सोमवार, नवंबर 16, 2009

इकत्तीस साल - दो सौ पोस्ट

Happy-Birthday

आज हमारा हैप्पी बड्डे है । पूरे ३१ साल के हो गये आज । जीवन यात्रा में जन्मदिन का महत्व एक मील के पत्थर जैसा है । मील के पत्थर तो अब रहे नहीं । हमने तो जबसे होश संभाला है किलोमीटर के पत्थर ही देखे हैं । पहले होते होंगे मील के पत्थर । तो सिद्ध हुआ कि जीवन यात्रा में जन्मदिन का महत्व किलोमीटर के पत्थर जैसा है । हेंस प्रूव्ड ।

किलोमीटर का पत्थर आने पर हम अक्सर यह जानने को उत्सुक रहते हैं कि यात्रा कितनी बची है । लेकिन जीवन यात्रा में यह सुविधा अभी उपलब्ध नहीं है । यहाँ सिर्फ़ पीछे मुड़कर देखा जा सकता है कि कितनी दूर निकल आये । फिर भी एक मोटा मोटा सा अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आधे से ज्यादा आ गये होंगे । पीछे ज्यादा कुछ छोड़ा नहीं है । पीछे वाले को बिना छोड़े जो आगे मिल रहा है उसे भी समेटने में लगे हैं । बड़े लालची हैं हम । बचपन को अभी भी कसकर पकड़ा हुआ है । जब तक सिर पर बड़ों का आशीर्वाद कायम है तो उम्र बढ़ने के क्या होता है ? पर अब छीनाझपटी का सा माहौल बनने लगा है । मित्र-राष्ट्र बचपन की रस्सी को हमारे हाथ से छीनने पर तुले हैं । इस बात को ऐसे समझा जाय कि तेंदुलकर शतक लगाकर मैदान से लौटे हों और कोई पत्रकार भाई पूछ लें कि उम्र को देखते हुए क्या वे क्रिकेट से सन्यास लेने पर विचार कर रहे हैं ? पर वे तेंदुलकर हैं, हम नहीं । वे जब तक चाहें खेल सकते हैं ।

वैसे सरकार यदि शादी-व्याह जैसी तमाम व्यक्तिगत बातों की तरह यदि बचपना छोड़ने की भी उम्र तय करना चाहती हो तो हमारी सलाह यही होगी कि चालीस तक तो बख्श ही दिया जाय । असल में लोग जल्दी बचपना छोड़ देते हैं । फिर शिकायत करते हैं कि बुढ़ापा आगया । अगर बचपन को ही चालीस पार करके छोड़ा जाय तो संभव है बुढ़ापा सौ के पार आये । और मरेंगे डेढ़ सौ के आस-पास ।

हम जब लेख लिखने लगते हैं तो भटक जाते हैं । इसीलिये कविता लिखकर फूट लेते हैं । ये लेख-फेक लिखना फुरसतिया जी जैसे लोगों को ही शोभा देता है ।

हाँ तो कौन सा पाठ पढ़ा रहे थे हम ? हाँ याद आया । हम कह रहे थे कि हमारी यह दो सौवीं पोस्ट ऐसे ही नहीं हो गयी । इससे पहले 199 लिख चुके हैं तब यह दो सौ वीं छप रही है ।

यूँ हमारे पास खाली समय फिलहाल नहीं के बराबर है । तदापि यह आप लोगों का प्यार का आकर्षण ही है जो बिना रस्सी के भी खिंचे चले आते हैं ।

स्वप्नलोक पर और चिट्ठाचर्चा पर आपका जो प्यार मिला उसने हमेशा उत्साह बढ़ाया । यह अलग बात है कि चिट्ठाचर्चा में शामिल होने को कुछ पवित्रात्माओं ने चमचागीरी का नाम देकर भी हमें सम्मानित किया । कई दिन तक खज़ाने की तलाशी लेते रहे कि जब चमचागीरी की है तो कुछ न कुछ फायदा भी किसी न किसी मद में हुआ होगा हमें । पर कुछ मिला नहीं अभी । शायद कभी रद्दी बेचते समय मिल जाय ।

चिट्ठाचर्चा ने अभी पिछले दिनों १००० का आंकड़ा छुआ । बड़ी खुशी हुई । अनूप जी ने चिट्ठाचर्चा के द्वारा जो काम हिन्दी ब्लॉगरों का उत्साह बढ़ाने में किया है उसके मैन-आवर्स निकालने लगें तो अवश्य ही कनफ्यूजिया जायें । हम तो यही कहेंगे कि अनूप जी के व्यक्तित्व का पासंग भी अभी ब्लॉग-जगत में कोई नहीं हुआ । बराबरी की तो खैर क्या कहें !

