संभव है कि इस ब्लॉग पर लिखी बातें मेरी विचारधारा का प्रतिनिधित्व न करती हों । यहाँ लिखी बातें विभिन्न दृष्टिकोणों से सोचने का परिणाम हैं । कृपया किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न रखें ।
बुधवार, जुलाई 01, 2009
मानसून से मोर तक
अब लग रहा है कि मानसून जी आ गए हैं । वैसे नामानुकूल तो जैसा कि इनका नाम है मान+सून तो इनको जल्दी मान जाना चाहिए था पर इतने पर भी मान गए तो जल्दी ही समझा जाना चाहिए । अब आ गए हैं तो बारिश भी करेंगे । क्या है कि बड़े लोग जहाँ भी जाते हैं जरा देर से पहुँचते हैं और फ़िर घोषणाओं की झड़ी लगा देते हैं । घोषणाओं की बारिश करने में कोई रिस्क फ़ैक्टर तो है नहीं इसलिए घोषणा को अमल में लाया जा सकेगा या नहीं इसकी टेंशन प्राय: घोषणा करते समय न लेना ही उचित माना गया है । ऐसा कोई उदाहरण इतिहास में शायद न मिले जिसमें किसी झूठी घोषणा करने वाले को सजा हो गई हो ।
मानसून जी ने भी सोचा होगा, अबकी बार दिखा दिया जाय कि वे भी कम बड़े नहीं इसीलिए जरा देर से आए होंगे । अब बरसने की बारी है तो बरस भी रहे हैं और गरज गरजकर घोषणा भी करते जा रहे हैं या कहें कि झूठी घोषणा करने वालों को ललकार रहे हैं कि ,"इधर देखो ऐसे होते हैं बड़े । झूठी घोषणाओं की बारिश नहीं करते हम !"
अब मोर को पक्का भरोसा हो गया है कि अंग-प्रदर्शन का यही सुनहरा अवसर है और वह जहाँ मन होता है वहीं लंगोटी खोलकर नंगा नाच दिखाने लगता है । कोई शर्म नहीं , कोई लिहाज नहीं । कुछ चिड़ियों का सोचना है कि, "मोर को कम से कम इतना खयाल तो होना ही चाहिए कि वह राष्ट्रीय पक्षी है कोई आम चिड़िया नहीं । पर देखिए तो नंगई में आम चिड़ियों से मीलों आगे है । पता नहीं इसे राष्ट्रीय पक्षी किन परिस्थितियों में घोषित किया गया होगा । बोलिए तो दूसरी चिडियाँ राष्ट्रीय पक्षी क्यों नहीं बन सकतीं ? हमारी समझ से तो राष्ट्रीय पक्षी का भी निर्णय चुनाव से होना चाहिए । और अगर राष्ट्रीय पक्षी कोई ऐसी वैसी हरकत करता मिले तो उसके खिलाफ़ बाकायदा महाभियोग प्रस्ताव लाया जाना चाहिये । "
मोर ने जब यह सुना तो चिड़ियों को खूब लताड़ पिलाई । बोले ," हम बालिग हैं । कोई बच्चे नहीं । हमें भी अच्छे बुरे की समझ है । जैसे चाहें कपड़े पहनें या फ़िर न पहनें । हम क्या करें , क्या न करें इसमें किसी राय की जरूरत हमें नहीं है । हमारा जब मन होगा जहाँ मन होगा ऐसे ही नाचेंगे । जिसे अच्छा नहीं लगता वह हमारी तरफ़ देखे ही क्यों ?
और रही बात राष्ट्रीय पक्षी होने की तो मैं पद का लालची कभी नहीं रहा । त्यागपत्र जेब में लेकर घूमता हूँ । पर यह देना किसे है यही मालूम नहीं । यहाँ जान के लाले पड़े रहते हैं और आप हमें पद की धमकी दे रहे हैं । मुझे मारते समय क्या कोई सोचता है कि मैं राष्ट्रीय पक्षी हूँ इसलिए मुझ पर रहम किया जाय ?
बाघ भी तो राष्ट्रीय पशु है उससे कभी किसी ने सवाल किया है कि भाई तू राष्ट्रीय पशु है तो हिंसा क्यों करता है ? महात्मा गाँधी के देश में क्या राष्ट्रीय पशु बनाने के लिए बाघ ही मिला था ?"
