शनिवार, अक्तूबर 31, 2009

मठाधीश बाबा के आश्रम में

कल रात तबियत कुछ अच्छी महसूस नहीं हो रही थी । मैं जल्दी सो गया । रात को अचानक कॉलबेल बजी तो उठकर दरवाजा खोला । दरवाजे पर चार अजीब से प्राणी खड़े थे । एक ने आदमी की तरह बात करते हुए मुझे हिन्दी में कहा, “ चल भई तुझे ब्लॉग-मठाधीश ने बुलाया है ।” इसके बाद उन्होंने मुझे बोलने तक का मौका नहीं दिया । मुझे बोलने का मौका तभी मिला जब होश आने पर मैंने स्वयं को ब्लॉग-मठाधीश के सामने खड़ा पाया । एक प्राणी बोला बाबा यही वह ब्लॉगर है जिसे आपने याद किया था ।

बाबा एक ऊँचे से आसन पर बैठे हुए मठा पी रहे थे । बगल में ही एक बर्तन रखा था जिसको अभी आखिरी कौर खाकर बाबा ने खाली कर दिया था । बाबा पास खड़े प्राणी से बोले, “ बच्चा माफी दो ।” वह प्राणी भागता हुआ गया और सेकिण्डों में माफी का टोकरा लेकर दौड़ता हुआ आ गया । बर्तन भरा हुआ देखकर बाबा का चेहरा खिल उठा । मैं समझ गया कि बाबा को माफी खाने का शौक है ।

बाबा ने मेरी ओर नज़र उठाकर कहा, “ हमें माफी दो बच्चा जो इतनी रात गये बुलाया ।” मैंने तुरंत बाबा के पास जाकर बर्तन से उठाकर थोड़ी सी माफी बाबा के हाथ पर रख दी । बाबा देखते रह गये । मुँह से इतना ही निकला, “माफ करना, बहुत शातिर हो ।”

फिर बाबा काम की बात पर आये । बोले, “माफ करना, दरअसल हमें शंका हो गयी है ।” मैंने हिम्मत करके पूछा , “ क्या शंका है बाबा ? मुझे आपकी शंका का समाधान करके खुशी होगी ।”

“माफ करना, सही बताओ यह स्वप्नलोक कंपनी का क्या रहस्य है ?”

बाबा, इतनी सी बात को इस तरह बुलाकर पूछा ?”

तभी एक प्राणी बोला, “ ओ सीधे से मुद्दे की बात बता । बाबा मीठा बोलते हैं इसका ये मतलब नहीं है कि बहुत सीधे हैं ।”

मेरे शरीर में झुरझुरी सी हो गयी । बाबा मुस्काराने लगे । बोले, “ माफ करना, बच्चे उद्दण्ड हैं । हाँ तो स्वप्नलोक कंपनी का क्या रहस्य है ? ”

आपको क्या लगता है ?”

माफ करना, हमें लगता है कि इस कंपनी में असल में कई लोग शामिल हैं । एक अच्छा कवि, एक बढ़िया कवि, एक अच्छा व्यंग्यकार, एक बढ़िया व्यंग्यकार, एक अच्छा कार्टूनिस्ट, एक बढ़िया कार्टूनिस्ट आदि आदि कई लोग इस ब्लॉग पर लिखते हैं ।”

बाबा अन्दाज़ा तो आपका ठीक है पर अच्छा और बढ़िया क्या अलग होते हैं ?”

फिर प्राणी को हस्तक्षेप करना पड़ा, “ तुझे अभी तो बताया था कि बाबा मीठा ही बोलते हैं । खराब को अच्छा कहते हैं और बढ़िया तो खैर बढ़िया हईये है । तू सीधा खड़ा रहेगा कि लगाऊँ एक कण्टाप ?”

बाबा ने हाथ से उसे शान्त रहने का इशारा किया और बोले, “ माफ करना, हमारी शंका निर्मूल नहीं थी । हम शर्त जीत गये । दर असल अभी शाम को ही एक नामचीन ब्लॉगर तुम्हारी बहुत तारीफ कर रहे थे । तो हमने अपनी शंका उनके सामने रख दी । शंका भारी थी लिहाज़ा वे लगभग दब से गये और शर्त लगा बैठे । हार गये बेचारे । ”

मैंने पोल खुलने के डर से कातर स्वर में निवेदन किया कि “बाबा यह बात अपने तक ही रखें अन्यथा बड़ी भद्द पिटेगी मेरी ।”

माफ करना, ठीक है पर तुम कंपनी में कवि, कार्टूनिस्ट आदि में से किस पद पर हो ?”

