जंगल की है कथा पुरानी
मुझे सुनाती थीं यह नानी
आप सुनें तो कह डालूँगा
मगर टिप्पणी वापस लूँगा
बडे प्रेम से गुजर रही थी
सरल ज़िन्दगी सही सही थी
सालाना चुनाव होता था
जिसका अधिकारी तोता था
सबकी राय पूछ लेता था
तत्पश्चात निर्णय देता था
निर्णय सबका निर्धारित था
सर्वसम्मति से पारित था
राजा शेर चुना जाता था
मगर सियार भुना जाता था
वर्षों बीत गए ऐसे ही
किन्तु मिला मौका जैसे ही
आया थोड़ा दम गीदड़ में
राजनीति खेली बीहड़ में
लगा मनाने सबको जाकर
उसके बहकावे में आकर
वोट दिया सबने बन्दर को
मिली पराजय तब नाहर को
बन्दर राजा चुना गया था
गीदड़ उसका मित्र नया था
आखिर था बन्दर का शासन
ढीला था सब तन्त्र प्रशासन
एक बार हो गया ये गच्चा
बकरी का छोटा सा बच्चा
खेल रहा था घर के बाहर
उठा ले गया उसको नाहर
बकरी ने राजा को बोला
बन्दर का सिंहासन डोला
आखिर निकला घर से बाहर
बोला,"किधर गया है नाहर ?"
पहुँच गए वे जहाँ शेर था
वहीं पास में एक पेड़ था
बन्दर सबको वहीं छोड़कर
चढ़ा पेड़ पर तेज दौड़कर
उसकी चाल हुई मतवाली
लगा कूदने डाली डाली
बकरी को पल पल था भारी
आखिर वह थी माँ बेचारी
पूछा,"जान बचेगी कैसे ?"
बन्दर बोला कुछ संशय से,
"तेरा दर्द समझ सकता हूँ
मगर और क्या कर सकता हूँ ?
जनसेवक का काम यही है
हमको बस आराम नहीं है
तू ही बता बच्चे की माँ है
भागदौड में कमी कहाँ है ?"
कविता देखी दौड़े आए
जवाब देंहटाएंएक टिपण्णी साथ में लाये
जो लिख डाली है वो सुंदर
गीदड़, नाहर, बकरी, बन्दर
बन्दर का अपना कोना है
बकरी की किस्मत रोना है
ऐसी ही रचते रहिये जी
हम सुनते, कहते रहिये जी
जनसेवक का काम यही है
जवाब देंहटाएंहमको बस आराम नहीं है
तू ही बता बच्चे की माँ है
भागदौड में कमी कहाँ है
"ha ha ha mind blowing, "
Regards
यदि मिश्र जी कहते कि,"एक टिप्पणी हाथ में लाए" तो कितना मजा आता .सोचिए . सोचिए-सोचिए . सोचिए ना !
जवाब देंहटाएंwaah...bahut khoob likhi hai kavita.
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक- और फिर शिव भाई का जोड़ -आनन्द आ गया.
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