शनिवार, जनवरी 31, 2009

यह सब आप ही का किया धरा है

बसंत पंचमी के शुभ अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
लो जी आज हमारा शतक पूरा हो ही गया ! बडी खुशी हो रही है । मजे की बात यह है कि यह शतक फालतू पोस्ट लिख लिखकर ही पूरा हो गया । हमें कुछ काम की चीज आती ही नहीं तो क्या इतनी सी बात के लिए ब्लॉग लिखना छोड दें ?
आप लोगों के सहयोग के बिना यह संभव नहीं था कि हम ब्लॉगिंग में इतना टिक पाते । आप सबके प्यार के बिना कब के उखड गए होते । मेरे फीके ( कडवा कहना अच्छा नहीं लगता ) स्वभाव के बावजूद आप लोगों ने मुझे न सिर्फ झेला बल्कि प्रोत्साहित भी किया । इससे मुझे आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ ।
ब्लॉगिंग में मैंने हमेशा अपना स्वाभाविक खेल खेलने का प्रयास किया है । शायद इसीलिए यहाँ भी निजी जिन्दगी जैसे अनुभव हो रहे हैं । गलतफहमियाँ हुईं । रूठना मनाना हुआ । कभी हम रूठे आपने मनाया । कभी आप रूठे हमने मनाया । बडों ने हडकाई भी की और प्यार भी बरसाया ।
यहाँ पर बहुत सारे लोगों से जान पहचान भी हुई । फोन पर बात हुई पर आमने सामने मिलने का अवसर अभी नहीं मिला । मुझे लगता है कि मिझे जो नए लोग मिलते हैं उन्हें मेरा स्वभाव कुछ अजीब लगता होगा । मगर समय बीतते बीतते मुझे हमेशा स्वीकार किया गया है । और अच्छे अच्छे मित्र भी मिले हैं । ऐसा ही ब्लॉगिंग में हुआ । यहाँ भी मुझे सब लोगों का आशातीत प्यार मिला ।
चिट्ठा चर्चा करने के लिए मिला आमंत्रण पाकर मैंने बहुत सम्मानित अनुभव किया ।
इस शतकीय पोस्ट में मैं जानबूझकर किसी व्यक्ति विशेष का उल्लेख करने से बचना चाहता हूँ । मैं कहना चाहता हूँ कि अब तक मैंने जाने अनजाने जिन महानुभावों की भावनाओं को आहत किया हो उनसे मैं बिना शर्त क्षमा माँगता हूँ । भविष्य में ऐसा न हो यह मेरा प्रयास रहेगा । कडवी बातों को हम भूलना चाहते हैं और आपसे भी भूलने का अनुरोध करते हैं ।


चलते-चलते :

भैया मोहे ताऊ बहुत हँसायौ !
धंधौ करियौ ठगी कौ ताऊ, लट्ठ ताई सौं खायौ ।
खूँटा गाढि दियौ चिट्ठा पै , भैंस संग लै आयौ ।
बनिया कूँ ठगिवे कूँ ताऊ गोटू यार बनायौ ।
सगरौ माल उडायौ गोटू हाथ कछू नहिं आयौ ।
एकबार चंदा पै पहुँचियौ ठेला जाइ लगायौ ।
तेरी सौं मेरी सुनि भैया ताऊ सबकूँ भायौ ।

शुक्रवार, जनवरी 30, 2009

अगर ऐसा हो जाता



गांधी जी यदि स्वयं ही , होते न्यायाधीश ।
फाँसी नाथूराम का , कभी न छूती शीश ॥
कभी न छूती शीश, क्षमा उसको मिल जाती ।
और बडे आयाम , अहिंसा भी पा जाती ॥
विवेक सिंह यों कहें, अगर ऐसा हो जाता ।
गांधी जी का न्याय अलग इतिहास बनाता ॥

गुरुवार, जनवरी 29, 2009

कुतिया का जनाज़ा है जरा धूम से निकले


नबाब साहब का रुतबा था ।
चलता खूब हुक्म उनका था ॥
उनको कोई नहीं कमी थी ।
जवाहरात की नींव जमी थी ॥
लेकिन किस्मत ऐसी सोई ।
उनको वारिस मिला न कोई ॥
कुतिया एक पाल रक्खी थी ।
जान सदा उसमें बसती थी ॥
जो कुतिया से पंगा लेता ।
अपनी जान मुफ्त में देता ॥
लोग डरे से सब रहते थे ।
उसे साहिबा सब कहते थे ॥
लेकिन हाय हुई अनहोनी ।
कुतिया थी जो बडी सलौनी ॥
एक बार बीमार पड गई ।
बीमारी वह बहुत बढ गई ॥
उसकी दवा बहुत करवाई ।
लेकिन कोई काम न आई ॥
कुतिया थी जो सबसे न्यारी ।
आखिर हुई खुदा को प्यारी ॥
शोक मनाता सारा सूबा ।
हर कोई था गम में डूबा ॥
निकला अगले रोज जनाजा ।
उदास धुन करता था बाजा ॥
सारा शहर सिमटकर आया ।
सबने खूब मर्शिया गाया ॥
दफनाकर घर वापस आए ।
नबाब साहब थे घबराए ॥
घबराहट बढ गई अचानक ।
बन्द हो गई दिल की धकधक ॥
नौकर चाकर जब तक आए ।
लोग माज़रा समझ न पाए ॥
नबाब साहब नहीं रहे थे ।
अश्रु किसी के नहीं बहे थे ॥
नबाब साहब पडे हुए थे ।
लोग बुतों से खडे हुए थे ॥
कौन उठाए जिम्मेदारी ?
यही प्रश्न था सबसे भारी !