मैं तो बस लेखक हूँ बाबा । सबकी ओर से लिखता भर हूँ ।” कहते हुए मैं शर्म से जमीन में गढ़ा जा रहा था ।

बाबा ने धीरज बँधाया, “माफ करना, डरो मत ब्लॉग-जगत में सिर्फ़ तुम्हीं पर हमें शंका नहीं हुई है । राज और भी हैं जो हम किसी को नहीं बताते । पर तुम्हारा राज जाना है तो तुम्हें बताये देते हैं । दरअसल फुरसतिया, अनूप शुक्ल, अजय कुमार झा, और टिप्पू चाचा एक ही व्यक्ति हैं । समीरलाल एक व्यक्ति नहीं हैं । चेले चपाटे मिलाकर कुल दस लोग हैं जो उड़नतश्तरी नाम से टिपियाते और लिखते हैं । ताऊ जी का मसला तो खैर बच्चा बच्चा जानता है कि ताऊ कोई व्यक्ति नहीं एक टीम है । इस टीम के साथ एक रोचक बात यह है कि इनमें से किसका फोटू लगेगा यह आज भी डिसाइड नहीं हो सका है । और ज्यादा जानना चाहते हो तो सुनो, शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय भी एक ही व्यक्ति हैं ।”

मैं यह सब सुनकर अविश्वास से कहने लगा, “नहीं यह नहीं हो सकता । यह नहीं हो सकता ।”

इतने में पत्नी जी ने मुझे जगाकर पूछा, “ क्या नहीं हो सकता ?

और इस तरह मेरा सपना अधूरा ही रह गया ।

शुक्रवार, अक्तूबर 30, 2009

न जाओ मकर वृत्त की ओर

चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

कर्क वृत्त वाले यूँ ताकत
ताके, जैसे चाँद चकोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

तुम्हें मकर वालों की चिन्ता
किन्तु हमारा हक है छिनता
कोई वहाँ तुम्हें है गिनता ?
वहाँ पर हो जाओगे बोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

वहाँ गये तो पछताओगे
जाकर वहाँ लात खाओगे
वापस लौट यहीं आओगे
मकर वाले हैं अति लतखोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

वहाँ सुरक्षित रह न सकोगे
उस धारा में बह न सकोगे
हाल स्वयं का कह न सकोगे
कष्ट का कोई ओर न छोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

तुम बहकावे में मत आओ
मसला बैठ यहीं सुलझाओ
क्या दिक्कत है हमें बताओ
बड़े हो तुम अब नहीं किशोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर
?

हमसे यूँ मत रूठो संगी
बातें करो न ये बेढंगी
साथ सहेंगे सब सुख-तंगी
हम, इस बगिया के मोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

तेज धूप भी हमने झेली
रहे झुलसते हम सब डेली
फिर भी सदा सीख तुमसे ली
उठाओ मत यह कदम कठोर
न जाओ मकर वृत्त की ओर

कर्क वृत्त वाले यूँ ताकत
ताके, जैसे चाँद चकोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

रविवार, अक्तूबर 25, 2009

अब साधू होने का मन है

हमको नाहक ही बुलवाया
इंतजाम यह रास न आया

दोहरी सभी व्यवस्थाएं थीं
पैसा जाने कहाँ बहाया

उनको दूध-जलेबी हाज़िर
हमें बेड-टी को तरसाया

कैसी कैसी उम्मीदें थीं
उन पर पानी खूब फिराया

वे ठहरे एसी कमरों में
हमें मच्छरों से कटवाया

सीखे-पढ़े सभी मच्छर थे
सारी रात खूब तड़पाया

जिनके पास न डिग्री कोई
संचालक उनको बनवाया

ज्ञान हमारा जगजाहिर है
आम जनों में खुद को पाया

बैठे आप घरों में अपने
आप नहीं समझोगे भाया

जिसके पैर न फटी बिवाई
दर्द पराया समझ न पाया

और भला अब क्या बतलाएं
कहते कहते दिल भर आया

अब साधू होने का मन है
यह ब्लॉगिंग तो है बस माया

इलाहाबाद में चिट्ठाकारों का सम्मेलन हो गया । कुछ लोगों को बुलाया गया कुछ को नहीं बुलाया गया । हम उनमें से हैं जिन्हें नहीं बुलाया गया । अपना दर्द किससे कहें ? ऊपर से जिन्हें बुलाया गया उनमें से एक सज्जन हमसे मौज ले लिये । टिप्पू चाचा की अदालत में अरविंद मिश्र कहते हैं :

"हाँ विवेक की परिकल्पनात्मक टिप्पणी सही है वे आये होते तो उनको भी भाव दिया जाता -खेमा उन्ही का हावी था !क्या करियेगा हिन्दी बेल्ट अपनी इन कमजोरियों से उठ ही नहीं पा रहा !"

यह तो सरासर जले पर नमक छिड़का जा रहा है । हमारा खेमा होता तो हमें बुलावा भी न मिलता ?

शनिवार, अक्तूबर 24, 2009

सबसे पहले मैंने ही

सबसे पहले मैंने ही, चिट्ठे को ‘चिट्ठा’ बोला था
यह रहस्य था गहरा मैंने, इलाहाबाद में खोला था

सुनते ही सब मचल गये थे, तान लिये थे भौहें भी
जैसे मैंने गिरा दिया जो, वह परमाणु गोला था

कुछ लोगों ने इसे मामला, झूठमूठ का बतलाया
लेकिन मैंने भी तो पहना, बुजुर्गियत का चोला था

कानाफूसी बहुत हुई पर, कानों में ही उलझ गयी
कोई खुलकर बोल न पाया, मुँह में कोका-कोला था

कोई हल्की बात कहे, या इसको भारी बतलाये
मैंने अपने इन शब्दों को पहले कभी न तोला था

