आजकल हमें सबसे अधिक जिस बात की चिन्ता खाए जा रही है वह यह है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग पर अंकुश न लग सका तो क्या होगा ?
सोचते हैं तो प्रलय की कल्पना करके ही दिल दहल जाता है । शास्त्रों में धरती के रसातल में चले जाने की जो बातें लिखी हैं उनका इशारा कदाचित इसी ओर होगा ।
कमजोर दिल वाले लोग तो अभी तक के परिणामों से ही घबराए हुए हैं । तापमान बढ़ने के साथ-साथ लोगों द्वारा कम कपड़े पहने जाना कोई बड़ी बात नहीं पर कुछ दकियानूसी तत्व इसे बड़ा इश्यू बनाने की फ़िराक में रहते हैं । दरअसल इस सबके पीछे वस्त्र-निर्माता कम्पनियों की साजिश नज़र आती है ।
प्रचार किया जाता है कि आधुनिक युवक-युवतियों द्वारा कम कपड़े पहने जाने का कारण उनमें शर्म का अभाव है । जबकि शर्म का कपड़ों के साथ दूर का रिश्ता भी नहीं मिलता । शर्म तो आँखों में रहती है , इसका कपड़ों से भला क्या लेना देना ?
जब आँखों में शर्म न मिले तो समझ लेना चाहिये कि शरीर में शर्म की मात्रा आवश्यक स्तर से नीचे है । इस स्थिति में शर्म की किसी विशेषज्ञ से जाँच करवाना जरूरी होता है । एक-एककर सभी अंगों की तलाशी ली जाती है और शर्म की उपस्थित मात्रा का अनुमान लगा लिया जाता है । यदि शर्म किसी भी अंग में न मिले तो बालों में अवश्य मिल जाती है । यदि बाल में भी न मिले ऐसे व्यक्ति को बेशर्म की उपाधि से विभूषित करने योग्य समझना चाहिये ।
कुछ लोगों में शर्म का स्तर धीरे-धीरे गिरते हुए शून्य हो जाता है । जबकि कुछ पर्याप्त शर्मदार लोग आवश्यकतानुसार इसे अस्थायी रूप से खूँटी पर टाँग देते हैं । इनका मूल-मन्त्र होता है कि,
" जिसने करी शर्म, उसके फूटे कर्म । "
इसलिए ये महाशय कर्म को फूटने से बचाने के लिए शर्म को खूँटी पर टाँग देते हैं । और जब जरूरत महसूस होती है इसे खूँटी से उतारकर अवसर के मुताबिक आँखों में रखने की बजाय ऊपर से ओढ़ लेते हैं । इससे ये पूरे ही शर्ममय दिखलाई पड़ते हैं । ध्यान रहे कर्म बड़ा ही भंगुर पदार्थ होता है । यह फूटने के लिए प्रसिद्ध है ।
जैसे शर्म आँखों में रहती है वैसे ही अक्ल का निवास स्थान दिमाग में बताया जाता है ।कभी औचक दौरा करने पर यदि अक्ल दिमाग में न भी मिले तो तुरंत यही नहीं समझ लेना चाहिये कि व्यक्ति में अक्ल का स्थायी रूप से अभाव है । कभी कभी अक्ल होते हुए भी अस्थायी रूप से घास चरने चली जाती है । दिमाग में यदि अक्ल नहीं है तो अधिकतर मामलों में इस रिक्त स्थान की पूर्ति भूसे द्वारा की जाती है । बिरले व्यक्तियों के दिमाग में भूसे के स्थान पर गोबर भी भरा हुआ पाया जा सकता है । ऐसा शायद उस स्थिति में होता होगा जब अक्ल को घास चरने की लत लग गयी हो और वह घास को गोबर में बदलकर दिमाग में भरती रहे । ऐसा होने पर यदि व्यक्ति के दिमाग की बिल्डिंग में ताजी हवा आने-जाने का रास्ता न हो तो अक्ल गोबर से निकली मीथेन गैस से घुटकर अक्सर मर जाया करती है , और गोबर ही शेष रहता है ।
