कहते हैं दूर के ढोल सुहावने लगते हैं । हम इस कहावत के सत्य होने की गारण्टी नहीं ले सकते । कहा भी गया है कि फैशन के इस युग में गारण्टी की उम्मीद न करें । अब तो वारण्टी भी मुश्किल से मिलती है । वह भी शर्तें लागू करके मिलती है और सामान खराब होने से पूर्व ही या तो किसी न किसी तरह समाप्त हो जाती है या दुकानदार भूल जाता है । अगर किसी भले आदमी को याद भी है तो फिर से सामान मरम्मत करने के बाद वारण्टी की अवधि में जितने दिन बचे हैं उतने दिन की ही वारण्टी मिलती है । मानो सामान हमने किराए पर लिया हो । भई हमारा तो मानना है कि वारण्टी पीरियड में यदि सामान खराब होता है तो मरम्मत के बाद वहीं से फ्रेश वारण्टी चालू होनी चाहिए ।
इसे कहते हैं विषय से भटकना । आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास । बताने आये थे कि किसी चीज के मिलने से पहले और मिलने के बाद उसके प्रति हमारे दृष्टिकोण में कितना फ़र्क आ जाता है । यही हमने इन्टरनेट के बारे में विचार किया है । पेशे खिदमत हैं दो कविताएं ।
लगवा दो इण्टरनेट पिया
लगवा दो इण्टरनेट पिया !
अब और न टालमटोल करो
बस बहुत हो गया वेट पिया
लगवा दो इण्टरनेट पिया ॥
युग यह ग्लोबलाइजेशन का
तोड़ दायरा अब आँगन का
खोलूँ दुनिया का गेट पिया
लगवा दो इण्टरनेट पिया
अपनी कहूँ, सुनूँ औरों की
जानूँ बातें सब दौरों की
करलूँ सखियों संग चैट पिया
लगवा दो इण्टरनेट पिया
डायल-अप या ब्रॉडबैण्ड हो
नया कि फिर सेकण्ड-हैण्ड हो
या हो जुगाड़ का सेट पिया
लगवा दो इण्टरनेट पिया
तंगी में लेकर कर्ज़ करो
पर पूरा अपना फ़र्ज़ करो
बस अब न करो तुम लेट पिया
लगवा दो इण्टरनेट पिया
अब और न टालमटोल करो
बस बहुत हो गया वेट पिया
लगवा दो इण्टरनेट पिया ॥
कटवा दो इण्टरनेट पिया
कटवा दो इण्टरनेट पिया !
अब सहा न जाता और अधिक
तुम इसको रखो समेट पिया
कटवा दो इण्टरनेट पिया
खोए ऐसे कम्प्यूटर में
भूले बाहर हो या घर में
हो वाकई तुसी ग्रेट पिया
कटवा दो इण्टरनेट पिया
बर्वाद वक्त इस पर न करो
कैलोरी कुछ तो बर्न करो
तुम बनो न मोटू सेठ पिया
कटवा दो इन्टरनेट पिया
तुम समय न देते मुझको तो
कुछ ध्यान बालकों पर तो दो
हुई शिक्षा मटियामेट पिया
कटवा दो इण्टरनेट पिया
ये चैटिंग- फैटिंग बन्द करो
अब जोशे जवानी मन्द करो
तुम अब न तलाशो डेट पिया
कटवा दो इण्टरनेट पिया
अब सहा न जाता और अधिक
तुम इसको रखो समेट पिया
कटवा दो इण्टरनेट पिया
संभव है कि इस ब्लॉग पर लिखी बातें मेरी विचारधारा का प्रतिनिधित्व न करती हों । यहाँ लिखी बातें विभिन्न दृष्टिकोणों से सोचने का परिणाम हैं । कृपया किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न रखें ।
शुक्रवार, अगस्त 20, 2010
गुरुवार, अगस्त 19, 2010
अनाज सड़ने में यमराज का हाथ
जब धरती पर अनाज सड़ गया तो बड़ा हंगामा हुआ । सरकार की खूब लानत मलानत हुई । अधिकारियों पर गाजें गिरीं । इससे कुछ अधिकारियों के सिर से खून बहने लगा । उन्हें तत्काल अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में दाखिल कराया गया । बाकी अधिकारीगण जो अनुभवी थे उन्होंने गाज का सामना हेल्मेट पहनकर किया । इससे कुछ गाजें टूटकर इधर-उधर बिखर गईं । उन्हें अन्य फालतू चीजों की तरह ही चपरासी उठा ले गया, शायद घर पर कुछ काम आ जायें । मीडिया की बाँछें खिल गईं पर उसने उन्हें उसी प्रकार छिपाए रखा जिस प्रकार संजीव कुमार शोले फिल्म के ठाकुर का रोल करते समय अपनी बाहों को छिपा लिया करते थे ।
अनाज सड़ने की जाँच होनी थी तो हुई भी । एक सदस्यीय जाँच आयोग को पहले खड़ा किया गया गया फिर जाँच करने के लिए बिठा दिया गया । जाँच आयोग के अध्यक्ष ने जब बैठने और खड़े होने की स्वतंत्रता माँगी तो उन्हें दे दी गयी लेकिन शर्त रखी गयी कि जाँच रिपोर्ट तीन महीने से पहले नहीं आनी चाहिए ।