बुधवार, जनवरी 28, 2009

विश्वामित्र लुटे बेचारे


आज सुनाएं एक कहानी ।
अभी याद है मुझे जुबानी ॥
मेरे गुरु कहा करते थे
सूकरखेत रहा करते थे ॥
विश्वामित्र इन्द्र से रूठे ।
रहे सहे सम्बन्ध भी टूटे ॥
विश्वामित्र ऋषि थे ज्ञानी ।
सोच समझकर मन में ठानी ॥
तख्ता पलट इन्द्र का करना ।
उसके लिए तपस्या करना ॥
बना लक्ष्य उनके जीवन का ।
लिया उन्होंने आश्रय वन का ॥
घोर तपस्या वे करते थे ।
इससे इन्द्र सदा डरते थे ॥
सोच सोचकर इन्द्र थक गए ।
चिंता में सब बाल पक गए ॥
सभी अप्सराएं अजमाईं ।
बारी बारी सभी पठाईं ॥
किंतु तपस्या टूट न पाई ।
नारद ने तब युक्ति सुझाई ॥
देवराज क्यों व्यर्थ परेशाँ ।
इसे तोडना तो है आसाँ ॥
विश्वामित्र ब्लॉग लिखते हैं ।
लेकिन अभी नए दिखते हैं ॥
टिप्पणियों को ना ललचाते ।
केवल पोस्ट ठेलते जाते ॥
भेजो आप उन्हें टिप्पणियाँ ।
लगो जोडने उनकी कडियाँ ॥
पहले मारो थोडा मस्का ।
लेकिन जब लग जाए चस्का ॥
टिप्पणियों में गाली देना ।
तीखी लगने वाली देना ॥
विश्वामित्र सभी भूलेंगे ।
सिर्फ बिलागिंग में झूलेंगे ॥
याद रहेगी नहीं तपस्या ।
कर डालो बस देख रहे क्या ॥
विश्वामित्र लुटे बेचारे ।
एक बार फिर से वे हारे ॥
कुछ भी ब्लॉगिंग में न मिला था ।
किंतु इन्द्र को चैन मिला था ॥

मंगलवार, जनवरी 27, 2009

भक्तगणों निंदा करिए

कहा गया है कि " निंदक नियरे राखिए , आँगन कुटी छवाय " . कहा तो यह भी गया है कि " कहना आसान है पर करना कठिन " . हमें दूसरी कहावत पहली पर भारी पडती हुई लगती है . आजकल कोई निंदक नियरे रखना चाहे तो भी निंदक नियर आते ही नहीं . वे तो दूर दूर रहकर ही पीठ पीछे निंदा करना पसंद करते हैं . वैसे भी निंदकों को यह मंजूर नहीं कि उन्हें आँगन में बनी कुटी यानी झोंपडी में रहना पडे . जब दूर से ही निंदा करके वे एसी में रह रहे हों तो झोंपडी में रहने का कष्ट क्यों सहें . उस पर भी पास रहकर निंदा करने का रिस्क फैक्टर अलग . क्या इसी दिन के लिए निंदक बने थे . प्रमोशन तो सभी चाहते हैं पर कोई अपना डिमोशन भी चाहता है क्या ? हाँ कोई बेरोजगार अनुभवहीन निंदक मिल जाय तो झोंपडी में रहना स्वीकार कर भी सकता है . पर अनुभवहीन का क्या भरोसा कहीं निंदा करने की बजाय S.O.G. ( Soaping , Oiling , Greasing ) कर्म करने लगा तो लेने के देने पड जाएंगे .

अब वह जमाना गया जब निंदक पास में रहते थे . पहले की बात अलग थी जब विदुर धृतराष्ट्र के पास रहकर ही चौबीसों घण्टे अपनी सेवाएं देते रहते थे . आजकल तो दूर रहकर निंदा करने वाले भी मुश्किल से मिलते हैं . जिसे देखिए चिकनी चुपडी बातों से आपको भरमाने की कोशिश कर रहा है . आजकल तो इस विषयपर किताबें भी धडल्ले से बिक रहीं हैं . पर हमारी सरकार का इस तरफ ध्यान ही नहीं कि इन किताबों की वजह से लोग कितने तेलू होते जारहे हैं . निंदा कैसे करें टाइप किताबों का सर्वथा अभाव है . अच्छी चीजों का मार्केट ही नहीं है और सरकार सबसिडी देती नहीं . सबको पता है कि निंदा करेंगे तो उनकी निंदा होना तय है . उस पर भी कोई एक दो परोपकारी महापुरुष निंदक कर्म अपनाने का वीडा उठाते हैं तो तुरंत तथाकथित स्वयंभू समाज सुधारक तबका सक्रिय हो जाता है . और पूर्व नियोजित षडय्ंत्र के तहत उनका जोश ठण्डा करने में देर नहीं लगाते . ऐसी स्थिति में समाज निंदाजनित लाभों से वंचित होता जाता है . सब एक दूसरे की झूठी या अर्धझूठी प्रसंशा के पुल बाँधते रहते हैं और विकास की गति मंद पड जाती है .

अगर आपको निंदाजनित लाभों को प्राप्त करना है तो आपकी निंदा होना अतिआवश्यक है और आपकी निंदा कोई फ्री-फोण्ड में कर देगा इस गलफहमी में रहना मत . आप किसी की निंदा करोगे तभी तो कोई आपकी निंदा करेगा .

इसलिए हे भक्तगणों निंदा करिए !

सोमवार, जनवरी 26, 2009

आज बधाई लेना इनका जन्म सिद्ध अधिकार है



सभी देशवासियों को गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर हार्दिक बधाइयाँ .

आज तो हमारे घर में त्योहार का माहौल है . ऐसा नहीं है कि हम ही सबसे बडे देशभक्त हैं . दरअसल आज घर के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य का जन्मदिन है . आप ठीक समझे यह जो चित्र में दिखाई दे रहा है यही वह महत्वपूर्ण सदस्य है . यह हमारा छोटा बेटा है . इसका नाम सनत कुमार सिंह है . पर इसे हम सब सन्तू ही कहते हैं . इसके नामकरण की भी कहानी है . इसके बडे भाई का नाम हमने अनन्त रख दिया, और उसका प्यार का छोटा नाम ठहरा अन्तू . जब इसका जन्म हुआ तो हमारे दादा जी (अब स्वर्गीय) ने इसका नाम अन्तू की तर्ज पर सन्तू रखने की घोषणा कर दी . अब हम क्या करते इसी के मिलान का बडा नाम खोजने में जुट गए और यह सनत कहलाया .