तीसमारखाँ अच्छे अच्छे, मार न पाये पन्द्रह भी
मैं यह समझा चतुर हो गया, लेकिन ब्लॉगर भोला था

नया शौक नेतागीरी का, बिस्मिल्लाह करने आये
टकले होकर घर से निकले, गिरा चाँद पर ओला था

बीच धार जब लगी डूबने, नैया तो सब चिल्लाये
यह क्या ? हमने तो समझा था कोई उड़नखटोला था

बड़े शौक से पास बुलाया, कितनी इज़्ज़त बख्श दिये
बेचारों को मालुम क्या, मैं फूल नहीं था शोला था

पैर कब्र में लटके तो क्या, जो मिल जाये अच्छा है
नामवरी का काम किया यह, भरा नाम से झोला था

शुक्रवार, अक्तूबर 23, 2009

तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

तलते थेद उती थाली में
दितमें में लथ थाना थाते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

तलते बत अपनी मनमानी
औलों ती बातें बेमानी
बत ये ही तो बते हैं द्यानी
अपनी बात तहे दाते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

विनम्लता ते बैल पुलाना
दो दी में आये तह दाना
इधल लदाना उधल बुदाना
त्वतल्तव्य तलते दाते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

औलों तो इमोतनल तलते
त्वयं उदाती ते भी दलते
अत्तहास ते तान ततलते
बात बात पल मुतताते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

अपना पतधल लोत न पाये
नदल हमाली ओल धुमाये
बतन्त देथा तो ललताये
ये तब त्या अत्थी बातें हैं ?
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

बैथे इलाहाबाद में दातल
बोले थूब दोत में आतल
हुतैन हम ना हुए वहाँ पल
दहाँ बैथ तब बतियाते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं !

सोमवार, अक्तूबर 19, 2009

बन्द कर अब मेरा धीरज जा लिया

मेजर गौतम राजरिशी से प्रभावित होकर आज गज़ल में हाथ आज़माने का मन किया । बस लिख दिया यूँ ही कुछ निरर्थक । पर गज़ल बनी कि नहीं यह तो गज़लगो ही जानें । आप पढ़िए ।

तेरी खुराफातों से आजिज़ आ लिया ।
बन्द कर अब मेरा धीरज जा लिया ॥


कर रहा है धृष्टता पर धृष्टता ।
चैन की वंशी का सुर चुरा लिया ॥

वाहवाही दी बहुत मैंने मगर ।
आज तूने सत्य ही बुलवा लिया ॥

नाम मेरे साथ तूने जोड़कर ।
फालतू में नाम भी कमा लिया ॥

कब भरेगा पेट ओ भूखे तेरा ?
मारकर इज़्ज़त तो मेरी खा लिया ॥

मैं इशारों में नहीं समझा सका ।
कर दिया मजबूर मुँह खुलवा लिया ॥

बन रही थी जब मेरी सरकार तब ।
तू समर्थन उस समय हटा लिया ॥

अब सुधर जा कुछ भलाई भी कमा ।
पाप तो तूने बहुत कमा लिया ॥

अब दुआएं लूटने की फ़िक्र कर ।
खा चुका है अनगिनत तू गालियाँ ॥

लिख रहा था अब तलक तू फ़ालतू ।
अब गज़ल में भी कलम अज़मा लिया ?

रविवार, अक्तूबर 11, 2009

ओबामा को नोबेल पचा नहीं

Nobel

ओबामा को शांति का नोबेल मिलना कुछ लोगों के गले नहीं उतरा । जल्दबाजी में खा तो गये पर निगल नहीं पा रहे । कुछ का गले में तो कुछ का आहारनाल में अटका पड़ा है । कुछ खाऊ टाइप इसे निगल गये पर पचाने में कामयाब नहीं हुए ।

लेकिन ऐसे पचाऊ लोगों की गिनती भी कम नहीं जिन्होंने इसे पचाकर बाहर भी निकाल दिया होगा और अब कुछ और पचाने में लगे होंगे ।

कूड़े से कविता तक

 

दिवाली अभी आयी नहीं लेकिन माहौल बन गया है । घर की साफ-सफाई होने लगी है । अवांछित तत्वों के खिलाफ बिना किसी कानूनी कार्रवाई के ही उन्हें जबरदस्ती घर के बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है । घर में थे तो आनन्द से पड़े हुए थे । न कहीं बारिश में भीगने का डर, न आँधी में उड़ने की चिन्ता । लेकिन अब भविष्य अंधकारमय नज़र आने लगा है ।

घर में थे तो कूड़ा होते हुए भी किसी की मजाल न थी कि कूड़ा कह दे । लेकिन अब जिसे देखिए वही देखते ही नाक-भौं सिकोड़ लेता है । “अपने घर में चाहे हमसे भी बदतर कूड़ा मौजूद हो लेकिन पब्लिकली बड़े सफाई पसंद होने का दिखावा करेंगे ।” कूड़ागण पड़े पड़े सोच रहे हैं ।