जब जाँच आयोग अनाज सड़ने के कारणों का पता वैज्ञानिक विधियों से न लगा सका तो उसे अपनी इज़्ज़त पर आँच आती हुई दिखाई देने लगी । उसने कोशिश की कि इस तरह के पुराने केसों की कोई रिपोर्ट मिल जाए तो कॉपी-पेस्ट मार दिया जाय । लेकिन सभी कोशिशें बेकार गयीं क्योंकि मीडिया लगातार पीछे लगा हुआ था और बैठने-खड़े होने की आजादी का भी हनन करने के प्रयास में लगा था । ऐसे में भला जाँच रिपोर्ट बने तो कैसे ? हालत यह हो गई कि जाँच रिपोर्ट लिखने के लिए स्टेशनरी की जिस दुकान पर भी एक हज़ार पन्नों की नोटबुक माँगी गयी वहीं मीडिया का एक संवाददाता पहिले से ही लाइव खड़ा हुआ मिला । मानो धरती पर आम आदमी कोई रहता ही न हो । सब संवाददाता हो गए हों ।
असहाय जाँच आयोग एक बाबा के पास चला गया । यहाँ मीडिया को अन्दर जाने की मनाही थी । बाबा को जब मामले की जानकारी दी गई तो सहर्ष ही मदद को तैयार हो गए ।
अन्त में जब जाँच रिपोर्ट आयी तो इतनी सी थी ।
आयोग ने धरती पर अनाज सड़ने के हर संभव कारण की तलाश की लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद वह नहीं मिला । लिहाजा आयोग ने स्वर्ग में जाकर जाँच करने का फैसला किया । स्वर्ग में जब अनाज का नाम लिया गया तो इसे नर्क का मामला बताकर मामला नर्क में ट्रांसफ़र कर दिया गया । पहले तो नर्क के आधिकारियों ने इस मामले पर बात करने से ही इनकार कर दिया लेकिन यमराज के एक भैंसे ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि, "नर्क में आने वाली आत्माओं की संख्या में आशातीत वृद्धि होने के कारण सबको दण्ड देना यहाँ संभव नहीं रह गया था । नरकवासियों को उचित ट्रीटमेंट न मिलने के कारण स्वर्ग और नर्क का फ़र्क लगभग खत्म हो चला था । अपने दुख से दुखी न होकर दूसरे के सुख से दुखी होने वाली कहावत तो आपने सुनी ही होगी । यही स्वर्ग में रहने वाली आत्माओं के साथ हुआ । जब उन्होंने नर्कवासियों को कोई भी प्रताड़ना आदि न मिलने की बात पता चली तो सबने हस्ताक्षर अभियान चलाकर ऊपर भगवान विष्णु से शिकायत कर दी । सुना है यमराज को भगवान विष्णु ने अपने ऑफिस में बुलाकर खूब हड़काया था । और नर्क में इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास करने पर जोर देने की नसीहत भी दी, अन्यथा पद से त्याग-पत्र देने को कहा । उसी दिन यमराज ने सौ सौ कोड़े सभी आत्माओं को गुस्से में फटकार दिए थे , इससे सबको अंदेशा हो गया था कि अवश्य ही यमराज कोई न कोई कड़ा कदम उठाएंगे । हुआ भी वही । उधर धरती पर आत्माओं को भेजने की संभावना पर विचार हुआ । पर वहाँ भारत में जीवन स्तर में लगातार सुधार होते जाने से नारकीय जीवन जीना अपेक्षाकृत बहुत मुश्किल हो गया है । बाकी देश तो हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं ही । तभी हाल ही में नर्क में आए एक रिश्वतखोर सचिव ने यमराज को सलाह दी कि क्यों न कुछ आत्माओं को अस्थायी तौर पर कीड़े मकोड़े बनाकर भारत भेज दिया जाय ? इससे यहाँ लोड कम हो जाएगा और जाने वालों को सजा भी मिलती रहेगी । यमराज के पूछने पर उसने यह भी बताया कि अनाज के भण्डारगृहों में कीड़े पैदा करने की व्यवस्था हो सकती है ।"
अत: आयोग इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि अनाज सड़ने के मामले में धरती पर रहने वाले किसी प्राणी का कोई हाथ नहीं है । यह पूरी तरह से दैवीय प्रकोप है ।
अनाज सड़ने की जाँच होनी थी तो हुई भी । एक सदस्यीय जाँच आयोग को पहले खड़ा किया गया गया फिर जाँच करने के लिए बिठा दिया गया । जाँच आयोग के अध्यक्ष ने जब बैठने और खड़े होने की स्वतंत्रता माँगी तो उन्हें दे दी गयी लेकिन शर्त रखी गयी कि जाँच रिपोर्ट तीन महीने से पहले नहीं आनी चाहिए ।