यह कैसे अपनी दादागीरी के बल पर घर का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य हो गया . यह तो आगे कभी बताएगें पर अभी तो इसके हैप्पी बड्डे की तैयारी में जुटना है . जबसे इसे पता चला है कि हैप्पी बड्डे के दिन बड्डे बॉय अपने साथियों का राजा बन जाता है तभी से इसे बड्डे का इंतजार रहता है . कलेण्डर में छ्ब्बीस जनवरी को भी बडे भाई की मदद से याद कर लिया है कि मेरा बड्डे यह है . हमें भी जब तब याद दिलाता रहता है . " पापा देखो मेरा हैप्पी बड्डे !"

अच्छा यह तो बताया ही नहीं कि यह आज चार साल का हो गया . नर्सरी क्लास का अध्ययन जारी है . इसकी खास बात यह है कि इसे फर्स्ट के अलावा कहीं कुछ मंज़ूर नहीं . स्कूल रेस में तीसरे सथान पर रहा पर आज तक बाबा को फोन पर यही बताता है कि " बाबा जी ! मैं फर्स्ट आया हूँ !" और कभी भैया ने कह दिया कि तू फर्स्ट नहीं थर्ड था तो उसकी भी खैर नहीं . या तो खुद ही फैसला कर लेगा नहीं तो हम हैं ही . इसी पार्टी में हैं ना . कहना पडता है कि सन्तू फर्स्ट ही आया था !

कोष्ठक में : संयोग से आज गुरु जी शिवकुमार मिश्रा जी की शादी की सालगिरह भी है ! उन्हें बहुत बहुत मुबारकबाद !

रविवार, जनवरी 25, 2009

इण्टरव्यू ऑफ द रिकार्ड

चुक गए कैसे होकर मर्द ?
हुआ यह दिल में कैसा दर्द ?
लगा दिल पर कैसा आघात ?
क्या कोई अन्दर की है बात ?

इसे रखना ऑफ दा रिकार्ड ।
समय मेरा आया अब हार्ड ॥
मजे में बीते चारों साल ।
किंतु अब जाकर हुआ बवाल ॥
कहाँ मैं सीधा सा इन्सान ।
कहाँ यह कूटनीति बलवान ॥
कर दिया मुझको बाईपास ।
बने एनर्जी वाले खास ॥
यही होता है सबके साथ ।
किसी से मत कहना यह बात ॥
मुझे भी देकर अब आराम ।
चूसकर फेंक दिया ज्यों आम ॥
पार्टी आम आदमी ब्राण्ड ।
बजाती आमों का ही बैण्ड ॥
चलाती चूसो फेंको नीति ।
करो मत राजनीति से प्रीति ॥

कोष्ठक में: हमारे प्रिय ताऊ जी हमारे सबसे बडे पाठक साबित होते हुए हमारे ब्लॉग पर सबसे पहले टिप्पणियों की हाफ सेंच्युरी लगाने में सफल रहे हैं . बहुत बहुत बधाइयाँ !

शनिवार, जनवरी 24, 2009

रामदास कहलाए


बिना बिचारे जो करे, रामदास कहलाय ।
हाईकोर्ट खारिज करे जो भी कदम उठाय ॥
जो भी कदम उठाय चित्त में तानाशाही ।
शायद आनन फानन में चाहें वाहवाही ॥
विवेक सिंह यों कहें मंत्री कैसे कैसे ।
घिसट घिसटकर देश चल रहा जैसे तैसे ॥


शुक्रवार, जनवरी 23, 2009

प्रकट हों एक बार फिर


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नेताजी को जन्मदिन, खूब मुबारक होइ .


आदर्शों पर आपके, काश चले सब कोइ ॥


काश चले सब कोइ, क्रांति का बिगुल बजाने ।


देकर अपना खून स्वयं आजादी पाने ॥


विवेक सिंह यों कहें प्रकट हों एक बार फिर ।


झंझट सब मिट जाय राष्ट्र का ऊँचा हो सिर ॥


गुरुवार, जनवरी 22, 2009

स्वयं को करके भी बदनाम

तनिक तो देखो बुश की ओर ।
करो उन पर अन्याय न घोर ॥
देशहित जिसमें आया नज़र ।
न छोडी उसमें कोई कसर ॥
देश हो दुनिया का सिरमौर ।
किये बस वही उपाय कठोर ॥
मान लो चाहे उनको फेल ।
न था पर मन में कोई मैल ॥
शत्रु का जीना किया मुहाल ।
लिया था बिल से उसे निकाल ॥
कभी आने वाला इतिहास ।
करेगा शायद यह आभास ॥
सही थे बुश के सारे काम ।
स्वयं को करके भी बदनाम ॥
राष्ट्र को रखा सदा आश्वस्त ।
स्वयं जूते खाकर भी मस्त !!

