क्या देह ही है सब कुछ ?
यह वाकई गुड क्वेश्चन की श्रेणी में आता है किन्तु इसमें प्रथम दृष्टया ही विरोधाभास अलंकार के दर्शन हो रहे हैं । 'सब' और 'कुछ' का भला क्या मेल ? हम यहाँ शब्दों के बाल की खाल निकाले बिना सीधे भावनाओं पर चढ़ जाते लेकिन शब्द का मतलब समझे बिना भावनाओं पर क्या खाक विचार करेंगे ? कबीर जी ने कहा है :
इस दोहे से 'देह' शब्द का मतलब काफी हद तक स्पष्ट हो जाता है । 'देह' का अर्थ हुआ 'देना' । अब 'देह' के इस अर्थ को समीकरण में रखने पर प्रश्न बनता है 'क्या देना ही है सब कुछ ?' । अब यह प्रश्न कठिन नहीं रहा । सब कुछ भला कौन देना चाहता है ? आजकल तो ऐसे लोग भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं जो कुछ देना चाहते होंगे । और आप सब कुछ देने की बात करते हैं । किस युग में जी रहे हैं जी ? 'फेंक दूँगा पर किसी को दूँगा नहीं' यह मानसिकता आम है । जो सब कुछ दे चुका हो ऐसा आदमी तो हिमालय की किसी कंदरा में ढूँढ़ना पड़ेगा ।आब गयी आदर गया, नैनन गया सनेह ।
ये तीनों तब ही गये, जबकि कहा कछु देह ॥
देने वालों का हमारे देश में सर्वथा अभाव भी नहीं रहा । भारत का इतिहास ऐसे दानी लोगों की गाथाओं से भरा पड़ा है । देवासुर संग्राम में जब असुर देवताओं पर भारी पड़ने लगे तो इन्द्र को चिन्ता हो गई । सारे अस्त्र-शस्त्र फेल हो रहे थे । वृत्तासुर काल सरीखा बढ़ा आता था । ऐसे में में किसी ने बताया कि यदि महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बनाकर उससे वृत्तासुर पर प्रहार किया जाय तो उसका वध संभव है । इन्द्र के माँगने पर दधीचि ने सहर्ष अपनी देह का त्याग कर दिया । और वृत्तासुर का नाश हुआ ।
महाभारत में कर्ण भी दानी थे । उन्होंने जब अपनी देह से काट-काटकर कवच-कुंडल इन्द्र को दे दिये तो यह दान की पराकाष्ठा थी ।
यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो जहाँ देहू होता है वहाँ लेहू भी होता है । संक्षिप्त में कहें तो 'जहाँ देह वहाँ लेह' । लेह के पीछे हम चाहें तो लेह-लद्दाख तक जा सकते हैं पर जा नहीं रहे । आजकल भले ही देहुओं की तुलना में लेहुओं की संख्या हजारों गुना ज्यादा दिखाई दे लेकिन पहले देहू ज्यादा थे और लेहू बहुत कम । ऊपर के दोनों उदाहरणों पर ही विचाए कर लें । दो देने वाले और लेने वाले अकेले इन्द्र ।
दान देने वाला यदि दानी होने का गर्व करे तो उस दान का पुण्य नहीं मिलता । ऐसा शास्त्रों में लिखा है । दान ऐसे करें कि दाएं हाथ से दें तो बाएं हाथ को पता न चले । मतलब गुप्त-दान का बड़ा महत्व है । सेंटा क्लाज की कहानी में हमने यही पढ़ा कि उन्होंने एक गरीब हो गये जमींदार की सहायता गुप्त रूप से की ताकि उसके आत्म सम्मान को ठेस न लगे ।
कुछ केस में देने वाला देना चाहता है पर लेने वाले लेना नहीं चाहते । ऐसा अक्सर उन त्यौहारों पर होता है जिन पर लोग पुण्य कमाने हेतु राहगीरों को पानी पिलाने, खाना खिलाने आदि का कार्य करना चाहते हैं । बात खींचातानी तक भी पहुँचती देखी जाती है । हमारा मानना है कि ऐसी स्थिति में लेने वाला यदि ले ले तो यह इसलिए प्रसंशनीय है क्योंकि वह देने वाले को दानी होने के अहसास की खुशी दे रहा है ।
ऊपर देह शब्द का प्रयोग शरीर के अर्थ में भी हुआ है । इसलिए 'देह' के इस अर्थ को भी समीकरण में रखकर विचार किया जा सकता है । यह पहले भी कई विद्वानों द्वारा विचारित हो चुका है, तो हम जैसे लोग इस पर भला क्या खाकर विचार कर पायेंगे ?
देह तो मजबूरी कर्म है असल इरादा तो लेह ही है |देह के पहले लेह है |
जवाब देंहटाएंइसको कहते हैं U टार्न मारकर फिर O टार्न मारना |
वाह वाह वाह !!!
Apni Apni Soch Hai.