जब जाँच आयोग अनाज सड़ने के कारणों का पता वैज्ञानिक विधियों से न लगा सका तो उसे अपनी इज़्ज़त पर आँच आती हुई दिखाई देने लगी । उसने कोशिश की कि इस तरह के पुराने केसों की कोई रिपोर्ट मिल जाए तो कॉपी-पेस्ट मार दिया जाय । लेकिन सभी कोशिशें बेकार गयीं क्योंकि मीडिया लगातार पीछे लगा हुआ था और बैठने-खड़े होने की आजादी का भी हनन करने के प्रयास में लगा था । ऐसे में भला जाँच रिपोर्ट बने तो कैसे ? हालत यह हो गई कि जाँच रिपोर्ट लिखने के लिए स्टेशनरी की जिस दुकान पर भी एक हज़ार पन्नों की नोटबुक माँगी गयी वहीं मीडिया का एक संवाददाता पहिले से ही लाइव खड़ा हुआ मिला । मानो धरती पर आम आदमी कोई रहता ही न हो । सब संवाददाता हो गए हों ।
असहाय जाँच आयोग एक बाबा के पास चला गया । यहाँ मीडिया को अन्दर जाने की मनाही थी । बाबा को जब मामले की जानकारी दी गई तो सहर्ष ही मदद को तैयार हो गए ।
अन्त में जब जाँच रिपोर्ट आयी तो इतनी सी थी ।
आयोग ने धरती पर अनाज सड़ने के हर संभव कारण की तलाश की लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद वह नहीं मिला । लिहाजा आयोग ने स्वर्ग में जाकर जाँच करने का फैसला किया । स्वर्ग में जब अनाज का नाम लिया गया तो इसे नर्क का मामला बताकर मामला नर्क में ट्रांसफ़र कर दिया गया । पहले तो नर्क के आधिकारियों ने इस मामले पर बात करने से ही इनकार कर दिया लेकिन यमराज के एक भैंसे ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि, "नर्क में आने वाली आत्माओं की संख्या में आशातीत वृद्धि होने के कारण सबको दण्ड देना यहाँ संभव नहीं रह गया था । नरकवासियों को उचित ट्रीटमेंट न मिलने के कारण स्वर्ग और नर्क का फ़र्क लगभग खत्म हो चला था । अपने दुख से दुखी न होकर दूसरे के सुख से दुखी होने वाली कहावत तो आपने सुनी ही होगी । यही स्वर्ग में रहने वाली आत्माओं के साथ हुआ । जब उन्होंने नर्कवासियों को कोई भी प्रताड़ना आदि न मिलने की बात पता चली तो सबने हस्ताक्षर अभियान चलाकर ऊपर भगवान विष्णु से शिकायत कर दी । सुना है यमराज को भगवान विष्णु ने अपने ऑफिस में बुलाकर खूब हड़काया था । और नर्क में इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास करने पर जोर देने की नसीहत भी दी, अन्यथा पद से त्याग-पत्र देने को कहा । उसी दिन यमराज ने सौ सौ कोड़े सभी आत्माओं को गुस्से में फटकार दिए थे , इससे सबको अंदेशा हो गया था कि अवश्य ही यमराज कोई न कोई कड़ा कदम उठाएंगे । हुआ भी वही । उधर धरती पर आत्माओं को भेजने की संभावना पर विचार हुआ । पर वहाँ भारत में जीवन स्तर में लगातार सुधार होते जाने से नारकीय जीवन जीना अपेक्षाकृत बहुत मुश्किल हो गया है । बाकी देश तो हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं ही । तभी हाल ही में नर्क में आए एक रिश्वतखोर सचिव ने यमराज को सलाह दी कि क्यों न कुछ आत्माओं को अस्थायी तौर पर कीड़े मकोड़े बनाकर भारत भेज दिया जाय ? इससे यहाँ लोड कम हो जाएगा और जाने वालों को सजा भी मिलती रहेगी । यमराज के पूछने पर उसने यह भी बताया कि अनाज के भण्डारगृहों में कीड़े पैदा करने की व्यवस्था हो सकती है ।"
अत: आयोग इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि अनाज सड़ने के मामले में धरती पर रहने वाले किसी प्राणी का कोई हाथ नहीं है । यह पूरी तरह से दैवीय प्रकोप है ।
बुधवार, अगस्त 18, 2010
रनदीप को धन्यवाद भी तो बोलो
पिछले एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय मैच में सहवाग का शतक न हो सका । अच्छा नहीं लगा । जब भारत को जीतने के लिए एक रन की आवश्यकता थी तो सहवाग को भी अपना शतक पूरा करने के लिए एक रन ही चाहिए था । दोनों टीमों का स्कोर बराबर हो चुका था । श्रीलंकाई गेंदबाज सूरज रनदीप ने दो बॉल फेंकीं भी लेकिन सहवाग एक रन न ले सके ।
तभी एक खुराफाती आइडिया रनदीप को आया या फिर उन्हें बताया गया कि सहवाग का शतक रोका जा सकता है । यह भावना कोई नई नहीं है । ईर्ष्या मनुष्य का स्वभाव ही है । यहाँ जब अपने ही देश के साथी खिलाड़ी एक दूसरे को शतक या दोहरा शतक बनाते नहीं देखना चाहते तो विरोधी टीम के खिलाड़ियों की तो बात ही क्या ?