कूड़े के सदस्यों में गहन विचार विमर्श जारी है । आगे की संभावनाओं पर विचार हो रहा है । यह जो भी कूड़े के साथ हो रहा है वह बिल्कुल ठीक नहीं हो रहा है इस बात पर आम सहमति है । आखिर मकान मालिक ने कैसे स्वयं डिसीजन ले लिया कि हम अवांछित तत्व हैं । कोई पंचायत नहीं, कोई कोर्ट कचहरी, मुकद्दमा नहीं । बस कह दिया कि बाहर हो लो । कम से कम दो चार दिन का नोटिस तो देना चाहिए था  कि नहीं ? उन दिनों को भूल गए जब हम उन्हें जान से भी ज्यादा प्रिय थे ।

 

एक गत्ते के टुकड़े का दर्द कुछ ज्यादा ही उभर आया । टूटी प्लास्टिक की बाल्टी से रोकर  बोला, “ अम्मा क्यों घावों को कुरेदती हो ? जब में कम्प्यूटर का कवर बनकर पहली बार इस घर में आया था तो मकान मालिक के लड़के ने मुझे छू भर दिया था । इसी बात पर उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया था । अपने ही बेटे की धुनाई एक कागज के टुकड़े के पीछे कर डाली थी । सब समय का फेर है ।”

 

“जानती हूँ ।” बाल्टी बोली । “ मुझे न बताओ । मैं इन लोगों की असलियत को अच्छी तरह जानती हूँ । मैंने कई साल इनके बाथरूम में बिताए हैं । इनकी अन्दर बाहर की सब खबरें मेरे पास हैं । अब तुम्हें क्या बताऊँ । तुम बच्चे ठहरे ।”

 

हीटर का कवर इनकी बातों को सुनसुनकर बोर हो गया । बोला, “ अब आगे की कार्रवाई के बारे में सोचो । बीती बातों को भूल जाओ । क्या किसी तरह कानूनी केस डालकर कुछ दिन का स्टे नहीं मिल सकता ? पर हम गरीबों की सुनेगा कौन ? हाँ यदि किसी खोजी पत्रकार के पास पहुँचा जा सके तो वह हमारे अंदर से भी धाँसू खबर बना सकता है । हो सकता है इस कूड़े में मकान मालिक के काले कारनामों के कुछ सबूत ही हों ।”

 

तभी मकान मालिक वहाँ से गुजरा तो कूड़ागण शान्त हो गए । सहसा उसने एक कागज के टुकड़े को उठा लिया और बोला, “अरे यह तो बहुत पुरानी कविता है । आजकल तो हरियाणा में वैसे भी चुनावी माहौल है क्यों न इस कविता को ब्लॉग पर ठेल दिया जाय ?”

 

उस कागज के टुकड़े पर 20 जून 2000 लिखा था । नीचे यह कविता थी ।

 

नहीं चाहिए मुझको ये अधिकार वोट का

कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

आया चुनाव थर-थर डर से काँपे मेरी सब काया

मेरे दिल के तारों ने गम का संगीत बजाया

बचना, होने लगा गरम बाजार वोट का

 कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

आया जो भी वोट माँगने यही लगाया नारा

कमजोरों को आगे लाना, पहला लक्ष्य हमारा

रखना ध्यान हमारा अबकी बार वोट का

 कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

कहने लगा एक प्रत्याशी ‘कर लो मुझसे वादा

वोट मुझे ही दोगे तुम बदलोगे नहीं इरादा

क्या लोगे करने का, कारोबार वोट का ?’

 कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

और अंत में आये कुछ गुंडे भी मुझे डराने

धमकाकर स्वपक्ष में मेरा भी मतदान कराने

‘विवेक’ मैं खुश नहीं देख व्यवहार वोट का

कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

शनिवार, अक्तूबर 10, 2009

बिका हुआ माल वापस न होगा

Badhaee

कृपया माल की डिलीवरी लेते समय जाँच परख लें । बाद में बिका हुआ माल वापस न होगा ।

नगद बड़े शौक से, उधार अगले चौक से ।  – पाबला किराना स्टोर

शुक्रवार, अक्तूबर 09, 2009

अमर उजाला में स्वप्नलोक

Swapnlok

स्वप्नलोक के प्रशंसकों को जानकर हर्ष होगा कि कंपनी के ब्लॉग को 6 अक्टूबर, 2009 के अमर उजाला अखबार में ब्लॉग-कोना में जगह दी गयी है । सोचा इस कटिंग को इतिहास में दर्ज कर ही दिया जाय जिससे हमारे पोते परपोते कभी कह सकें कि, “हमारे पूर्वज इतना अच्छा लिखते थे कि अखबार वाले भी उसे छापते थे ।

इस अवसर पर कंपनी अपने प्रशंसकों का तहे दिल से आभार प्रकट करती है । यह आपका प्यार ही है कि लाख प्रयासों के बावजूद हम अपनी ब्लॉग लिखने की लत से निजात पाने में अब तक असफल रहे हैं । आगे की अल्ला जाने ।

गुरुवार, अक्तूबर 08, 2009

ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?


ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?