बुधवार, जनवरी 21, 2009

अथ श्री मूँछ कथा

कहा जाता है कि " मूँछें हों तो नत्थूलाल जैसी ".
हमने नत्थूलाल को कभी नहीं देखा . फिर भी हमको लगता है कि नत्थूलाल की मूँछें बहुत आकर्षक रही होंगी . शायद नत्थूलाल से भी आकर्षक . तभी तो लोग नत्थूलाल को भूल गए पर उनकी मूँछें अभी भी जिन्दा हैं . बल्कि यह कहा जाय कि नत्थूलाल अपनी मूँछों के रूप में आज भी हमारे बीच हैं .
कुछ लोगों को लगता है कि नत्थूलाल की मूँछें बहुत बडी बडी रही होंगी . जबकि उनके विरोधी दल वालों का मानना है कि नत्थूलाल छोटी मूँछ रखते थे . इनका तर्क है " चूँकि छोटी मूँछ आरामदायक रहती है इसीलिए मूँछों का यह स्टाइल लोकप्रिय हो गया होगा और यह कहावत बनी होगी .
दोनों ही दल वाले अपने अपने तरीके से नत्थूलाल को फॉलो करते हैं . जैसे विभिन्न धर्मों में ईश्वर को भिन्न भिन्न नामों से जाना गया है उसी तरह नत्थूलाल के अनुयायी भी उनको अलग अलग रूपों में याद करते हैं .
वैसे इन दोनों दलों से अलग एक तीसरा मोर्चा भी है जिसे नत्थूलाल में विश्वास नहीं है . ये स्वयं को देवताओं का फॉलोअर कहते नहीं थकते . अक्सर आदमी अपनी मजबूरी को छिपाने के लिए किसी तर्क का अनुसन्धान करने की जुगत में रहता है . तर्क न मिलने पर इमरजेंसी की स्थिति में कुतर्क से भी काम चला लिया जाता है . वैसे भी तर्क और कुतर्क के बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं होती . ऐसे ही तीसरे मोर्चे वालों में अधिकतर लोग हैं . इनमें कुछ ही लोग देवताओं का अनुसरण अपनी इच्छा से करते हैं . और मूँछें नहीं रखते . पर बहुमत मजबूरी वालों का ही है . किसी की पत्नी को मूँछें पसंद नहीं हैं तो किसी को रोज रोज मूँछें सेट करने का आलस्य घेरे रहता है . कुछ ऐसे भी हैं जो मूँछें रखना तो चाहते हैं पर इनकी मूँछें आती ही नहीं है . मूछों के नाम पर ईश्वर इन्हें चार छ: बाल ही दे पाए थे कि किसी आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड गया . बेचारे तीसरे मोर्चे में शामिल हो गए और जमे जमाए तर्क कुतर्क रट लिए .
मजे की बात यह कि ऐसे लोगों में कुछ नारियाँ भी हैं जिन्हें मूँछें न होने का मलाल रहता है . अगर ईश्वर इन्हें कहीं अकेले दुकेले मिल जाए तो ईश्वर का भगवान ही मालिक है . ये शायद झगड ही बैठें . इनको असल में हर चीज में पुरुषों की बरावरी करने का जुनून रहता है , फिर चाहे वह चीज अच्छी हो या बुरी . इन्हें बरावरी के चक्कर में गाली गलौज तक से परहेज नहीं . शायद इसी से मूँछों की कमी पूरी हो जाय .
खैर आगे बढते हैं . ऐसा नहीं है कि मजबूरी ने सिर्फ तीसरे मोर्चे वालों को ही घेरा हो . मजबूरियाँ नत्थूलाल एण्ड पार्टियों के सामने भी हैं . असल में उनमें से कुछ ऐसे जिन्हें मूछें बोझ मालूम होती हैं पर वे अपनी इमेज में कैद हो चुके हैं . उससे बाहर चाहकर भी नहीं निकल पाते . ऐसे लोग मूँछें साफ करने के सपने देखा करते हैं पर बिना मूँछों के समाज में कैसे मुँह दिखाएंगे इसी सवाल को हल नहीं कर पाते . कुछ साहसी लोग बहाने तलाशने में सफल रहते हैं मूँछें साफ कर लेंगे , उसे दुर्घटना का रूप देने की कोशिश करेंगे , कहेंगे कि गलती से साफ हो गई या नाई की गलती है कहकर नाई को चार गालियाँ देंगे . कुछ घाघ टाइप लोग धीरे धीरे लम्बी प्रकिया में योजनाबद्ध तरीके से मूँछें साफ कर देते हैं . पहले छोटी , फिर और छोटी , फिर मक्खी जैसी और उसके बाद तो पब्लिक को याद ही नहीं रहता कि इनके मूँछें हैं या नहीं . बस मौका देखकर किसी दिन उस्तरा फिर जाता है . और बन गए देवता !

मंगलवार, जनवरी 20, 2009

बिलाग पर कुछ अईसा लिखो कि...


"अरे ऊ अफसर को बुला तो फुनवा पर जो बिलागर है "
अफसर फोन पर आता है ।
" हेल्लो सर गुड मॉर्निंग "
" ए अफसर ! हम सुना हूँ तुम ऑफिस में खाली बिलागिंगै करता रहता है "
" नहीं नहीं सर वो ऐक्चुअली ...'
" अरे हप ! हमका सब मालूम है , तुम्हारे ऊ सुरतिया ने हमका सबै बता दिया है "
" नहीं सर वो सुरतिया नहीं होगा वो तो ऐक्चुअली ..."
" अरे हप ! हम जानबूझकर गलत बोला हूँ . अच्छा डरो मत हमका ई बताओ ई बिलागिंग का कोनू फायदा भी है कि खाली टाइमै खराब करता है ? ''
" नहीं सर इससे पब्लिक तक अपनी बात अच्छी तरह पहुँचा सकते हैं "
" अच्छा ठीक है पब्लिक को ई बता दे कि हम ज्यादे बच्चे पैदा करके कुछ गलत नहीं किया हूँ "
" जी सर ठीक ही तो कह रहे हैं , मैं तो कहता हूँ सभी को ज्यादा बच्चे पैदा करने चाहिए , इससे देश आगे बढेगा , जितने हाथ उतना काम...."
" अरे हप ! भाषण तो हम खुदै बहुत दे लेता हूँ . बिलाग पर कुछ अईसा लिखो कि...."

यह बातचीत चल ही रही थी कि मेरी आँख खुल गई और यह सपना अधूरा ही रह गया .

सोमवार, जनवरी 19, 2009

तौबा तौबा गम्भीरपना !