सचिन जब एक बार टेस्ट मैच में 194 पर थे तो तत्कालीन कप्तान ने पारी समाप्ति की घोषणा कर दी थी । सचिन जब पहली बार एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय मैच में 180 रन के ऊपर पहुँचे थे तो भी उन्हें पर्याप्त बॉल खेलने को न मिल सकीं । गांगुली भी जब 180 के पार पहुँचे तो साथी खिलाड़ी ने पर्याप्त सहयोग नहीं किया था । ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है ।
लेकिन यहाँ मुद्दा सहवाग के शतक से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए । रनदीप ने जानबूझकर नोबॉल फेंककर सहवाग के खिलाफ भले कोई अपराध नहीं किया हो परन्तु उन्होंने श्रीलंका के समर्थकों के खिलाफ अपराध किया है । उन्होंने क्रिकेट के खिलाफ अपराध अवश्य किया है । अन्तर्राष्ट्रीय मैच में खिलाड़ी से अपेक्षा की जाती है कि वह अन्तिम क्षण तक हार नहीं मानेगा और जीतने की कोशिश करता रहेगा । इस अपेक्षा के खिलाफ रनदीप ने अपराध किया है । एक तरह से उनका यह कृत्य मैच-फिक्सिंग की श्रेणी में आता है ।
इसलिए यदि उनके ऊपर जानबूझकर नोबॉल करने का मामला बनता है तो रनदीप को सजा अवश्य मिलनी चाहिए । जानबूझकर नोबॉल फेंकना अपराध है चाहे वह पारी की पहली बॉल ही क्यों न हो ।
रनदीप ने सहवाग से माफी माँगकर अपना काम कर दिया है । क्योंकि उसने सहवाग का शतक नहीं होने दिया । पर भारतीय टीम को भी रनदीप का धन्यवाद करना चाहिए कि उन्होंने हमें जानबूझकर जिताया ।
तभी एक खुराफाती आइडिया रनदीप को आया या फिर उन्हें बताया गया कि सहवाग का शतक रोका जा सकता है । यह भावना कोई नई नहीं है । ईर्ष्या मनुष्य का स्वभाव ही है । यहाँ जब अपने ही देश के साथी खिलाड़ी एक दूसरे को शतक या दोहरा शतक बनाते नहीं देखना चाहते तो विरोधी टीम के खिलाड़ियों की तो बात ही क्या ?
सचिन जब एक बार टेस्ट मैच में 194 पर थे तो तत्कालीन कप्तान ने पारी समाप्ति की घोषणा कर दी थी । सचिन जब पहली बार एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय मैच में 180 रन के ऊपर पहुँचे थे तो भी उन्हें पर्याप्त बॉल खेलने को न मिल सकीं । गांगुली भी जब 180 के पार पहुँचे तो साथी खिलाड़ी ने पर्याप्त सहयोग नहीं किया था । ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है ।
लेकिन यहाँ मुद्दा सहवाग के शतक से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए । रनदीप ने जानबूझकर नोबॉल फेंककर सहवाग के खिलाफ भले कोई अपराध नहीं किया हो परन्तु उन्होंने श्रीलंका के समर्थकों के खिलाफ अपराध किया है । उन्होंने क्रिकेट के खिलाफ अपराध अवश्य किया है । अन्तर्राष्ट्रीय मैच में खिलाड़ी से अपेक्षा की जाती है कि वह अन्तिम क्षण तक हार नहीं मानेगा और जीतने की कोशिश करता रहेगा । इस अपेक्षा के खिलाफ रनदीप ने अपराध किया है । एक तरह से उनका यह कृत्य मैच-फिक्सिंग की श्रेणी में आता है ।
इसलिए यदि उनके ऊपर जानबूझकर नोबॉल करने का मामला बनता है तो रनदीप को सजा अवश्य मिलनी चाहिए । जानबूझकर नोबॉल फेंकना अपराध है चाहे वह पारी की पहली बॉल ही क्यों न हो ।
रनदीप ने सहवाग से माफी माँगकर अपना काम कर दिया है । क्योंकि उसने सहवाग का शतक नहीं होने दिया । पर भारतीय टीम को भी रनदीप का धन्यवाद करना चाहिए कि उन्होंने हमें जानबूझकर जिताया ।
बुधवार, अगस्त 04, 2010
तुम्हारी बात में दम तो है