मुझे न मरने में आपत्ति
मित्र तुम्हारे हाथ
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

उड़ी सदा ही मुझे देखकर
जिन आँखों की नींद
मेरी कीर्ति-पताका ने जो
हृदय, दिये थे बींध
नहीं हुआ आश्यर्य, यही थी
उनसे तो उम्मीद
किन्तु तुम भी करते आघात ?
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

तुम्हें शिकायत थी, तो कहते
मुझसे मेरे मीत
हम दोनों ने मिलकर गाये
सदा प्रेम के गीत
तो क्या सब था झूठ ? झूठ थी
तेरे मेरी प्रीत ?
छिपायी तुमने दिल की बात ?
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

लिये तुम्हारे ही दम पर तो
मैंने इतने पंगे
मैं अवश्य षडयन्त्रकारियों
को, कर देता नंगे
लेकिन तुमको लगे हमारे
भले कार्य बेढंगे
लगा दिल पर भारी आघात
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

रहा कैसियस जलता मुझसे
सिसरो को भी तोड़ा
कैस्का भी जा मिला उन्हीं में
उसने भी मुँह मोड़ा
किन्तु हृदय तो आज ही रोया
जब तुमने भी छोड़ा
याद आयी पहली मुलाकात
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

मुझे न मरने में आपत्ति
मित्र तुम्हारे हाथ
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ


( और सीजर निकल लिया)

बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

करवा लें, चौथ दें

 Karava-Chauth1

करवा-चौथ के अवसर पर सभी पतियों को बधाई । प्रसन्नता-पूर्वक करवा लें, और चौथ दें । वरना…………

मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

मैं मेंढक से हार गया

आज सुबह जब बाथरूम में नहाने गया तो एक अजीब घटना हो गयी । ड्रेन की जाली हट गयी तो एक छोटा मेंढक उछलकर बाहर बाथरूम के फर्श पर आ गया । मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा कि एक तुच्छ मेंढक इस तरह घर में घुस आये । यदि इसे बाथरूम तक ही सीमित रहना हो तब तो सहा भी जाय । लेकिन अतीत का हमारा अनुभव रहा है कि हमने जब जब मेंढकों के प्रति उदारता दिखाई है ये किचिन तक जाने में भी नहीं हिचके ।

अब मैंने उसे वापस ड्रेन में भेजने के प्रयास आरम्भ कर दिये । मेंढक भी कम चालू नहीं था । मैंने आदमी के अलावा कभी किसी जीव को इतना चालू नहीं देखा । मैं उसे हाथ से पकड़ना नहीं चाहता था । चाहता भी तो शायद पकड़ न पाता । लिहाजा मग से पानी भरकर उसे बहाने की कोशिश की किन्तु उसने भाँप लिया और जहाँ मैंने पानी डाला वहाँ से पहले ही वह सुरक्षित स्थान की ओर पलायन कर गया । मैंने कई मग पानी इसी तरह असफल प्रयास में बहा दिया । मेंढक कभी बाल्टी के पीछे छिप जाता तो कभी वाश बेसिन से आने वाले डेढ़ इन्च के पाइप के पीछे जा छिपता ।

मैंने पहले कई बार मेंढकों को बाथरूम में देखकर अनदेखा किया है पर आज इस जिद्दी मेंढक की धृष्टता पर मुझे क्रोध आने लगा । एक तुच्छ जीव मुझ मनुष्य को चुनौती दे रहा था । हम सुनते आ रहे हैं कि आदमी के जैसा मस्तिष्क ईश्वर ने किसी और जीव को नहीं दिया पर यह मेंढक इस अवधारणा को झुठलाने की हठ कर रहा था । जब सब तरफ से मैं उसे ड्रेन के तीन इन्च व्यास के छिद्र के पास लाता तो वह फिर कूद कर दूर चला जाता और सारी मेहनत बेकार हो जाती । काफी देर तक यही क्रम चलता रहा । अब मेरा उद्देश्य नहाना न होकर इस धृष्ट मेंढक को बहाना था ।

यूँ इसका दूसरा आसान उपाय भी हमने पहले से ईजाद किया हुआ है कि एक प्लास्टिक का डिब्बा मेंढक के ऊपर रख दो और नीचे से धीरे से एक मोटा कागज घुसा कर आराम से इस सिस्टम को बाहर लेजाकर मेंढक को छोड़ आओ, लेकिन अब इसे बहाना नाक का सवाल था ।

मेंढक भी अब थकता जा रहा था । उसने भी आराम करके अपनी ऊर्जा को रिकवर करने का एक अच्छा तरीका ढूँढ़ लिया ।वह वाश बेसिन वाले पाइप में घुस गया । पर मैं भी कहाँ मानने वाला था , बाहर जाकर वाश बेसिन में खूब सारा पानी बहा दिया अब मेंढक बाहर आना ही था । अब पाइप में वह पुन: एण्ट्री न मार दे इसके लिए एक कपड़ा ठूँस दिया । अब फिर से प्रयास किया तो मैं मेंढक को ड्रेन में बहाने में कामयाब हो गया । इसके लिए कम्पनी का कितना पानी मैंने बहा दिया पता नहीं । पानी तो असीमित मिलता ही है ।

इस घटना के बाद मेरे मन में कुछ सवाल उठने लगे । आखिर उस मेंढक को ड्रेन से बाहर आने का अधिकार क्यों नहीं है ? धरती तो उसकी भी है । हमने ताकत के बल पर इस पर कब्जा कर लिया तो क्या हुआ धरती माता तो सभी जीवों की है ।

जवाब आया कि वह ड्रेन में नहीं रह सकता तो वहाँ पैदा होने की क्या आवश्यकता थी ? लेकिन यह भी मन को संतुष्ट न कर सका । आखिर उसके पैदा होने में उसका क्या दोष ?