शनिवार, नवंबर 14, 2009

सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ

ANANT


सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ

बाल-दिवस पर ऐसा करना ठीक रहेगा
हाथ लगा यह अच्छा अवसर इसे भुनाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


गन्दा बच्चा बनने का अब फैशन बीता
गन्दे बच्चे की इमेज को लगे पलीता
करूँ नित्य कुछ पुण्य पढ़ूँ मैं कुरान-गीता
नीम, करेला छोड़ूँ अब शक्कर अपनाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


क्रोध उठाकर अलग ताक पर धरना होगा
वाणी पर कुछ कठिन नियन्त्रण करना होगा
श्रम का कुछ अच्छा परिणाम न वरना होगा
मन मन्दिर में एक तराजू भी लगवाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


इस दुनिया में पहले से ही ढेरों गम हैं
देखो तो हँसने के अवसर कितने कम हैं
जिसको देखें उसकी ही आँखें अब नम हैं
मैं क्यों दिल को दुखा एक गम और बढ़ाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


यूँ इतना आसान नहीं है अच्छा बनना
फिर भी कुछ प्रयास करने में कैसा डरना
फल देगा भगवान कर्म बस हमको करना
फिर क्यों चिन्ता करूँ व्यर्थ मन को उलझाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


बाल-दिवस पर ऐसा करना ठीक रहेगा
हाथ लगा यह अच्छा अवसर इसे भुनाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ



चलते-चलते


Gyandutt



ज्ञानदत्त जी हो गये, चौवन साला आज ।

करत रहें ब्लॉगिंग सदा, कभी न आयें बाज ॥

कभी न आयें बाज, दुआयें लगें हमारी ।

करते ब्लॉगर-श्रेष्ठ बिलागिंग सबसे न्यारी ॥

विवेक सिंह यों कहें, मचाते मन में हलचल ।

इलाहबाद में बसें, सुनें गंगा की कलकल ॥

शुक्रवार, नवंबर 13, 2009

क्या राजनेता देश को आगे ले जाने के मूड में हैं ?

वैश्वीकरण के इस युग में संचार-क्रान्ति ने सारे विश्व को ही एक गाँव बनाकर रख दिया है । अब वसुधैव-कुटुम्बकम की भारतीय अवधारणा जहाँ सच होती नज़र आ रही है, वहीं दूसरी ओर इसे बिडम्बना ही कहा जाएगा कि भारतीय समाज खुद बिखराव की ओर अग्रसर दिख रहा है । बेवजह के क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक विवादों ने आम आदमी का जीना दूभर किया हुआ है ।

वास्तव में आज के जमाने में धर्म और राज्य के आधार पर देश को बाँटने की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है । देश को सूबों में बाँटकर राजकाज को आसान बनाने की आवश्यकता मध्ययुग में थी । आज जब पल भर में सूचना विश्व के कोने कोने में पहुँच रही है तब राज्य किसलिए ? क्या जनपदों अथवा मण्डलों में विभाजन ही पर्याप्त नहीं ?

इसी तरह यदि हमारा देश वास्तव में धर्म निरपेक्ष है तो देश का हर नागरिक धर्म और जाति से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिए । हिन्दू कानून अलग, मुसलमान कानून अलग ऐसा क्यों ?

अब जब हर नागरिक को अलग पहचान नम्बर देने की बात की जा रही है और सबकी आर्थिक स्थिति का रिकॉर्ड रख पाना भी कोई मुश्किल कार्य नहीं रहा । ऐसे में जाति को आधार बनाकर सब लोगों को गाय-भैंस की तरह हाँकने से क्या फायदा ?

क्या हमारे राजनेता देश को वाकई आगे ले जाना चाहते हैं ?