ईश्वर का आविष्कार कब और किसने किया यह तो ठीक ठीक ज्ञात नहीं हो सका है पर इतना अवश्य देखने में आता है कि यह आविष्कार मानव के लिए किसी भी अन्य आविष्कार से उपयोगी सिद्ध हुआ है । एक तरह से यह मनुष्य के लिए वरदान है । ज्ञात इतिहास में तो खैर किसी न किसी रूप में ईश्वर का जिक्र मिल ही जाता है पर प्रागैतिहासिक काल में जब ईश्वर का आविष्कार नहीं हुआ होगा तब लोग अपने किसी प्रियजन की मृत्यु पर किसे दोषी ठहराते होंगे ? अनसुलझे रहस्यों का बोझ किसके सिर डालते होंगे ? क्या उस जमाने में लोग ज्यादा टेंशन लेते होंगे ? अगर ऐसा होता तो आज भी मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों को आदमी से ज्यादा टेंशन में रहना चाहिए । पर ऐसा दिखता तो है नहीं । तो क्या ईश्वर का आविष्कार निष्फल गया ? या अन्य प्राणियों ने हमारे ईश्वर से भी अच्छे किसी ईश्वर के बारे में जान लिया है ?
जो भी हो, यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे में कोई भी कुछ भी धारणा बना सकता है । कोई कह देता है कि मैं ही ईश्वर हूँ । कोई कहता है कि मैं ईश्वर का पुत्र हूँ या कोई कहता है कि मैं ईश्वर का दूत हूँ । जिस ईश्वर का अभी तक पक्के तौर पर पता ही नहीं है उसकी निन्दा के अपराध में न जाने कितने व्यक्तियों को मौत की सजा अब तक मिल चुकी होगी । उस ईश्वर के नाम पर शपथ लेकर लोग देश पर राज किये जा रहे हैं । लूट भी रहे हैं देश को । यह ऐसा विषय है जिस पर बहुत सारे नए नए तरीकों से सोचा गया लेकिन मूल धारणा वही रही है । भक्ति आंदोलन, धर्मयुद्ध और भी न जाने क्या क्या होता जा रहा है ।
इसी तरह जब आज सुबह का अखबार देखा तो पत्नी ने उसमें २२ युवाओं के मरने की खबर पढ़ी जो गंगोत्री काँवड़ लेने गए थे । यह समाचार पढ़कर उसका प्रश्न था कि यदि भगवान है तो वह इस तरह के हादसों को रोकता क्यों नहीं है ? पहले तो मुझे उसे भगवान के होने पर संदेह करते हुए बड़ा आश्चर्य हुआ । वह जो हमारे मुख से भगवान के प्रति कोई संदेहास्पद बयान सुनते ही नाराज हो जाती है कैसे स्वयं उस पर संदेह कर रही है । फिर हमने भी मौका देखकर अपनी थियोरी सुना दी उसे : " हो सकता है कि मरने के बाद कोई बहुत अच्छी स्थिति होती हो । वहाँ जाकर व्यक्ति महसूस करता हो कि "अरे ! मैं कहाँ वहाँ फालतू के चक्कर में पड़ा था ? पहले क्यों नहीं मरा मैं ?" हो सकता है जीव को मरने से बचने का प्रयास करते देखकर ईश्वर को हँसी आ जाती हो कि देखो कैसा मूर्ख है ? इसको पता ही नहीं कि मरने के बाद कितना आनंद है ।"
यह सुनकर पत्नी का प्रश्न था कि फिर ईश्वर जीव को बता क्यों नहीं देते कि मरने से न डरो । मरने के बाद तो बहुत आनंद है ।
हमने समझाया कि यदि ऐसा हो जाय तो हो सकता है सभी मरने के लिए दौड़ पड़ें और सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाय । हो सकता है कि ईश्वर ने हमें इस शरीर में किसी अपराध में कैद करके रखा हो कि तुम्हें इतने साल की कैद है ।
पत्नी ने कहा, " तुम्हारी बात में दम तो है ।"
जो भी हो, यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे में कोई भी कुछ भी धारणा बना सकता है । कोई कह देता है कि मैं ही ईश्वर हूँ । कोई कहता है कि मैं ईश्वर का पुत्र हूँ या कोई कहता है कि मैं ईश्वर का दूत हूँ । जिस ईश्वर का अभी तक पक्के तौर पर पता ही नहीं है उसकी निन्दा के अपराध में न जाने कितने व्यक्तियों को मौत की सजा अब तक मिल चुकी होगी । उस ईश्वर के नाम पर शपथ लेकर लोग देश पर राज किये जा रहे हैं । लूट भी रहे हैं देश को । यह ऐसा विषय है जिस पर बहुत सारे नए नए तरीकों से सोचा गया लेकिन मूल धारणा वही रही है । भक्ति आंदोलन, धर्मयुद्ध और भी न जाने क्या क्या होता जा रहा है ।