मैं मेंढक से जीतकर भी हारा हुआ महसूस कर रहा हूँ ।

सोमवार, अक्तूबर 05, 2009

धर्म के ठेकेदारो सुधर जाओ

आजकल ब्लॉग-जगत में धर्म का बोलबाला है . सभी अपने धर्म को अच्छा सिद्ध करने की कोशिश में हैं . अन्य धर्म वालों को आकर्षित करने में जुटे हैं जैसे अवैध रूप से सवारी ढोने वाले जीप जीप चालक आपस में एक एक सवारी के लिए झगड़ते रहते हैं . हमारा धर्म बड़ा लिबरल है, अमुक धर्म तो निहायत ही कट्टर है या गंदा है . वो मूर्तिपूजक है बुरा है आदि वाक्य सुनकर ऐसा ही आभास होता है जैसे ये भगवान तक पहुँचाने का कमीशन लेते हों .

हमने बचपन से ही पढ़ा है कि धर्म भगवान तक पहुँचने का एक साधन मात्र है . अलग अलग धर्म एक ही ईश्वर की आराधना अलग अलग तरीकों से करते हैं . या कहें कि धर्म एक बस के समान है जो हमें सुविधाजनक तरीके से मंजिल तक पहुँचाती है . इसके कण्डक्टर और ड्राइवर सवारियाँ लाते हैं , बस में ठूँस देते हैं . लेकिन जो सवारियाँ पहले से ही बस में हैं वे इससे खुश नहीं होती . आखिर उन्हें परेशानी होती है घिचपिच से .

अब धर्म की बस को देखिए इसके कण्डक्टर और ड्राइवर तो बस को चलती छोड़कर पहले ही भगवान के पास पहुँच गए ट्रेन पकड़कर . सवारियाँ आपस में लड़ मर रही हैं . शायद सोचती हैं कि बस जल्दी भरे तो चले . ड्राइवर पहले चला गया यह पता चले तो शायद अपने निजी वाहन का इन्तजाम करके जाएं . अन्यथा इसी बस में पड़े सड़ते रहें . ये कभी नहीं पहुँचाएगी .

समझ लो आप भगवान के पास पहुँच भी गए . वहाँ फिर वही दिक्कत . एक बस के हिसाब से सब इन्तजाम मिलेंगे . जिस बस में ज्यादा लोग होंगे उन्हें परेशानी होगी . जैसे आरक्षण की श्रेणी में गुर्जरों को डाले जाने से राजस्थान में मीणाओं को दिक्कत हो रही है . वे तो कभी नहीं कहते कि और लोग भी हमारे साथ आरक्षण में आने चाहिए . रही बात सुरक्षा की फीलिंग की . कुछ लोगों को संख्याबल अधिक होने से सुरक्षा की भावना आती है . लेकिन क्या भरोसा कि जो आदमी आपके बगल वाली सीट पर बैठा है वही आपकी जेब नहीं काट लेगा ?

इसलिए भाइयो अपने लक्ष्य पर नज़र रखो . आपको अच्छे और सुविधाजनक तरीके से अपनी मंजिल तक पहुँचना है . आप सवारी हो , सवारी रहो . ड्राइवर बनने की कोशिश मत करो . ड्राइविंग का शौक है तो अपना वाहन लो और चलते बनो .

कभी मेरे नाम पर भी….

image

कार्टून देखें और तारीफ करें । कहीं ऐसा न हो कि आप कुछ गलत कहकर चलते बनें और देश एक उभरते हुए कार्टूनिस्ट से हाथ धो बैठे । :)

रविवार, अक्तूबर 04, 2009

टाइटन को जानिए

आपने टाइटन की घड़ी अवश्य देखी होगी . टाइटैनिक जहाज के डूबने के बारे में भी सुना होगा . इसी तरह  शनि ग्रह के एक उपग्रह का नाम भी टाइटन है .

दर असल यह टाइटन नाम यूनान के पौराणिक साहित्य से लिया गया है . देवी पृथ्वी ( जी ) ने अपने पुत्र यूरेनस ( आकाश का देवता ) के संसर्ग से जिन छ: पुत्र और छ: पुत्रियों को सबसे पहले जन्म दिया . वे सभी बड़े ही बलवान और विशालकाय थे . इन सभी को  टाइटन कहा गया . हेसियड की थियोगोनी के अनुसार टाइटन बारह ही थे लेकिन कुछ प्राचीन यूनानी ग्रन्थों में अन्य टाइटनों का उल्लेख भी मिलता है .