वो खुद हडकाकर पूछ रहे ,
तुमको किसने हडकाया है ।
आ गया घोर कलियुग अब तो ,
राहु केतु की छाया है ॥

जो हडकाते हैं हमें यहाँ ,
ये कहते हैं आभार उन्हें ।
जब इनके जैसे मित्र मिले ,
दुश्मन की क्या दरकार हमें ॥

कल सुबह सुबह हडकाई खा ,
हमने खुद यह फैसला लिया ।
गम्भीर बनेंगे अब हम भी ,
यह हा हा ठी ठी बहुत किया ॥

जब पहुँच गए हम ड्यूटी पर ,
हमने मित्रों को बता दिया ।
"हमको समझें गम्भीर सभी"
वे बोले "तूने बुरा किया ॥

तूने वादा यह कठिन किया ,
यह निभा सकेगा तू कैसे ?
चल यही शर्त रख लेते हैं ,
हँसने पर देगा तू पैसे ॥"

लग गई शर्त हम भूल गए ,
वे जोक सुनाते रहे हमें ।
हम हँसते थे बिल बढता था ,
इसका कुछ भान न था मन में ॥

जब घर आने का समय हुआ ,
तब हमको बिल दे दिया गया ।
मित्रों को हमको ठगने का ,
यह खूब तरीका मिला नया ॥

ले गए एक सौ का पत्ता ,
पूरे दस बार हँसे थे हम ।
तौबा तौबा गम्भीरपना ,
भई खुलकर खूब हँसेंगे हम ॥

कोष्ठक में : कृपया कोई इसे अपने ऊपर आक्षेप न समझे । यह सब हँसी मजाक ही है !

रविवार, जनवरी 18, 2009

लो आज हो गई हडकाई !


हम भी दर्द लिखेंगे अब ,
लो अपना दिल भी टूट गया ।
हम झगडा किससे करते थे ,
पर यार कौन सा रूठ गया ॥

लो आज हो गई हडकाई ,
अब खुश हो लें जलने वाले ,
ढल गए वक्त के साथ सभी ,
पर हम न हुए ढलने वाले ॥

क्या जबरदस्त हडकाई थी ,
सब रोम रोम हिल गया आज ।
शायद अब याद रहे आगे ,
क्या खूब सबक मिल गया आज ॥

इस कम्प्यूटर की भाषा में ,
भावना नहीं लिख पाते हम ।
लिखना तो खुशी चाहते हैं ,
पर लिख जाता है गम ही गम ॥

सबने विवेक से काम लिया ,
पर हम किससे लें काम कहो ।
दिल ने तो कहा रखो संयम ,
बेकार भावना में न बहो ॥

शनिवार, जनवरी 17, 2009

धैर्य की परीक्षा !


हमने बचपन से अब तक बहुत सारी परीक्षाएं दी हैं । कच्ची एक से लेकर आई ए एस तक विभिन्न परीक्षाओं में भटकते रहे । शुरुआत में जितनी परीक्षाएं दीं घर वालों के डर से दीं . हालाँकि बाद में अपनी मरजी से भी परीक्षा देते रहे और अब तो आदत सी हो गई है । पर हमको फीस हमेशा देनी पडी ।

पर अब पता चला है कि पाकिस्तान भारत के धैर्य की परीक्षा ले रहा है । ले क्या रहा है एक अरसे से लेता आ रहा है । इसमें अनौखी बात यह है कि परीक्षार्थी को फीस भी देनी नहीं पडती । पास भी हमेशा हो जाता है । पर फिर अगली बार वही परीक्षा देनी पडती है । बेचारा परीक्षार्थी रोता रहता है । "हमारे धैर्य की परीक्षा न लो , हम फेल हो जाएंगे ।" पर पाकिस्तान विश्वविद्यालय को शायद परीक्षार्थी की होशियारी का ज्यादा पता है कि यह फेल तो हो ही नहीं सकता ।


यहाँ परीक्षार्थी को शायद मालूम ही नहीं कि जब तक फेल न होगा बार बार परीक्षा देते रहनी पडेगी । है न अनौखी परीक्षा ?

शुक्रवार, जनवरी 16, 2009

बहुत मज़ा है !

बहुत मज़ा है, हफ्ते में बस एक बार नहाने में ।
बहुत मज़ा है, बाथरूम में बेढंगा गाने में ॥

बहुत मज़ा है, माँग माँगकर तम्बाकू खाने में ।
बहुत मज़ा है, किसी बडे नेता को गरियाने में ॥

बहुत मज़ा है, बिना काम ही शिफ्ट गुज़र जाने में ।
बहुत मज़ा है, कार्यस्थल से थककर घर जाने में ॥

बहुत मज़ा है, पैसा लेकर साफ मुकर जाने में ।
बहुत मज़ा है, मूर्खदिवस पर सबको बहकाने में ॥

बहुत मज़ा है, बिना किराये के बस में जाने में ।
बहुत मज़ा है, पॉपकॉर्न को एक एक खाने में ॥

बहुत मज़ा है, हाथ देखकर भविष्य बतलाने में ।
बहुत मज़ा है, लगभग हारा मैच जीत जाने में ॥

बहुत मज़ा है, सीमा गुप्ता जी को हँसवाने में ।
बहुत मज़ा है, चर्चा में उल्लेख किए जाने में ॥

बहुत मज़ा है, ज्ञान दत्त पाण्डेय को टिपियाने में ।
बहुत मज़ा है, कुश से दूरभाष पर बतियाने में ॥

बहुत मज़ा है, रोज़ नहीं लिखते हो इस ताने में ।
बहुत मज़ा है, फुरसतिया से शाबाशी पाने में ॥

बहुत मज़ा है, गलती करने में फिर मुस्काने में ।
बहुत मज़ा है, बचना सिंह से हडकाई खाने में ॥

गुरुवार, जनवरी 15, 2009

हम तो गज़ल कहेंगे

हमरी कविता तुकबन्दी है , उनकी गज़ल कहाए ।

भेदभाव होता कवियों में , कैसी मुश्किल हाए ॥

वो लिख दें कुछ उल्टा सीधा , उसको व्यंग्य कहेंगे ।

हमसे अगर गलत लिख जाए , ताने खूब सहेंगे ॥

वो आपत्तिजनक लिखें तो , धन्यवाद पाते हैं ।

हम जो आदरणीय लिखें , तो हडकाए जाते हैं ॥

वो चाहें तो टीप टीपकर , छापें किताब आधी ।

हम जो कॉपी पेस्ट करें तो , बहुत बडे अपराधी ॥

वो ब्लॉगिंग के मठाधीश हैं , उनसे सब डरते हैं ।

लेकिन अपनी क्या बिसात , बस पानी ही भरते हैं ॥

उनको खूब टिप्पणी मिलती , लाइन लगी रहती है ।

लेकिन यहाँ टिप्पणी देवी , रूठी ही रहती है ॥

लेकिन यार कहे देते हैं , हम तो गज़ल कहेंगे ।

डटे रहेंगे आक्षेपों की , धारा में न बहेंगे ॥

बुधवार, जनवरी 14, 2009

भावी ब्लॉगर !