इसी तरह जब आज सुबह का अखबार देखा तो पत्नी ने उसमें २२ युवाओं के मरने की खबर पढ़ी जो गंगोत्री काँवड़ लेने गए थे । यह समाचार पढ़कर उसका प्रश्न था कि यदि भगवान है तो वह इस तरह के हादसों को रोकता क्यों नहीं है ? पहले तो मुझे उसे भगवान के होने पर संदेह करते हुए बड़ा आश्चर्य हुआ । वह जो हमारे मुख से भगवान के प्रति कोई संदेहास्पद बयान सुनते ही नाराज हो जाती है कैसे स्वयं उस पर संदेह कर रही है । फिर हमने भी मौका देखकर अपनी थियोरी सुना दी उसे : " हो सकता है कि मरने के बाद कोई बहुत अच्छी स्थिति होती हो । वहाँ जाकर व्यक्ति महसूस करता हो कि "अरे ! मैं कहाँ वहाँ फालतू के चक्कर में पड़ा था ? पहले क्यों नहीं मरा मैं ?" हो सकता है जीव को मरने से बचने का प्रयास करते देखकर ईश्वर को हँसी आ जाती हो कि देखो कैसा मूर्ख है ? इसको पता ही नहीं कि मरने के बाद कितना आनंद है ।"
यह सुनकर पत्नी का प्रश्न था कि फिर ईश्वर जीव को बता क्यों नहीं देते कि मरने से न डरो । मरने के बाद तो बहुत आनंद है ।
हमने समझाया कि यदि ऐसा हो जाय तो हो सकता है सभी मरने के लिए दौड़ पड़ें और सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाय । हो सकता है कि ईश्वर ने हमें इस शरीर में किसी अपराध में कैद करके रखा हो कि तुम्हें इतने साल की कैद है ।
पत्नी ने कहा, " तुम्हारी बात में दम तो है ।"
रविवार, अगस्त 01, 2010
घोटालों का स्वर्ण-पदक
कॉमनवेल्थ गेम दिल्ली में हों या कलकत्ता में ।
खबरें अमरउजाला में पढ़ लें या जनसत्ता में ॥
भारत की अनेकता में एकता जरूर दिखेगी ।
लाख रोक लो किन्तु ब्लैक में टिकिट अवश्य बिकेगी ॥
चाहे लाख कोशिशें कर लें हमसे जलने वाले ।
चाहे तो सरकार स्वयं अपनी ताकत अजमा ले ॥
चाहे अपने सभी खिलाड़ी बिना पदक रह जाएं ।
चाहें तो मेहमान खिलाड़ी सब मेडल ले जाएं ॥
लेकिन अपने फैनगणों को हम न निराश करेंगे ।
घोटालों का स्वर्ण-पदक हम निश्चित ही जीतेंगे ॥
खबरें अमरउजाला में पढ़ लें या जनसत्ता में ॥
भारत की अनेकता में एकता जरूर दिखेगी ।
लाख रोक लो किन्तु ब्लैक में टिकिट अवश्य बिकेगी ॥
चाहे लाख कोशिशें कर लें हमसे जलने वाले ।
चाहे तो सरकार स्वयं अपनी ताकत अजमा ले ॥
चाहे अपने सभी खिलाड़ी बिना पदक रह जाएं ।
चाहें तो मेहमान खिलाड़ी सब मेडल ले जाएं ॥
लेकिन अपने फैनगणों को हम न निराश करेंगे ।
घोटालों का स्वर्ण-पदक हम निश्चित ही जीतेंगे ॥
बुधवार, जुलाई 21, 2010
1088 नाबाद (रेल के खेल का स्कोरकार्ड)
जार्ज फर्नाण्डीज और सी.के. जाफर शरीफ : 532 में 221 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 1 साल)
सी.के. जाफर शरीफ : 2189 में 530 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 4 साल)
नरसिंह राव : 398 में 427 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 1 साल)
रामविलास पासवान : 773 में 292 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 2 साल)
नीतीश कुमार : 1090 में 424 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 3 साल)
लालू प्रसाद यादव : 1034 में 934 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 5 साल)
ममता बनर्जी : 1495+ में 1088 मारकर नाबाद ( क्रीज पर टिके हुए 4 साल से ज्यादा हो गए )
सी.के. जाफर शरीफ : 2189 में 530 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 4 साल)
नरसिंह राव : 398 में 427 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 1 साल)
रामविलास पासवान : 773 में 292 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 2 साल)
नीतीश कुमार : 1090 में 424 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 3 साल)
लालू प्रसाद यादव : 1034 में 934 मारकर आउट ( क्रीज पर रहे 5 साल)
ममता बनर्जी : 1495+ में 1088 मारकर नाबाद ( क्रीज पर टिके हुए 4 साल से ज्यादा हो गए )
मंगलवार, जुलाई 13, 2010
किसी को ताव आया, किसी को मानसून भाया
पिछ्ली पोस्ट में हमने आपको बताया था कि एक और अंग्रेजी कविता लिखने का प्रयास जारी था । वह कविता आखिर हमने लिख ही डाली है । बच्चे को रटने हेतु लिखकर देदी गयी है । आपको भी एक प्रति उपलब्ध करायी जा रही है ।
