बच्चे को होश सँभालते ही बता दिया जाता है कि कौआ बुरा होता है क्योंकि यह काँव काँव करता है . और कोयल अच्छी है क्योंकि यह कुहू कुहू की मीठी आवाज सुनाती है . पर अगर इतने पर भी हमें कौए से नफरत न हो तो इसमें हमारी क्या गलती ? हमें तो उसकी काँव काँव कोयल की कुहू कुहू से मधुर लगती है . यह कोई जरूरी तो नहीं कि जो सबको अच्छा लगे वही हमें भी अच्छा लगे .
कौआ बेचारा कितना परिश्रम करता है ! इसकी प्रतिभा को हमारे ऋषि मुनियों ने बहुत पहले ही पहचान लिया था . इसीलिए तो लिख गए -
काक चेष्टा, वको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च .
अल्पाहारी, गृह त्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणम् ..
मगर हम ऋषियों की वाणी को भूलकर कौए के सद्गुणों को पहचान न सके . हमने उसे आलसी समझकर 'कौए और गिलहरी' की मनगढंत कहानी रच ली . कौए ने हालाँकि पानी में कंकड डालकर पानी पिया और अपनी चतुराई को सिद्ध करने का भरसक प्रयास किया . लेकिन हमें उसमें भी उसकी कोई चाल दिखाई दी . और हमने कौए के साथ भेदभाव जारी रखा .
उधर कोयल को मुफ्त में सम्मान की गठरियाँ सप्लाई किए जारहे हैं क्योंकि वह तथाकथित मीठा बोलती है . मान लिया बोलती होगी मीठा . पर आजकल मीठा बोलने से कोई काम होता है क्या ?
किसी ऑफिस में चले जाइए . क्लर्क से कोई काम कराना हो तो मीठी आवाज में कहिए ," सर ! प्लीज मेरी फाइल आगे बढा दें " खडे खडे रिश्वत की डिमाण्ड कर बैठेगा . और अगर आपने जाते ही उसको हडका दिया तो हो सकता है घुडकी में आकर आपको दादा समझ ले और आपका काम हो जाय . इसीलिए तो फोन पर लोग यूँ ही दूसरों को हडकाते देखे जाते हैं . कोई अपने को विधायक बताकर थानेदार को हडका देता है , कोई मुख्यमंत्री बनकर सचिव को हडका देता है और कोई प्रणव मुखर्जी बनकर जरदारी को हडका देता है . मीठी आवाज का मार्केट अब लगातार निचले स्तरों को छूरहा है . इसको जितनी जल्दी मान लिया जाय उतना अच्छा रहेगा .
हमने सभी जानवरों और पक्षियों को उनकी जीवन संगिनियों के साथ माना , जैसे मोर के साथ मोरनी तथा गधे के साथ गधी , पर बेचारे कौए को यहाँ भी भेदभाव का शिकार होना पडा . कौए की कौवी को अब तक मान्यता नहीं दी गई . इस मामले में महिला आयोग भी कुछ नहीं कहता .
हम कौए को शातिर बताते हैं पर उससे ज्यादा शातिर तो हम खुद हैं . वैसे तो साल भर उसे बुरा बुरा कहते रहेंगे . लेकिन श्राद्धपक्ष में स्वर्गीय पूर्वजों को भोजन भेजना हो तो कौए को ही बुलाएंगे . अब बताइए कौन मौकापरस्त हुआ ?
अक्सर एक तुकबंदी भी सुनने में आती है :
रामचन्द्र कह गए सिया से कलयुग ऐसा आयेगा
हंस चुगेगा दाना तिनका कौआ मोती खाएगा
पहली बात तो हमें कोई यह बताए कि रामचन्द्र ने ऐसा कहा था इसका प्रमाण क्या है ? और अगर कोई प्रमाण है भी तो इस बात का क्या सुबूत है कि यह प्रमाण निराधार नहीं है ? हमने रामकथा कई बार सुनी है . उसमें कहीं नहीं कहा गया कि रामचन्द्र सीता जी को छोडकर कहीं चले गए थे . हाँ, इतनी गुंजाइश अवश्य है कि सब्जी वगैरह लेने चले जाते हों , पर उसके लिए लक्ष्मण जी थे .
चलो उन्होंने ऐसा कह भी दिया होगा तो उनकी बात कौन सुन रहा था वहाँ . उस जमाने में आजकल की भाँति टीवी चैनल तो थे नहीं जो उन्होंने संवाददाता सम्मेलन बुलाकर यह बात कही हो . जाहिर है संवाददाता सम्मेलन बुलाते तो संवाददाताओं से कहते सीता जी से क्यों कहते ? और सीता जी से ही कहना था तो संवाददाता सम्मेलन क्यों बुलाया ?
इन सब अकाट्य तर्कों के बावजूद यदि हम यह मान भी लें कि यह बात रामचन्द्र जी ने सीता जी से कही होगी तो इसमें बुरा क्या है ? क्या हंस को मोती खाने का सर्टिफिकेट मिला हुआ है कि भाई तू मोती ही खाएगा . अगर वह मेहनत न करे तो आज के समय में उसे दाना तिनका भी न मिलेगा . और मिलना भी नहीं चाहिए .
कौआ अगर अपनी मेहनत से मोती कमाकर खाता है तो कौन सा पहाड टूट पडेगा ? उसे क्या सिर्फ इसलिए मोती नहीं खाना चाहिए कि वह कौआ है ? बताइए कौए के कौआ होने में कौए की क्या गलती है ?
अगर कोई इस आधार पर कलयुग को बुरा समझे तो हम उससे यही कहेंगे कि अभी कलयुग आया ही नहीं . क्योंकि हमने अभी तक कौए को मोती खाते हुए नहीं देखा है . और हंस को तो देखा ही नहीं . कौआ बेचारा पेट की खातिर दर दर भटक रहा है . मेहनत के बावजूद उसे मोती नहीं मिल रहे . हंस बिना मेहनत के ही मोती उडा रहा है . जल्दी से कलयुग आ जाए तो कौए को भी मोती मिलें . और हमें शांति !