ATUL
मुझे लगता है कि गंगा किनारे वालों में मस्त रहने और मौज लेते हुए जीने का सद्गुण जन्मजात होता है ! ऐसे ही हमारे एक साथी हैं अतुल अग्रवाल जो संयोगवश हमारे मित्र भी हैं । ये अनूपशहर से हैं । फिलहाल हमारे साथ इंडियन ऑइल की पानीपत रिफाइनरी में ऑपरेटरी कर रहे हैं .

जब हम इनके साथ ड्यूटी कर रहे हों तो पढाई की आशा त्यागकर निस्वार्थ भाव से ड्यूटी करते हैं । क्योंकि जब विद्यार्थी के बारे में इनके विचार लीक से हटकर हैं तो हमें क्या पढने देंगे ।कहते हैं :
" अरे जब हम नहीं पढ सके तो तुम क्या पढोगे !"
इनकी आदत है हर चीज को अपने अनुरूप ढाल लेना . इनका परम्परा जैसे शब्दों से छ्त्तीस का आँकडा रहता है । इनके विद्यार्थी के बारे में विचार देखिए :
खाकचेष्टा स्त्रीध्यानं रात्रिनिद्रा तथैव च
पेटभारी फिल्मप्यारी विद्यार्थी पंचलक्षणम्

कमाकर खर्चकरना इनका स्वभाव है . इन्हें ज्यादा बचत करने से परहेज है । हमें शेयर मार्केट में इन्होंने ही घुसाया था । अब आगे का हाल तो आप स्वयं जानते हैं . कहते हैं सालों की मेहनत खुद नहीं खाओगे तो साले खा जाएंगे :
सालों की मेहनत सालों की कमाई
सालों ने सालों खाई
इनका मंत्र है कि :
टेंशन लेने का नहीं
टेंशन देने का !
अब आप सोच रहे होंगे कि इदम् अतुलायणम् किम् प्रयोजनम् ? तो बता दें कि यह सब दर असल बदले की भावना के वशीभूत होकर किया जारहा है । जैसे इन्होंने हमें शेयर मार्केट के पंक में घुसाया वैसे ही हम इन्हें देर सवेर ब्लॉगिंग के पंक में घसीटकर लाने वाले हैं ।
आप हमें इतना बताइए कि कहीं ऐसा आदमी ब्लॉगिंग के लिए अशुभ तो नहीं ? इन्हें घसीट लाएं ?

मंगलवार, जनवरी 13, 2009

नक्कारखाने में तूती

बडी प्रतिभा की छाया में छोटी प्रतिभा दबकर रह जाती है । उसे विकसित होने का पूरा मौका नहीं मिल पाता । अक्सर क्रिकेट की कमेँटरी सुनते समय मैनें कमेण्टेटर को कहते सुना है कि सचिन तेण्दुलकर की प्रतिभा के साये में सौरव गांगुली और राहुल द्रविड की प्रतिभाओं के साथ पूरा न्याय न हो सका । उन्हें कभी वह स्थान न मिल सका जिसके वे हकदार हैं ।

अभी पिछले दिनों इसी तरह का एक और केस हो गया । छोटे राजू ने सौ करोड का धमाका प्लान किया हुआ था । सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं कि अचानक बडा राजू उससे कई गुना बडा धमाका करके चलता बना । हो गया न छोटे राजू के साथ पंगा । बेचारा न घर का रहा न घाट का । अब धमाका इस स्थिति में भी न था कि उसे डिले किया जा सके । लिहाजा औपचारिकता पूरी करनी ही पडी ।

हमने अब तक न तो नक्कारखाना देखा और न ही तूती । फिर भी और किसी उपमा के अभाव में कह सकते हैं कि छोटे राजू का धमाका नक्कारखाने में तूती की भाँति फिस्स हो गया । इस नजरिये से देखें तो बडे राजू पर छोटे राजू की प्रतिभा हनन का केस भी बनता है । ऐसे ही लोगों की वजह से हमारा देश प्रतिभा पलायन का शिकार है ।

सुना है बडे राजू बुद्ध की शरण में चले गए हैं । कौन जाने बुद्ध की शरण में गए हैं या सबको बुद्धू बना रहे हैं !

रविवार, जनवरी 11, 2009

बेशर्मी का विश्व-रिकार्ड !

हटना मत चाहे कुछ भी हो जाए गुरुजी ।

बेशर्मी का विश्व रिकार्ड बनाएं गुरुजी ॥

छ: महीने के बाद बने रहकर दिखलाओ ।

गिनीजबुक में नाम दर्ज़ हो जाए गुरुजी ॥

अभी समय है कोशिश करो चुन लिए जाओ ।

शायद कोई चमत्कार हो जाए गुरुजी ॥

जब कुर्सी से प्यार किया तो डरना कैसा ।

इसीलिए तो मेरे मन को भाए गुरुजी ॥

शायद इस दाढी में ही कुछ खोट हुआ हो ।

एकबार दाढी को तो कटवाएं गुरुजी ॥

एक ऑप्शन बचा केन्द्र में मंत्रीपद का ।

अभी समय है उसको भी अजमाएं गुरुजी ॥

आप सरीखा मुख्यमंत्री मिला भाग्य से ।

राज्य आपसे क्यों वंचित हो जाए गुरुजी ॥

हो सकता है आई एस आई की साजिश हो ।

अच्छे लोगों को ही यह हटवाए गुरुजी ॥

जब तक इच्छा करे रहोगे मुख्यमंत्री ।

डटे रहो यदि बलपूर्वक न हटाएं गुरुजी ॥

शनिवार, जनवरी 10, 2009

छीछालेदर हो गई

छीछालेदर हो गयी, खत्म हुई हडताल ।
कांग्रेस सरकार का, हुआ न बांका बाल ॥
हुआ न बांका बाल पड गए अफसर ढीले ।
त्राहि त्राहि मच गई हो गए कपडे गीले ॥
विवेक सिंह यों कहें जोश हो गया है ठण्डा ।
नए जमाने में न चला हडताली फण्डा ॥



