रविवार, जून 28, 2009

गरमी की सरकार निरंकुश

गरमी की सरकार निरंकुश, कोई रोक न टोक यहाँ । 
यदा कदा जो रहें बरसते, हैं विपक्ष वे मेघ कहाँ ॥

सूर्य धूप तो देते हैं, पर अब उनमें मृदुभाव नहीं ।
जब सरकार बन गई तो जनता से रहा लगाव नहीं ।।

यूँ सरकार प्रमुख का पद तो, गर्म हवा ने पाया है । 
लेकिन इसकी गरमी तो बस, तेज धूप की माया है ॥

पंखों ने तो इसे समर्थन, बिना शर्त ही दे डाला । 
कूलर सिर्फ़ नाम के कूलर, उर में बसती है ज्वाला ॥

एसी सदा ध्यान रखते हैं, बस अपने ही लोगों का । 
ये गैरों की ओर बढ़ाते, बन्द लिफ़ाफ़ा रोगों का ॥

जो साधन सम्पन्न लोग बस, उनसे ही यारी इनकी । 
उन्हें कदापि न पहचानेंगे, खाली जेब पड़ी जिनकी ॥

कुएं विधायक भूतपूर्व, ज्यों राजनीति हों छोड़ चुके ।
इनका फैशन पड़ा पुराना, मतदाता मुंह मोड़ चुके ।।

एक समय था जब न, ढूँढ़ने से मिलता नल सा दानी ।
गला स्वयं का सूख रहा अब, हमको कैसे दे पानी ।।

दल-बदलू वे पेड़ जिन्होंने, गिरा दिए पत्ते अपने ।
कड़ी धूप में घनी छाँव के, पूरे हो न सके सपने ।।

धूल असामाजिक है पर, पा मौन समर्थन सरकारी । 
सबकी शुचिता भंग करे, हो निडर फ़िरे अत्याचारी ॥

भले लोग बस आँख बन्दकर, इसे सहन कर लेते हैं । 
जैसे नाविक तूफ़ानों में, नौका अपनी खेते हैं ॥

बूढ़े बच्चों को समझाते, " दुनिया आनी जानी है । 
जो उठता वह गिरता भी है, सबकी यही कहानी है ॥

धीरज से लो काम हाल यह, सदा नहीं रह पायेगा । 

कट-कट दाँत बजेंगे ऐसा शीत भयंकर आयेगा ॥ "

शनिवार, जून 27, 2009

मेरे हाथों मर जाओगे


मेरी तुमसे न थी शत्रुता, फ़िर भी तुमने वार किया ।
मेरे ही घर आकर तुमने, मुझ पर अत्याचार किया ॥

मैं सोया तुमने शोर किया, मैंने समझा उसको लोरी ।
मैं करता रहा क्षमा तुमको, तुम समझे मेरी कमजोरी ॥

मैं चला अहिंसा के पथ पर, इसलिए न तुमको कष्ट दिया ।
पर तुमने उकसा उकसाकर, आखिर मुझको पथभ्रष्ट किया ॥

तुम रक्त-पिपासा के कारण ही, फ़िदायीन बन पाते हो ।
पर जैविक हमले करके तो, सब हदें पार कर जाते हो ॥

मैंने माना तुम क्षुद्र जीव, तुम तीसमारखाँ बनते हो ।
जितना अनदेखा करता हूँ, तुम और ऐंठकर तनते हो ॥

मुझमें कितनी है शक्ति, तुम्हें शायद इसका अहसास नहीं ।
यदि फ़ूँकूँ तो उड़ जाओगे, छू दूँ तो लोगे साँस नहीं ॥

सारा घर तुमको सौंप दिया, यह जगह चुनी अनजानी सी ।
तुम किन्तु यहां भी आ पहुँचे, यह बात लगी बेमानी सी ॥

मच्छर ! तुम बच न सकोगे अब, मेरे हाथों मर जाओगे ।
पर देकर अपनी जान हाय, हिंसक मुझको कर जाओगे ॥

सूचना : हर्ष का विषय है कि श्री समीर लाल जी 'उडनतश्तरी' वाले स्वप्नलोक पर टिप्पणियों का अर्धशतक ठोकने में कामयाब रहे हैं । उन्हें कम्पनी की ओर से बहुत बहुत बधाइयाँ !

गुरुवार, जून 25, 2009

मेरे प्यारे मानसून



पलक पाँवड़े बिछा रखे थे, इन आँखों में नींद न थी ।
आते आते रुक जाओगे, ऐसी तो उम्मीद न थी ॥

यद्यपि पहली बार नहीं यह, जब तुमने मुँह मोड़ा है ।
मुझे याद है तुमने मेरा पहले भी दिल तोड़ा है ॥
उत्सव की सब तैयारी थी, जबकि दिवाली-ईद न थी ।
आते आते रुक जाओगे, ऐसी तो उम्मीद न थी ॥

यूँ तो पानी मुझमें भी है, यह भी देन तुम्हारी है ।
तुम इतना तो मानो जनता, मेरी नहीं हमारी है ॥
छोड़ा साथ अचानक तुमने, पहले से ताकीद न थी ।
आते-आते रुक जाओगे ऐसी तो उम्मीद न थी ॥

तुम तो कहकर अलग पड़ोगे,"मेरी कोई खता नहीं " ।
कितने लोग रहेंगे भूखे, शायद तुमको पता नहीं ॥
था सम्बन्ध सनातन अपना,बिक्री और खरीद न थी ।
आते-आते रुक जाओगे, ऐसी तो उम्मीद न थी ॥

तुम आते हो और बरसकर खुद को हल्का करते हो ।
अनजाने ही सही, किन्तु मेरी भी पीड़ा हरते हो ॥
मेरे प्यारे मानसून कब, वसुधा तेरी मुरीद न थी ।
आते-आते रुक जाओगे ऐसी तो उम्मीद न थी ॥
पलक पाँवड़े बिछा रखे थे, इन आँखों में नींद न थी ।

शनिवार, जून 13, 2009

स्वप्नलोक में फ़िर स्वागत है !



फ़ेर न पायें जिन्हें पाठ वे,
जल्दी बहुत विसरते हैं .
एक बार फ़िर से बतला दो,
ब्लॉगिंग कैसे करते हैं .
तारतम्य सा टूट गया है,
कोई विषय नहीं मिलता .
कीचड़ है मौजूद अभी भी,
लेकिन कमल नहीं खिलता .
जिस ब्लॉगिंग बिन चैन नहीं था,
उसको छोड़ जिये कैसे ?
परखा स्टेमिना स्वयं ही,
निकल गए इस लत में से .
प्रथम सूत्र यह फ़ुरसतिया का,
पालन हुआ सफ़लता से .
कार्य कठिन था फ़िर भी हमने,
पूरा किया चपलता से .
निपटाये सब काम जरूरी,
अब फ़िर से फ़ुरसत पाई .
चलो गिरा दें सब दीवारें,
और पाट दें सब खाई .
स्वप्नलोक में फ़िर स्वागत है,
सपने फ़िर से देखेंगे .
शायद अब हम जल्दी जल्दी,
यहाँ हाज़िरी दे देंगे ..

मित्रगण