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
वाह विवेक भाई कितना महीन मारा है -
जवाब देंहटाएंमैं भी तो यही चाहूं की जब कोई राष्ट्रीय नामी गिरामी उन्मुक्त आचरण करता फिरे तो फिर किसी भी को कहें कोई रोक टोक ?
हम तो आनन्दम आनंदम के लिए बैठे ही हैं !
नायिका ने आखिर कह ही डाला था की "भई न बिरज की मोर ...." -मगर आगे शायद सकुचा गयी !
तब से दुनिया बहुत बदल नहीं गयी है विवेक जी ?
भाई राष्ट्रिय पक्षी हो या पशु. मनुष्य़ नाम की चिडिया/पशु , अपने साथ साथ इसको भी खत्म करवा कर रहेगा. खुद तो बारुद के ढेर पर बैठा ही है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बड़ी दूर की गोटी लाये हो विवेक बाबु.. मोर की पीडा तो हमसे सही नहीं गयी.. आँखों से आंसू छलक पड़े..
जवाब देंहटाएंभूल सुधाए:
जवाब देंहटाएंइसको = इनको
बहुत सुन्दर आलेख प्रस्तुत किया है आपने बधाई
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा है ,बधाई .
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमानसून बोले तो वरखा रानी ‘मान’ किए बैठी थी जिससे धरती की हरियाली और खुशहाली ‘सूनी’ हो चली थी। अब बरखा रानी ‘मान’ गयीं हैं और खुशी का ‘प्रसून’ खिल उठा है।
जवाब देंहटाएंमोर की करुण गाथा तो वाकई दहलाने वाली है। :)
बहुत दूर दूर तक गयी आज आपकी सोंच .. बधाई एवं शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है आपने मोर की पीडा को
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंपोस्ट पढ़कर वो विज्ञापन याद आ गया...ये दिल मांगे मोर! बहुत सुन्दर लिखा है.
जवाब देंहटाएंकभी मेरे ब्लॉग पर भी पधारें.
साख जैतून की
बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंLambee soch vivek ji...........sundar lekh hai
जवाब देंहटाएंप्रविष्टि का असर दीर्घजीवी है, और निशाना सटीक । आभार ।
जवाब देंहटाएंऐसी लेख की आवश्यकता है ..................बहुत बढिया
जवाब देंहटाएंविवेक जी बहुत सुन्दर ....सटीक निशाना |
जवाब देंहटाएंमानसून से मोर तक वाक़ई गहरी पकड़ नज़र आ रही है।
जवाब देंहटाएंbahut badia.........badhai......
जवाब देंहटाएंतीक्ष्ण और धारदार
जवाब देंहटाएंवाह रे मयूरा तेरी किस्मत! राष्ट्रीय भी है और निगाहें भी तुझी पर!
जवाब देंहटाएंबहुत खुब.. वैसे मोर का क्या दोष है उसे तो बेचारे को बस में चढ़ने ही नहीं दिया.. नो मोर..(साभार - ताऊ)
जवाब देंहटाएंऔर मानसुन को तो राष्ट्रीय दगा बाज/ धो्खेबाज की पदवी दे दी जाए.. क्या ख्याल है?
वह क्या था कि पिछले सालों से मानसून भाई बिना मान मनौवल के अपने आप समय पर आ जाते थे। तो हमने सोच लिया कि इसका क्या है चला ही आता है बिन बुलाए। तो यह बात खटक गयी अगले को। तो इस बार हमें अपनी औकात बताने के लिये थोड़ी सी प्रतिक्षा करवा दी।
जवाब देंहटाएंवाह विवेक भाई ॥ बिल्कुल अलग सोचा आज तो …सचमुच आज कोई ॥इनके लिये नहीं सोच पा रह है …
जवाब देंहटाएंछा गये गुरू।
जवाब देंहटाएंमानसून और मोर के बहाने आपने तो बहुतों को लपेटे में ले लिया। बहुत बढि़या व्यंग्य..जोरदार।
जवाब देंहटाएंघोषणा कर के निकल गया तो? अरे पाहिले बरस तो लेने दीजिये :)
जवाब देंहटाएंयह लेख तो मुरैना वालों को अपने शहर के कोने-कोने में छपवा के लगवा लेना चाहिये। मोर इस्तीफ़ा लिये घूम रहा है कोई लेने वाला नहीं मिल रहा है। जय हो। :)
जवाब देंहटाएंयह समझ नही पाया कि आप मोर के बहाने किसे लपेटने की कोशिश मे है । लेख बहुत सुन्दर लिखा है अभार ।
जवाब देंहटाएं