया पतंग उड़ावन हारी!
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण बोधपूर्ण -इसके लेखक कौन हैं ? बलिहारी जाऊं !
जवाब देंहटाएंहम तो स्वयं बादल बन इस मृत्यु को गले लगाने तैयार बैठे हैं...मौत भी मुआ मांगने से कहाँ आती...मातृ झील तो पहले ही खो चुके हैं..बस, बरस पायें यही कामना शेष रह गई है...आपने झकझोर दिया..थकान महसूस हो रही है!!!!!!!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंविवशता, खुद की बनाई, क्या कहूँ! ऐसा मत लिखा करो आगे से..आत्म ग्लानि में कहीं खो ही न जाऊँ...निवेदन मात्र है भाई!
बहुत ही अच्छा वार्तालाप बन पड़ा है, और महत्वाकांक्षा ही तो जड़ से काटती है हम भी कटे हुए हैं पर जल्दी ही जुड़ने की तैयारी है..
जवाब देंहटाएं@Arvind Mishra जी,
जवाब देंहटाएंइसका लेखक हम ही हूँ !
@विवेक सिंह
जवाब देंहटाएंजानता हूँ पर विवेक जी आपके भोलेपन का भी एक जायजा लेना था .....
यह कहानी अपनी जड़ों की और लौट चलने की अकुलाहट को बखूबी व्यक्त करती है
और दूर के ढोल की पोल भी खोलती है
यह हमसे विनम्रता का आग्रह भी करती है -अपने कर्तव्यों का बोध भी कराती है
पढ़ते हुए इन भावों से गुजरना होता है इस कहानी में इसलिए ही दिनेश जी की वह टिप्पणी !
भतीजा आजकल बहुत प्रभावशाली लेखन करने लगा है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत खूब विवेक भाई.. पिछली कुछ पोस्ट्स में आपने निर्जीव चीजो में जान दाल दी है.. इस बार की पोस्ट भी दर्शन का एहसास कराती दिखी..
जवाब देंहटाएंतो आप भी साहित्यकार बनते जा रहे है..
bahut hi sundar..
जवाब देंहटाएंye aapki maulik rachana hai??
pata nahi kyo mujhe aisa lag raha hai ..kuch is tarah ki katha maine pehle bhi padhi hai..
khair..
aapne bahut hi saral shabdon me apni baat ko rakha hai.. :)
सचमुच गजब की कहानी लिखी है .. बधाई !!
जवाब देंहटाएंविवेक जी जी कैसे बताऊँ की आपने क्या मास्टर पीस लिखा है | अंतरात्मा को हिला के रख दिया भाई |
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर.पंचतंत्र की कथा जैसी. innovative बधाईयाँ
जवाब देंहटाएंbadal or ptang ke madayam se badi achhi or gahri baat kahi.....
जवाब देंहटाएंभैया पतंग, साव्धान रहना कहीं पेंच न पड़ जाय और धागा टूट जाय:)
जवाब देंहटाएंबादल भैया कभी न कभी तो सागर में मिलेंगे[झील तो छूटना ही है]...
ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, ......?????
बेहतरीन...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..
नमस्कार विवेक भाई... क्या बात है.. जान फूंक दी..
यार मैं तो दुबारा आगया लगता हूं शायद ?:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
@ ताऊ रामपुरिया जी,
जवाब देंहटाएंअब भी शायद की गुंजाइश रह गई क्या ? :)
वैसे आप तो ताऊ हैं जितनी बार चाहें आ सकते हैं , हम हर बार आपका स्वागत करेंगे :)
विवेकजी कमेन्ट तो मैने सुबह भी किया था मगर जैसे ही पोस्ट करने लगी नेट् बन्द हो गया आपने मेरे ब्लोग पर कहा है कि आप्से प्रेरणा ले कर कहानी लिख रहा हूँ मगर मैं कहूँगी कि इस कहानी से मुझे प्रेरणा मिली है एक और कहानी लिखने की अगर कोई मुझ से पूछे कि कहानी क्या होती है तो मै कहूँगी कि विवेक जी की कहानी पढ लो यही कहानी होती है बहुत ही बडिया लाजवाब कहानी है इस के आगे कहने की मेरी साम्र्थ्या ही नहीं हैीआपको बहुत बहुत बधाई और आशीर्वाद अगली कहानी का इन्तज़ार रहेगा
जवाब देंहटाएंहाँ एक बात कहना तो भूल ही गयी कि आप बह आयामी प्रतिभा के मालिक हैं आप्के व्यँग कविताये और आलेख सभी की मैं बहुत प्रशंसक हूँ ये सभी विधायें बनाये रखें शैली और शिल्प दोनो लाजवाब हैं
जवाब देंहटाएं'तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हें धागे जैसा साथी मिला है जो तुम्हें ऊपर उड़ते हुए भी सँभाले रहता है , तुम्हें जड़ों से जोड़े रहता है, और सफ़लता को तुम्हारे ऊपर हावी नहीं होने देता'
जवाब देंहटाएं-कथा के सार को इन पंक्तियों में समेटे हुए अत्यंत प्रभावी कहानी लेखन के लिए साधुवाद.पहले निर्मला कपिला जी की कहानी, अब आपकी कहानी उत्तम कहानियों के आस्वादन से अभिभूत हूँ.
बहुत भावपूर्ण विवेकपूर्णश्च कहानी है। किससे लिखवाई है?
जवाब देंहटाएंविवेक जी क्या गज़ब का ब्यंग रचा है आपने वाह कमाल की बात कही है आपने ये पूरी रचना एक सिख लेने जैसी है ... बहोत बहोत बधाई इसकेलिए....
जवाब देंहटाएंअर्श
विवेक भाई क्या कहने इस अंदाजे बयां के ...पतंग डोर . बादल और झील के बहाने से जिन्दगी का और उससे अधिक इंसानी मन की असीमित चाहत की परिणति की अद्भुत दास्ताँ लिख दी आपने बहुत खूब ..मजा आ गया ..या कहूँ की दिल को छू गया
जवाब देंहटाएंअपनों की बात दूसरों से ही समझ में क्यों आती है, ये भी एक अनुत्तरित प्रश्न है...............
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सारगर्भित रोचक कथा से बहुत कुछ कह गए आप.
बधाई.
क्या बात है.बहुत सुन्दर बेहतरीन...बधाई.
जवाब देंहटाएंवाह भाई वाह छा गए आप तो
जवाब देंहटाएंदूर के ढोल सुहावन भैया
जवाब देंहटाएंदिन रात येही गीत गावें हैं
फोरेन आकर तो भैया
हम बहुत बहुत पछतावे हैं
दिल कि बात कह दी आपने ..
काहे को दुखती रग पर हाथ धरते रहते हैं आपलोग...
wah acchi upamiyen...
जवाब देंहटाएंa great fable...