पेश हैं कुछ हायकू
मुख्यमंत्री हैं ।
चुनाव हार गए ।
शर्म न आई ॥
हडताल की ।
मगर डर गए ।
वापस लेली ॥
जाडा ज्यादा है ।
बचके रहना जी ।
जुकाम न हो ॥
घोटाला किया ।
खुद उगल दिया ।
बेचारे राजू !!

शुक्रवार, जनवरी 09, 2009

सितारे फना नहीं होते

जब सुबह बाथरूम में नहाने गया तो गरम पानी मौजूद था । जैसे ही लोटे को पकडा तो आवाज आई :
"ठण्डे ठण्डे पानी से नहाना चाहिए"
यह महेन्द्र कपूर साहब की आवाज थी । मैंने जब पहली बार यह आवाज सुनी तभी से इसका भक्त हो गया था । लम्बे समय तक मेरा नाता केवल आवाज से रहा । आवाज ही पहचान थी । बाद में नाम से भी महेन्द्र कपूर को जानने लगा । और बहुत बाद में उनका फोटो देखा ।
बचपन में ही उनकी आवाज का जादू हमारे सिर चढकर बोलता था । गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस जैसे अवसरों पर तो हम जैसे रेडियो से चिपक जाते थे । कई बार तो ऐसा भी हुआ कि इसी चक्कर में विद्यालय के समारोह में न गए । घर पर कह दिया , " देशभक्ति के गीत सुनेंगे ।"
बाद में बी. आर. चोपडा का महाभारत सीरियल आया । हर रविवार को सवा नौ बजे यही आवाज जैसे सब कुछ रोक देती थी । चलता था तो बस महाभारत !
आज महेन्द्र कपूर हमारे बीच नहीं हैं । लेकिन उनकी आवाज हमेशा हमारे साथ है ।
विकट परिस्थितियों में हतोत्साहित होने पर हमें हौसला देती आवाज :
" गमों का दौर भी आए तो मुस्करा के जिओ "
दिल में कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा करती आवाज :
ऐसा कुछ कर पाएं, यादों में बस जाएं
सदी-ओ-जहान में हो चरचा हमारा
यारा दिलदारा मेरा दिल करता
जीवन की कसक को सामने लाती अवाज :
बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी
और सबसे आगे बढकर , देशभक्तों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती आवाज :
मेरे देश की धरती सोना उगले
उगले हीरे मोती
मेरे देश की धरती॥
दर असल मेरे देश की धरती ने इस हीरे को आज ही के दिन यानी 9 जनवरी 1934 को अमृतसर, पंजाब में उगला था . वे छोटी उम्र में ही बम्बई आगए और मुहम्मद रफी जैसे महान पार्श्व गायक से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया । अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद रफी साहब ने इन्हें अपना शागिर्द स्वीकारा और तालीम देते रहे .
लगभग पाँच दशक तक महेन्द्र कपूर पार्श्व गायन से जुडे रहे । इस अवधि में उन्होंने विभिन्न भाषाओं के लगभग पच्चीस हज़ार गीतों को अपनी आवाज से सजाया । उन्होंनें हर रंग के गीत गाए . देशभक्ति गीतों में तो जैसे उनका एकाधिकार ही था ।
उनसे कभी हमारी मुलाकात न हो सकी , फिर भी दिल कहता है :
सपनों में ही हो चाहे मुलाकात तो होगी
कुछ ही दिन बाद गणतंत्र दिवस है । महेन्द्र कपूर की आवाज फिर गूँजेगी . पर यह सितारा घटाओं में छुप गया है । आवाज आरही है :
घटा में छुप के सितारे फना नहीं होते .

गुरुवार, जनवरी 08, 2009

गिनीज बुक में राजू


सच मानिए राजू जब छोटा था तो नित्य राधा के साथ हँसते गाते स्कूल जाता था . और साफ सफाई का भी विशेष ध्यान रखता था . मतलब कुल मिलाकर राजू वाज ए गुड बॉय !
लेकिन किशोरावस्था तक आते आते राजू आवारा हो गया . घराना अनाम हो गया , गंगा किनारे गावँ हो गया . अपना नाम जोकर रख लिया और टीचर से ही नयन मटक्का कर बैठा . पर बेचारा पहले प्यार में ही फेल हुआ . सिर मुडाते ही ओले पडे . एक बार फेल क्या हुआ फिर फेल ही होता गया . पर जैसे रात के बाद दिन आता है वैसे असफलताओं के बाद सफलता भी मिलती है . आखिरकार राजू ने जूही से चक्कर चलाया और सफल होगया . अब राजू जैण्टलमैन बन चुका था . पर भला कोई जैण्टलमैन कभी चैन से रह सका है ? तो राजू भी कुछ दिन बाद सडकों पर गाते सुना गया, " ओए राजू प्यार ना करियो ! डरियो, दिल टूट जाता है ! "
इसके बाद तो जैसे उसका सम्पर्क देश के बाकी हिस्सों से कट गया . राजू मुख्य धारा से हट गया . गुमनामी के कुहरे में छुप गया . लम्बे समय बाद कल राजू फिर नज़र आया तो एक नए ही रूप में , नए धमाके के साथ . उसने आठ हज़ार करोड का धमाका किया था . पर राजू ने अपनी जैण्टलमैन की इमेज को कोई नुकसान नहीं पहुँचने दिया . भई वह अपनी गलती स्वयं मान गया और कानून का सामना करने के लिए तैयार है .
सोचने वाली बात है कि किसी ने कोई अपराध किया और कानून के द्वारा निर्धारित सजा भी भुगत ली तो उसको उसकी गलतियों को भूल जाना चाहिए . जब अपराधी को सजा भुगतने के बाद भी कोई अपराधी कहे तो उसे कितनी ठेस पहुँचती होगी ? शिव शिव ! यह तो ऐसे ही होगया जैसे आप किसी से लोन लो और उसे चुका देने के बाद भी वह आपको तकादा करता रहे .
कुछ लोग तो यह भी कहते सुने गए हैं कि राजू का धमाका अपनी तरह का एक ही है इसलिए इसे गिनीज बुक में जगह मिलनी ही चाहिए .