पिछली पोस्ट पर अंग्रेजी कविता पढ़कर श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी को ताव आ गया था । लिहाजा उन्होंने कविता का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर दिया, वह ऐसा जिसे पढ़कर हम उनके भक्त हो गए हैं ।
वास्तव में अंग्रेजी पोस्ट ठेलते समय हमारे मन में थोड़ी झिझक अवश्य थी और हमने भी उसका हिन्दी अनुवाद छापने का मन बनाया था । लेकिन कविता का कविता में ही अनुवाद करना वह भी बिना मूलभाव को बदले हमसे न हो सका ।
वह तो भला हो त्रिपाठी जी के ताव का जो उनसे ऐसी सुन्दर कविता लिखवा डाली । वैसे हमें विश्वास नहीं होता कि अंग्रेजी कविता पढ़कर किसी को ताव(बुखार) आ सकता है और उसके कारण आदमी अनुवाद करने लग जाता है । अवश्य ही ताव आने का कारण रात को देर तक जागना रहा होगा जिसके त्रिपाठी जी अभ्यस्त नहीं हैं ।
पर इस सबसे आपको क्या आप तो कविता पढ़िये । लेकिन पहले पिछली पोस्ट पर ठेली गयी अंग्रेजी कविता का त्रिपाठी जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है :
गलती मेरी नहीं है काफी
प्रभुजी दे दो फिर भी माफी
मैं गरीब तू बड़ा महान
भाग्यविधाता लूँ मैं मान
पर इतना तुम रखना ध्यान
नर, नाहर, बिल्ली और श्वान
सबको रखता एक समान
मौन प्रहार करे भगवान
जिसने परपीड़ा पहुँचाई
वह अभिशप्त रहेगा भाई
निर्बल को मारन है पाप
दुनिया कहती सुन लो आप
सुन उपदेश शिकारी भड़का
ले बन्दूक जोर से कड़का
धाँय-धाँय... पर नहीं तड़पना
शुक्र खुदा का यह था सपना
अब अंग्रेजी की दूसरी कविता :
We were waiting for monsoon,
asking,"Is it late or soon ?"
In temples, farmers worshipped.
Finally it arrived.
Then the rainy season came.
Sun played a hide and seek game.
clouds called the wind to help.
Sun too surrendered himself.
It began a heavy rain,
that stopped the bus and train.
All around water filled.
Elders worried, children thrilled.
शायद फिर किसी को ताव आ जाए तो एक और कविता मिले हिन्दी को ।
पिछली पोस्ट पर अंग्रेजी कविता पढ़कर श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी को ताव आ गया था । लिहाजा उन्होंने कविता का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर दिया, वह ऐसा जिसे पढ़कर हम उनके भक्त हो गए हैं ।
वास्तव में अंग्रेजी पोस्ट ठेलते समय हमारे मन में थोड़ी झिझक अवश्य थी और हमने भी उसका हिन्दी अनुवाद छापने का मन बनाया था । लेकिन कविता का कविता में ही अनुवाद करना वह भी बिना मूलभाव को बदले हमसे न हो सका ।
वह तो भला हो त्रिपाठी जी के ताव का जो उनसे ऐसी सुन्दर कविता लिखवा डाली । वैसे हमें विश्वास नहीं होता कि अंग्रेजी कविता पढ़कर किसी को ताव(बुखार) आ सकता है और उसके कारण आदमी अनुवाद करने लग जाता है । अवश्य ही ताव आने का कारण रात को देर तक जागना रहा होगा जिसके त्रिपाठी जी अभ्यस्त नहीं हैं ।
पर इस सबसे आपको क्या आप तो कविता पढ़िये । लेकिन पहले पिछली पोस्ट पर ठेली गयी अंग्रेजी कविता का त्रिपाठी जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है :
गलती मेरी नहीं है काफी
प्रभुजी दे दो फिर भी माफी
मैं गरीब तू बड़ा महान
भाग्यविधाता लूँ मैं मान
पर इतना तुम रखना ध्यान
नर, नाहर, बिल्ली और श्वान
सबको रखता एक समान
मौन प्रहार करे भगवान
जिसने परपीड़ा पहुँचाई
वह अभिशप्त रहेगा भाई
निर्बल को मारन है पाप
दुनिया कहती सुन लो आप
सुन उपदेश शिकारी भड़का
ले बन्दूक जोर से कड़का
धाँय-धाँय... पर नहीं तड़पना
शुक्र खुदा का यह था सपना
अब अंग्रेजी की दूसरी कविता :
We were waiting for monsoon,
asking,"Is it late or soon ?"