अक्ल अगर घास चरने न जाती हो तो दिमाग में कुछ मात्रा में उपस्थित भूसे की को खाने के कारण भी उपरोक्त स्थिति आ सकती है । अक्ल के ऐसा व्यवहार करने से इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि अक्ल भैं के समान है । शायद इसीलिए पूछा जाता है कि, "अक्ल बड़ी या भैंस ?" ऐसा उलझाऊ प्रश्न प्रतियोगियों को उलझाने के लिये ही द्विविकल्पीय बनाकर पूछा जाता है जबकि इसका सही उत्तर इन दोनों में से कोई नहीं होता क्योंकि भैंस अक्ल के समान होती है । न बड़ी न छोटी ।
यदि दिमाग खाली मिले तो उसे शैतान का घर समझ लेना चाहिए ।
कुछ अतिविरले व्यक्तियों में दिमाग की अवधारणा ही नहीं पायी जाती । ऐसे लोगों में प्रथम दृष्टया ही अक्ल का अभाव नहीं समझ लेना चाहिए । दिमाग न होने की स्थिति में कभी-कभी अक्ल घुटनों में भी पायी गयी है ।
इसी प्रकार बात को कान में डाला जाता है और कहा जाता है कि उसे ध्यान में रखा जाय । सामान्यत: ध्यान और जुबान का कोई कोई सम्बन्ध दिखाई नहीं देता क्योंकि ध्यान के समय जुबान शान्त ही रहती है । किन्तु आश्चर्यजनक रूप से जिस बात को कान में डालकर ध्यान में रखा गया था वह हमेशा जुबान से ही निकलती पायी जाती है । बात को ध्यान में रख पाना तभी संभव है जब उसे एक कान से डालते समय दूसरे कान से न निकलने दिया जाय । बात की यह प्रवृत्ति होती है कि वह कान, ध्यान, और जुबान से गुजरने की प्रक्रिया में अपना मूल स्वरूप प्राय: कायम नहीं रख पाती ।
दया का निवास हृदय में होता है और गम को खाकर पेट में रखने की सलाह दी जाती है । गुस्सैल व्यक्ति का गुस्सा हमेशा उसकी नाक पर ही रखा रहता है । गुस्सैल व्यक्ति सब नियम-कानूनों को ताक पर रख देता है । ताक पर काफी सामान रखा होने के कारण इससे कुछ भंगुर चीजें गिरकर टूट भी जातीं हैं । उन्ही में से एक चीज कानून है । कानून को ताक पर रखने से कानून गिरकर टूट सकता है । पर होनी को कौन टाल सकता है ? कानून ताक पर रखा और गिरकर टूटा । ऐसे में व्यक्ति रामचरितमानस की उस चौपाई को ही याद करता है जिसमें कहा गया है :
छुअत टूट रघुपतिहि न दोषू, मुनि बिनु काज करिअ कत रोषू ।
आजकल लोग घरों में जब अलमारियाँ तक नहीं बनवाते तो भला ताक क्या खाकर बनवायेंगे ? और बनवाएं भी क्यों आजकल दीपक रखने के लिए ताक की जरूरत ज्यादा इसलिए नहीं पड़ती कि बिजली सब जगह पहुँच गई है । जब दीपक ही नहीं तो भला ताक का क्या काम ? कुछ पुरानी ताक बची हुई हैं । और इधर ताक पर रखी जाने वाली चीजों की मारा बढ़ रही है । अब तो जो चीज पसंद न आए तुरंत ताक पर रख दी जाती है । सहनशीलता तो जैसे लोगों को छू तक नहीं गई .
कुछ प्राणी ताक में रहते भी हैं । वे इसका उपयोग ठीक ऐसे ही करते हैं जैसे सीमा पर मौजूद सैनिक मोर्चे का इस्तेमाल करता है । वे हमेशा किसी न किसी अवसर की ताक में रहते हैं और अवसर सामने आते ही उस पर टूट पड़ते हैं । जो लोग अवसर न मिलने का रोना रोते रहते हैं । उन्हें अवसर की ताक में रहना चाहिये ।
कुछ लोगों को ताक में रहने को बोला गया तो मिसकन्फ्यूजन के कारण वे ताक में रहने की बजाय आने-जाने वालों/वालियों को ताकने लगे । इस ताकाझाँकी से तकरार बढ़ गयी । और शान्त को ताक पर रखकर कलह का आगमन हुआ । कुछ ही देर में लोग एक दूसरे पर तक तककर पत्थर फेंक रहे थे ।
अत: प्यारे भाइयो ताक में रहना लेकिन ताकना मत !
हम तो इसी ताक में थे कि आपकी पोस्ट आये और टिप्पणी करे !