टाइटनों में सबसे छोटा क्रोनोस हुआ जो सबसे अधिक शक्तिशाली भी था . यूरेनस के अत्याचारों से तंग आकर जी ने अपने इस पुत्र को उसके विरुद्ध उकसाया  . क्रोनोस भी यूरेनस के बढ़ते अत्याचारों से दु:खी था . उसने अपने पिता को अपद्स्थ करके टाइटनों  के राज-सिंहासन पर अधिकार कर लिया, और यूरेनस को नपुंसक बनाकर छोड़ दिया गया .

क्रोनोस ने अपनी बहन रिआ ( Rhea ) को अपनी पत्नी और महारानी बनाया . रिआ को धरती और उत्पादकता की देवी माना जाता है . इसका चिन्ह चन्द्रमा और हंस है . क्रोनोस अपनी पैदा होने वाली अधिकतर संतानों को खा जाता था . लेकिन  रिआ ने अपने पुत्र जियूस के स्थान पर क्रोनोस को कपड़े में लपेट कर पत्थर का टुकड़ा दे दिया जिसे वह निगल गया . इस प्रकार जियूस बच गया जिसने आगे चलकर अपने अत्याचारी हो चुके पिता को प्रसिद्ध टाइटनों और ओलम्पियनों के युद्ध में हराया . इस युद्ध के बाद क्रोनोस का साथ देने वाले टाइटनों को तारतारस ( पाताल लोक या नरक ) में बन्दी बनाकर भेज दिया गया .

उम्र में सबसे बड़े टाइटन ओकीनोस(Oceanus) ने अपनी बहन टेथीज(Tethys) को पत्नी बनाया, और पूरी पृथ्वी के जल, झरनों, नदियों और  समुद्र का स्वामी हुआ . टेथीज को धरती पर जल का समान वितरण करने वाली देवी माना जाता है . इसने झरनों और नदियों को जन्म दिया .

इसी प्रकार अन्य टाइटन भाई बहनों ने भी आपस में विवाह किए और पति-पत्नी बने .

टाइटनों की दूसरी पीढ़ी को ओलम्पियन कहा गया . ओलम्पियनों की संख्या भी बारह बताई जाती है . ये यूनान के प्रसिद्ध ओलम्पिक पर्वत के आसपास रहा करते थे .

यूनानी मान्यता के अनुसार यह स्वर्ण-युग था . इसके बाद रजत-युग ताम्र-युग आदि आते हैं .

 

अपनी-बात

 

  कुछ पाठकों ने जिज्ञासा प्रकट की है कि यह कौन सी कंपनी है जिसका जिक्र स्वप्नलोक पर बार-बार होता है ? इस जिज्ञासा को समय आने पर शान्त किया जाएगा . तब तक अन्य पाठक  भी ज्ञान जी की भाँति अपने हिसाब से इस कंपनी के बारे में स्वतंत्र होकर सोचें .

 

हमारा मानना है कि ये सूर्य देव, चन्द्र देव आदि जो प्राकृतिक चीजें हैं इन्हें महात्मा गांधी मार्ग , इंदिरा गांधी विश्व-विद्यालय आदि की भाँति प्राचीनकाल में  तथाकथित देवताओं ने नामांकित कर दिया होगा . हो सकता है जिन महापुरुष के नाम पर सूर्य का नामकरण हुआ हो उन्हें हनुमान जी ने काट खाया हो . और मुश्किल से लोगों के कहने पर उन्हें छोड़ा हो . 

शनिवार, अक्तूबर 03, 2009

यूनान की पौराणिक कथाओं में सृष्टि की उत्पत्ति

यूनान देश का नाम किसने नहीं सुना होगा ? सिकन्दर यूनान का ही निवासी था । यूनान की प्राचीन सभ्यता भारतीय सभ्यता की ही भाँति पर्याप्त विकसित थी । कालान्तर में रोमन साम्राज्य का विकास होता गया और यूनानी सभ्यता लुप्तप्राय: हो गयी । यूनान के बारे में हम जितना ही अधिक जानते हैं उससे अधिक जानने इच्छा होती है क्योंकि भारत और यूनान के बीच हम एक विचित्र समानता महसूस करते हैं ।

भारतीय पौराणिक साहित्य की तरह यूनान का पौराणिक साहित्य भी पर्याप्त रोचक है । हेसियड द्वारा रचित देवताओं की वंशावली के अनुसार सृष्टि के रचयिता कैओस(Chaos) हैं । कैओस का अर्थ होता है अनिश्चितता और विप्लव की स्थिति । कैओस ने सबसे पहले ठोस पदार्थ बनाया जिससे पृथ्वी(Gaea) का जन्म हुआ । तब कैओस ने तारतारस ( Taratarus ) बनाया जो पृथ्वी के सबसे नीचे स्थित लोक है । यहाँ बुरी आत्माओं का निवास होता है । एरोस भी कैओस का पुत्र है जो प्यार और इच्छाओं का देवता है । अंत में कैओस ने इरेबस ( Erebus ) को बनाया जो धरती के नीचे का अंधकार है । जब बुरी आत्मा को तारतारस भेजा जाता है तो उसे इस अंधकार से गुजरना होता है ।

जी का पुत्र यूरेनस ही उसका पति हुआ और इन दोनों को ही सृष्टि के आदि माता-पिता माना गया । जी यूरेनस के अलावा जी के दो और पुत्र माउन्टेन ( पर्वत ) और पोण्टस( Pontus - समुद्र का देवता ) हुए जो यूरेनस के सहोदर थे ।