किचिन से फूँकनी गायब

किचिन से फूँकनी गायब

आ गया कैसा जमाना ?
या खुदा ! या रब !
किचिन से फूँकनी गायब ॥

पड़ी जरूरत जब भी इसकी
कभी न यह मौके से खिसकी
किया कार्य थी डिमाण्ड जिसकी
दिया मुँह आग में जब-तब
किचिन से फूँकनी गायब ॥

लेकिन फिर भी गयी नौकरी
बन्द हुई प्राचीन फैक्टरी
जैसे सिर पर फूटे गगरी
आँसुओं से भीगा तन सब
किचिन से फूँकनी गायब ॥

चिमटा, चमचा निकले चालू
और तवा जैसा भी कालू
उड़ें हवा में जैसे बालू
नौकरी नयी मिल गयी अब
किचिन से फूँकनी गायब ॥

फुँकनी के घर अंधकार है
नई जॉब का इंतजार है
कंधों पर परिवार भार है
मौन है, सिल गये ज्यों लब
किचिन से फूँकनी गायब ॥

आ गया कैसा जमाना ?
या खुदा ! या रब !
किचिन से फूँकनी गायब !

गुरुवार, नवंबर 12, 2009

विचार-धारा का संवैधानिक संकट

हमने जब हाई-स्कूल के बाद केमिकल इंजीनियरिंग में चार साल का डिप्लोमा पास कर लिया तो काफी खुश थे । सच पूछा जाय तो थोड़ा घमण्ड भी हमारे भीतर घर बना लिया था । हमारे जो साथी स्नातक हो गये थे उन्हें हम कुछ भाव ही न देते थे ।

पर ईश्वर ऊपर से यही सब तो देखते रहते हैं । उन्होंने अपने किसी दूत के द्वारा हमें ज्ञान दिया कि हम प्रैक्टीकली चाहे जितना खुश हो लें, पर थियोरिटीकली स्नातकों के लेवल से बहुत नीचे हैं । वह बात अलग है कि टेक्निकल नॉलेज हो जाने के कारण कोई न कोई फैक्टरी हमें काम पर रख ही लेगी । जबकि स्नातक की तो वैल्यू ही अलग है । स्नातक चाहे तो आईएऐस के लिए ट्राई मार सकता है जबकि तुम नहीं ।  जब तक आदमी स्नातक नहीं हो जाता, उसे सही मायनों में पढ़ा लिखा ही नहीं माना जा सकता । जिसने बीए कर लिया समझो बुद्धिजीवी हो गया । उसे विधान-परिषद में वोटिंग का अधिकार मिल जाता है । उसकी एक विचार-धारा बन जाती है । और तुम रहोगे डिप्लोमची ही , चाहे पैसा कितना ही कमा लेना ।

यह बात हमारे हृदय में घर कर गयी । अगले ही साल इण्टरमीडियेट का प्राइवेट फॉर्म भरा । नौकरी भी की और परीक्षा भी दी । पास भी हो गये । इसी तरह खेंच-कढ़ेर के बीए भी हो गए । पर विचार-धारा न पनपी । सोचा हो सकता है हमारी विचार-धारा बनने में कुछ ज्यादा मेहनत लगे । इसलिए एमए भी करने लगे । वह भी मर-गिर के हो ही गयी । सारा देशी विदेशी इतिहास और राजनीति शास्त्र चाट लिया पर विचार-धारा न पनपी । बल्कि और कनफ्यूज से हो गये ।

अब तो अक्कल-दाढ़ भी जोर मार रही है । कहते हैं जिसके मुँह में ऐग्जैक्ट बत्तीस दाँत हों उसकी जिव्हा पर सरस्वती जी आकर बैठ जाती हैं और आदमी सच बोलने लगता है ।

सोच रहा हूँ जिसकी कोई विचार-धारा ही नहीं वह अगर सच बोले तो क्या परिणाम होंगे ?  इसी उधेड़बुन में रहता हूँ कि कौन सी विचार-धारा ज्वॉइन करूँ- कौन सी न करूँ । अलग अलग विचार-धारा वाले लोगों के प्रवचन सुनता हूँ । प्रभावित होता हूँ । पर अगले विचारक के विचार सुनते ही पहले वाले के विचार भूल जाता हूँ । बड़ी विकट समस्या है । मन की सरकार में विचार-धारा का संवैधानिक संकट सा खड़ा हो गया है । आशा है अक्कल-दाढ़ पूरी बाहर आने से पहले कोई न कोई विचार-धारा बन ही जाएगी ।

मंगलवार, नवंबर 10, 2009

मर्दों वाला काम

abu_azmi

अबू आज़मी ने किया, मर्दों वाला काम ।

कम से कम इस बात पै, मेरा उन्हें सलाम ॥

मेरा उन्हें सलाम, झुके बाकी सब योद्धा ।

तुम ही साहूकार, और सब तो घसखोदा ॥

विवेक सिंह यों कहें, बधाई हुई लाजमी ।

मर्दों वाला काम कर दिये अबू आजमी ॥

मित्रगण