In temples, farmers worshipped.
Finally it arrived.
Then the rainy season came.
Sun played a hide and seek game.
clouds called the wind to help.
Sun too surrendered himself.
It began a heavy rain,
that stopped the bus and train.
All around water filled.
Elders worried, children thrilled.
शायद फिर किसी को ताव आ जाए तो एक और कविता मिले हिन्दी को ।
रविवार, जुलाई 11, 2010
Tiger's Nightmare
प्रस्तुत कविता बच्चे के स्कूल के लिए लिखी गई थी, ताकि वह इसे मंच पर सुना सके । लेकिन लिखने के बाद लगा कि कुछ गम्भीर हो गई । इसलिए स्कूल के लिए दूसरी कविता लिखने का प्रयास जारी है । इसे ब्लॉग पर डाल दिया है । पड़ी रहेगी । क्या पता कोई पढ़ ही ले ।

“Though I have done no mistake,
Excuse me for God’s sake.
I am poor, you are great.
You are master of my fate.
But remember always that,
human, lion, dog or cat,
all creatures are same for God.
No sound is, in his rod.
He, who will afflict others,
will be facing horrid curse.
Killing weak is not correct.
This is universal fact.”
Listening this the hunter said,
“Don’t teach me good and bad.”
Gun fire ! but no scream ?
Thank God it was a dream !
“Though I have done no mistake,
Excuse me for God’s sake.
I am poor, you are great.
You are master of my fate.
But remember always that,
human, lion, dog or cat,
all creatures are same for God.
No sound is, in his rod.
He, who will afflict others,
will be facing horrid curse.
Killing weak is not correct.
This is universal fact.”
Listening this the hunter said,
“Don’t teach me good and bad.”
Gun fire ! but no scream ?
Thank God it was a dream !
बुधवार, जून 23, 2010
समथिंग डिफ़रेण्ट करो जी
लाइफ में रखिए सदा, पॉज़ीटिव ऐप्रोच ।
ओल्ड थॉट्स को बेचकर, ब्रिंग होम न्यू सोच ॥
ब्रिंग होम न्यू सोच, ज़माना नया आ गया ।
अखिल वर्ल्ड स्टोरी में, न्यू ट्विस्ट आ गया ॥
विवेक सिंह यों कहें, ओल्ड को अलग धरो जी ।
दिल कहता है, अब समथिंग डिफ़रेण्ट करो जी ॥
शनिवार, मई 15, 2010
बचपन करे कठिन मजदूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
हमने करी तरक्की काफी
लेकिन अभी अधूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
नंगे पैर घूमता दिनभर
पालीथिन भी उठा उठाकर
हों न जरूरत पूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
रातों में देर तक जागता
प्लेटफार्म पर बोल भागता
"लो पेठा अंगूरी"
बचपन करे कठिन मजदूरी
रोज चाय के गिलास धोता
पिटने पर भी कभी न रोता
पिटाई लगने लगी जरूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
पीने में बस पानी पीता
रूखी-सूखी खाकर जीता
रोटियां भी न मिलें तंदूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
चाचा नेहरू ? नहीं जानता
बाल-दिवस को नहीं मानता
न जाने शिमला, मंसूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
पता नहीं कब बडा हो गया
मिला न उसको कभी कुछ नया
कुछ न कुछ सदा रही मजबूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
हमने करी तरक्की काफी
लेकिन अभी अधूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
हमने करी तरक्की काफी
लेकिन अभी अधूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
नंगे पैर घूमता दिनभर
पालीथिन भी उठा उठाकर
हों न जरूरत पूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
रातों में देर तक जागता
प्लेटफार्म पर बोल भागता
"लो पेठा अंगूरी"
बचपन करे कठिन मजदूरी
रोज चाय के गिलास धोता
पिटने पर भी कभी न रोता
पिटाई लगने लगी जरूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
पीने में बस पानी पीता
रूखी-सूखी खाकर जीता
रोटियां भी न मिलें तंदूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
चाचा नेहरू ? नहीं जानता
बाल-दिवस को नहीं मानता
न जाने शिमला, मंसूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
पता नहीं कब बडा हो गया
मिला न उसको कभी कुछ नया
कुछ न कुछ सदा रही मजबूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
हमने करी तरक्की काफी
लेकिन अभी अधूरी
बचपन करे कठिन मजदूरी
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