किचिन से फूँकनी गायब
आ गया कैसा जमाना ?
या खुदा ! या रब !
किचिन से फूँकनी गायब ॥
पड़ी जरूरत जब भी इसकी
कभी न यह मौके से खिसकी
किया कार्य थी डिमाण्ड जिसकी
दिया मुँह आग में जब-तब
किचिन से फूँकनी गायब ॥
लेकिन फिर भी गयी नौकरी
बन्द हुई प्राचीन फैक्टरी
जैसे सिर पर फूटे गगरी
आँसुओं से भीगा तन सब
किचिन से फूँकनी गायब ॥
चिमटा, चमचा निकले चालू
और तवा जैसा भी कालू
उड़ें हवा में जैसे बालू
नौकरी नयी मिल गयी अब
किचिन से फूँकनी गायब ॥
फुँकनी के घर अंधकार है
नई जॉब का इंतजार है
कंधों पर परिवार भार है
मौन है, सिल गये ज्यों लब
किचिन से फूँकनी गायब ॥
आ गया कैसा जमाना ?
या खुदा ! या रब !
किचिन से फूँकनी गायब !
पढ तो लिया .. पर कुछ भी पल्ले न पडा .. अर्थ समझाना होगा !!
जवाब देंहटाएंफुँकनी क्या कई चिजे गायब हो गई है... :)
जवाब देंहटाएंहोय रे कविता....वाह...
जवाब देंहटाएंविवेक भाई,
जवाब देंहटाएंये सारी फूंकनियां चिंगारी को भड़काने के लिए ब्लॉगर भाई जो उड़ा ले गए हैं...
जय हिंद...
"चिमटा, चमचा निकले चालू
जवाब देंहटाएंऔर तवा जैसा भी कालू"
वाह!
पर विवेक जी, अब तो गैस चूल्हे का जमाना है फुँकनी का क्या काम?
बहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंइन बिम्बों को आज कविता लगभग भूल चुकी है |
आप जैसे कवियों के रहते कविता अपने सांस्कृतिक - बोध
को बनाये रखेगी , ऐसा भरोसा मन में पैदा होता है |
फुकनी को ए़क बार आपने फिर फूंक दिया ...
धन्यवाद् ... ...
सही है. और भी बहुत कुछ गायब है.
जवाब देंहटाएंगैस चूल्हे के युग में फूंकनी तो अब किस्से कहानियों में ही देखने को मिलेगी.....मिटटी का चूल्हा तो अब आने से रहा!
जवाब देंहटाएंअब फूंकनी का काम बेलन कर रही है नारी के हाथ में:)
जवाब देंहटाएंआप की सोच भी कहाँ कहाँ चली जाती है...वाह...विलक्षण सोच और अद्भुत कविता....वाह...
जवाब देंहटाएंनीरज
funkani se lgati bade zor se thi.khoob padi hai apane ko fukani se bhi.chimate se bhi aur sandasi taq se.
जवाब देंहटाएंप्रकृति का नियम है कि कई चीज़ें लुप्त होती है और कई नई जन्म लेती है। फुंकनी गायब हुई तो ऑटोमैटिक गैस चुल्हे आ गए।
जवाब देंहटाएंफुकनी गायब है तो फुकने का डर भी तो नही है पर उल्टा ही हो रहा है
जवाब देंहटाएंकाश कोई मर्मज्ञ भाष्यकार इसकी व्याख्या कर देता तो मुझे भी कुछ आनन्द आ लेता। अभी तो ललाट सिकोड़ कर वापस जा रहें हैं। :(
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