जवाब देंहटाएं( Treasurer-S. T. )
आपका नाम तो पहले से ही इतिहास में दर्ज है। फिर यह सब कुछ तज कर इतिहास में पुनः नाम दर्ज कराने की ललक क्यों? जागो इतिहासकार जागो- कब तक स्वप्नलोक में पडे़ रहोगे:)
जवाब देंहटाएंवाह क्या विश्लेशन है बधाई इतिहास मे नाम दर्ज हो गया शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंचिंता काहे करते हैं...मैं इतिहास लिखने बैठूंगा तो आपका नाम दर्ज कर लूंगा!!!!!
जवाब देंहटाएंविवेक भाई, बड़ी पैनी नज़र है आपकी, भला इतिहास आपको नज़र-अंदाज़ करने की गुस्ताखी कैसे करेगा...मेरे ब्लौग पर हौसला-अफजाई के लिए शुक्रिया, रही बात अंडे-टमाटरों की तो क्यों न ऑमलेट ट्राई किया जाये.
जवाब देंहटाएंविवेक भाई, बड़ी पैनी नज़र है आपकी, भला इतिहास आपको नज़र-अंदाज़ करने की गुस्ताखी कैसे करेगा...मेरे ब्लौग पर हौसला-अफजाई के लिए शुक्रिया, रही बात अंडे- टमाटरों की तो क्यों न ऑमलेट ट्राई किया जाये.
जवाब देंहटाएंइसे कहते है अच्छी खासी पोस्ट की मा...चिस जलाकर छोड़ना..
जवाब देंहटाएंसुन्दर विश्लेषण. बधाई. भाई हम तो टिप्पणी 'देह' का कार्यक्रम चलाते रहते हैं. और देह ही सबकुछ नहीं है इसलिए हम 'लेह' भी करते रहते हैं.
जवाब देंहटाएंविवेक जी,
जवाब देंहटाएंदेह शब्द को श्लेष अलंकार के रूप में लेकर अब जब आपने 'देह' का अर्थ "देना" निकाल ही लिया है तो मैं कहूँगा कि आज के युग में भी "देह ही सब कुछ है" यदि आप गाली दे रहे हैं तो।
वैसे श्लेष से शब्द से डॉ. सरोजनी प्रीतम की एक हँसिका याद आ गईः
क्रुद्ध बॉस से
बोली घिघियाकर
माफ कर दीजिए सर
सुबह लेट आई थी
कंपन्सेट कर जाऊँगी
बुरा ना माने गर
शाम को लेट जाऊँगी
बस ऐसे ही लेख लिखते रहिए! :-)
वाह क्या तो देह के बहाने लेन-देन करके डाल दिया। जिसको लेना हो लेके जाये।
जवाब देंहटाएंबहूत अच्छी रचना. कृपया मेरे ब्लॉग पर पधारे.
जवाब देंहटाएंशानदार विश्लेष्ण ! अबतो इतिहास में आप जरुर दर्ज हो ही जावोगे |
जवाब देंहटाएंऐसी विचार-भंगिमा कहाँ से अख्तियार कर लेते हैं साहब ! मुँह बंद हो गया है हमारा ।
जवाब देंहटाएंअच्छी खोज खबर ली है.
जवाब देंहटाएंरामराम
आप के लेखों में छलांगे देखने को मिलती हैं, हम उस के फैन हैं।
जवाब देंहटाएंदेह कहाँ कहा था ?यह तो आप कह रहे हो देह सम्राट !
जवाब देंहटाएंये तो ऐताहासिक पोस्ट ही कहलाई..
जवाब देंहटाएंवैसे टिप्पणीशास्त्र की मूल भावना पर भी आपके विचार अच्छे लगे:
'जहाँ देह वहाँ लेह'
:)
ऐसे बौद्धिक प्रदान करते रहे .
जवाब देंहटाएंइतिहास मै अमर हो जाओ... हमे कोन सा रटा मारना है
जवाब देंहटाएंशब्दों के साथ खूब खिलवाड़ किया आपने :)
जवाब देंहटाएंअजी हम फेकने की बजाये देने में विशवास रखते हैं, बताइये कितनी टिप्पणी चाहिए ?
:) :) :) :) :) :)
वीनस केसरी
जवाब देंहटाएंभाई विवेक जी,
कृपया मेरी सकारात्मक टिप्पणियाँ स्वीकार करें !
मैं तो न देह में ठँस पाया, और न लेह में अँट पाया ।
जहाँ चाहें, इस सकारात्मक टिप्पणी को अपनी सुविधानुसार समायोजित करें ।
धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंएप्रूवल !
यह लटका यहाँ भी ?
बढ़िया है !
हम सोच रही थीं कि फुरसतिया जी को का हो गया है बार बार देह के पीछे पढ़ जाते हैं आखिर क्या चाहते हैं :)इसलिए चिढकर यह पोस्ट नहीं खोल रहे थे ! अब खोली तो पाया इइ तो अपने बिबेक जी की निकली .. बच्चे बूढे और जवान सभ्भी देह राग में इस या उस बहाने डूबे हैं !बढिया विस्लेसन किए हो ! बधाई हो !
जवाब देंहटाएंyah bhi khoob rahi!
जवाब देंहटाएं'deh' ka ye bhi arth nikaala..!
***100 baaton ki ek baat---:Post thelne ke liye--'blogging,tippani,Nari shoshan ke baad ab yah vishy lagta hai..blog-bhavishy ka 'janpriy vishya' hone wala hai..