जवाब देंहटाएंकहां तक उड़ चली विचार पतंग!
जवाब देंहटाएंठीक है ताक में रहेगें लेकिन हरगिज ताकेगें नहीं
जवाब देंहटाएंbhai,
जवाब देंहटाएंpata nahi ye post padhkar mai confuse ho gaya ya phir likhte huye aap? anywas... best wishes.
आजकल हमें सबसे अधिक जिस बात की चिन्ता खाए जा रही है वह यह है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग पर अंकुश न लग सका तो क्या होगा ?
जवाब देंहटाएंऐसी कल्पना क्यों करते है भाई. ऐसी स्थिति निर्मित होने में हजारो साल लगेंगे और अपना जीवन सौ बर्ष से अधिक क्या हो सकता है . जो है हम उसी में खुश रहे यही जिन्दगी है .
आप को अवश्य ही विद्यालयों में वाद-विवाद-/भाषण प्रतियोगितों में खूब पुरुस्कार मिलते रहे होंगे.
जवाब देंहटाएंआप के हिंदी अध्यापक को आप पर गर्व होता होगा.
आप की लेखनी और विचार बहुत पैने हैं.
यह तारीफ़ है आलोचना नहीं.
कुशल हाजिरजवाबी और बातों की परतें निकालना हर किसी के बस में नहीं. भविष्य में ' फुरसतिया जी 'के सिंहासन के आप प्रबल दावेदार हैं.
'भविष्य में ' फुरसतिया जीके सिंहासन के आप प्रबल दावेदार हैं.'--अगर यह वाक्य पर आपत्ति हो तो वापस ले लेती हूँ.
जवाब देंहटाएंक्या बात है ! वाह वाह विवेक भाई।
जवाब देंहटाएंआज तो बड़ा लंबा पोस्ट ठेल दिया?
जवाब देंहटाएंकाबे किस मुँह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती
अल्पना जी ने तो हमारे मन की बात कह डाली! हम भी टिप्पणी में यही लिखने वाले थे!!
जवाब देंहटाएं@ अल्पना वर्मा जी,
जवाब देंहटाएं'भविष्य में ' फुरसतिया जीके सिंहासन के आप प्रबल दावेदार हैं.--अगर यह वाक्य पर आपत्ति हो तो वापस ले लेती हूँ.'
उपरोक्त वाक्य पर आपत्ति होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, बल्कि यह तो किसी के लिए भी सम्मान की बात होगी !
हाँ, यदि स्वयं फुरसतिया जी को आपत्ति हो तो वे दर्ज़ करा ही देंगे , शायद आते ही होंगे !
मन को कहाँ-कहाँ ले जाते हो भाई ! वह तो इधर उधर ताकता-झाँकता ही दिख रहा है- नहीं तो इतनी खूबसूरत प्रविष्टि की कल्पना ही असंभव है ।
जवाब देंहटाएंअल्पना जी की बात का मेरा भी अनुमोदन । फुरसतिया भी इसे अनुमोदित करेंगे ।
ताक ही ताक में ताकना तक भूल गए..ऐसा उलझाया आपकी रचना ने..!!
जवाब देंहटाएंनही ताकेंगे भाई. चिंता मत करो.
जवाब देंहटाएंरामराम.
जय हो! सिंहासन हम ई मेल से अटैच करके भेज दिये हैं! धांस के बैठो! ऐश करो! आपत्ति काहे की भैया! बबाल छूटा!
जवाब देंहटाएंलग रहा है पन्द्रह अगस्त की पतंग अभी तक उडाई जा रही है..
जवाब देंहटाएंमैनें कभी लिखा था
जवाब देंहटाएंबस इक नज़र ही देखने ताका हज़ार बार
और सब जहान फिरता रहा मेरी ताक में
waah bhai...aapne to postmartam kar ke rakh diya dimag ka. ab ek aadh din apne dimaag ka bhi auchak daura kar lete hain!
जवाब देंहटाएंताक क्या लगाना .. जब वाट वाट से मेगावाट बनाते हुए बिजली की किल्लत पूरी की ही जा रही !!
जवाब देंहटाएंवाह! वाह!
जवाब देंहटाएंसिंहासन के लिए बधाई. आशा है अटैचमेंट मिल गया होगा.
अति सुन्दर।
जवाब देंहटाएं( Treasurer-S. T. )
ताक धिना धिन वाला समा बंध गया भाई:)
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