यूनानी देवताओं के बारे में आगे आने वाले समय में कम्पनी द्वारा संभवत: कुछ पोस्ट प्रकाशित की जाएंगी । उनमें विस्तार से जानकारी देने का प्रयास किया जाएगा ।

शुक्रवार, अक्तूबर 02, 2009

अहिंसक ब्लैक-बॉडी की तरह होता है

आज 2 अक्टूबर है, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी का जन्म दिवस । लालबहादुर शास्त्री जी का भी जन्म दिवस आज ही है । गाँधी जी के साथ अहिंसा का अटूट सम्बन्ध है और अहिंसा के साथ हिंसा अटूट रिश्ता है । हिंसा एक प्रकार की ऊर्जा है जो एक व्यक्ति उत्सर्जित करता है ।

ऊष्मा भी ऊर्जा का ही एक रूप है । जब किसी वस्तु में ऊष्मा का घनत्व अधिक होता है तो उसका ताप बढ़ जाता है । ऐसी स्थिति में उससे ऊष्मा का उत्सर्जन भी बढ़ जाता है । जब ऊष्मा के स्रोत से ऊष्मा का उत्सर्जन होता है तो यह सीधी रेखा में प्रवाहित होती है । मार्ग में आने वाली हर वस्तु पर इसका प्रभाव पड़ता है । अब यह उस वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है कि वह उत्सर्जित ऊष्मा से कितनी ऊष्मा अवशोषित करती है । कुछ वस्तुएं ऊष्मा का बिल्कुल भी संग्रह नहीं करती हैं । जितना उत्सर्जन इनके ऊपर पड़ता है ये आगे पार निकल जाने देती हैं जैसे भृष्ट चुंगी अधिकारी तस्करी के सामानों से भरे ट्रक को निकल जाने देता है ।

कुछ वस्तुएं ऊष्मा को परावर्तित कर देती हैं । इनका सिद्धान्त जैसे को तैसा वाला होता है । यदि ऊष्मा सीधी आपतित होती है तो ये भी सीधा उसे स्रोत की ओर परावर्तित करके ईंट का जवाब पत्थर से देती हैं । यदि ऊष्मा किसी अन्य कोण से कटाक्ष की तरह आपतित होती है तो ये भी उसे उसी कोण से दूसरी ओर भेज देती हैं । जैसे रैगिंग से पीड़ित विद्यार्थी सीनियरों द्वारा ली गयी रैगिंग का बदला जूनियर छात्रों की रैगिंग से लेता है । दर्पण का व्यवहार भी ऐसा ही होता है ।

कुछ वस्तुएं जिन्हें ब्लैक-बॉडी या कृष्णिका कहा जाता है अपने ऊपर आपतित ऊष्मा की सारी मात्रा को अवशोषित कर लेती है और बाद में उसे अपनी शर्तों पर उत्सर्जित करती है । यही स्थिति आदर्श अहिंसक की होती है जो सारी हिंसा को सह लेता है । वह हिंसा का जवाब हिंसा से नहीं देता ।

चूँकि कृष्णिका आदर्श अवशोषक होती है इसलिए हर वस्तु इस स्तर को प्राप्त नहीं कर सकती । जिस आदर्श को हर कोई पा ले वह आदर्श ही क्या ? इसीलिए आदर्श ऊँचे रखे जाते हैं ताकि कुछ श्रेष्ठ लोग ही उन तक पहुँच सकें और बाकी लपलपाते रहें । कुछ छ्द्म आदर्श भी होते हैं जो दूर से देखने पर आदर्श लगते हैं लेकिन पास आते ही उनकी पोल खुल जाती है और वे नकलची साबित होते हैं । इस श्रेणी में ऐसे लोगों को रखा जा सकता है जो संस्कृत के कुछ कठिन श्लोकों को रटकर देवभाषा ज्ञाता होने का स्वांग रचते हैं और ऐसा जाहिर करते हैं कि जिसे संस्कृत नहीं आती मानो वह निरा मूर्ख ही है । कुछ अंग्रेजी के कठिन से स्पेलिंग याद कर डालते हैं और और जहाँ चार लोग जमा दिखें वहीं अपने अंग्रेजी ज्ञान का उत्सर्जन करने लगते हैं ।

संतुलित लोग ग्रे-बॉडी की तरह होते हैं जो उत्सर्जित ऊष्मा का कुछ भाग आवश्यकतानुसार अवशोषित कर लेते हैं । कुछ भाग ऊष्मा स्रोत को भी उसकी औकात के हिसाब से परावर्तित कर देते हैं ताकि उसके भाव न बढ़ जाएं । बाकी को आगे जाने देते हैं ताकि यह किसी और जरूरतमंद के काम आ सके ।

वैसे तो अब तक आप समझ चुके होंगे । लेकिन जो न समझे हों उन्हें बता दें कि यह एक घटिया पोस्ट है जो हमारे एक बढ़िया पाठक की भारी माँग पर लिखी गयी है ।

आखिर घटिया चीजों का भी अपना मार्केट होता है !

मित्रगण