बुधवार, जनवरी 07, 2009

कौए से भेदभाव

बच्चे को होश सँभालते ही बता दिया जाता है कि कौआ बुरा होता है क्योंकि यह काँव काँव करता है . और कोयल अच्छी है क्योंकि यह कुहू कुहू की मीठी आवाज सुनाती है . पर अगर इतने पर भी हमें कौए से नफरत न हो तो इसमें हमारी क्या गलती ? हमें तो उसकी काँव काँव कोयल की कुहू कुहू से मधुर लगती है . यह कोई जरूरी तो नहीं कि जो सबको अच्छा लगे वही हमें भी अच्छा लगे .
कौआ बेचारा कितना परिश्रम करता है ! इसकी प्रतिभा को हमारे ऋषि मुनियों ने बहुत पहले ही पहचान लिया था . इसीलिए तो लिख गए -
काक चेष्टा, वको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च .
अल्पाहारी, गृह त्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणम् ..

मगर हम ऋषियों की वाणी को भूलकर कौए के सद्गुणों को पहचान न सके . हमने उसे आलसी समझकर 'कौए और गिलहरी' की मनगढंत कहानी रच ली . कौए ने हालाँकि पानी में कंकड डालकर पानी पिया और अपनी चतुराई को सिद्ध करने का भरसक प्रयास किया . लेकिन हमें उसमें भी उसकी कोई चाल दिखाई दी . और हमने कौए के साथ भेदभाव जारी रखा .

उधर कोयल को मुफ्त में सम्मान की गठरियाँ सप्लाई किए जारहे हैं क्योंकि वह तथाकथित मीठा बोलती है . मान लिया बोलती होगी मीठा . पर आजकल मीठा बोलने से कोई काम होता है क्या ?

किसी ऑफिस में चले जाइए . क्लर्क से कोई काम कराना हो तो मीठी आवाज में कहिए ," सर ! प्लीज मेरी फाइल आगे बढा दें " खडे खडे रिश्वत की डिमाण्ड कर बैठेगा . और अगर आपने जाते ही उसको हडका दिया तो हो सकता है घुडकी में आकर आपको दादा समझ ले और आपका काम हो जाय . इसीलिए तो फोन पर लोग यूँ ही दूसरों को हडकाते देखे जाते हैं . कोई अपने को विधायक बताकर थानेदार को हडका देता है , कोई मुख्यमंत्री बनकर सचिव को हडका देता है और कोई प्रणव मुखर्जी बनकर जरदारी को हडका देता है . मीठी आवाज का मार्केट अब लगातार निचले स्तरों को छूरहा है . इसको जितनी जल्दी मान लिया जाय उतना अच्छा रहेगा .

हमने सभी जानवरों और पक्षियों को उनकी जीवन संगिनियों के साथ माना , जैसे मोर के साथ मोरनी तथा गधे के साथ गधी , पर बेचारे कौए को यहाँ भी भेदभाव का शिकार होना पडा . कौए की कौवी को अब तक मान्यता नहीं दी गई . इस मामले में महिला आयोग भी कुछ नहीं कहता .

हम कौए को शातिर बताते हैं पर उससे ज्यादा शातिर तो हम खुद हैं . वैसे तो साल भर उसे बुरा बुरा कहते रहेंगे . लेकिन श्राद्धपक्ष में स्वर्गीय पूर्वजों को भोजन भेजना हो तो कौए को ही बुलाएंगे . अब बताइए कौन मौकापरस्त हुआ ?

अक्सर एक तुकबंदी भी सुनने में आती है :

रामचन्द्र कह गए सिया से कलयुग ऐसा आयेगा

हंस चुगेगा दाना तिनका कौआ मोती खाएगा

पहली बात तो हमें कोई यह बताए कि रामचन्द्र ने ऐसा कहा था इसका प्रमाण क्या है ? और अगर कोई प्रमाण है भी तो इस बात का क्या सुबूत है कि यह प्रमाण निराधार नहीं है ? हमने रामकथा कई बार सुनी है . उसमें कहीं नहीं कहा गया कि रामचन्द्र सीता जी को छोडकर कहीं चले गए थे . हाँ, इतनी गुंजाइश अवश्य है कि सब्जी वगैरह लेने चले जाते हों , पर उसके लिए लक्ष्मण जी थे .

चलो उन्होंने ऐसा कह भी दिया होगा तो उनकी बात कौन सुन रहा था वहाँ . उस जमाने में आजकल की भाँति टीवी चैनल तो थे नहीं जो उन्होंने संवाददाता सम्मेलन बुलाकर यह बात कही हो . जाहिर है संवाददाता सम्मेलन बुलाते तो संवाददाताओं से कहते सीता जी से क्यों कहते ? और सीता जी से ही कहना था तो संवाददाता सम्मेलन क्यों बुलाया ?

इन सब अकाट्य तर्कों के बावजूद यदि हम यह मान भी लें कि यह बात रामचन्द्र जी ने सीता जी से कही होगी तो इसमें बुरा क्या है ? क्या हंस को मोती खाने का सर्टिफिकेट मिला हुआ है कि भाई तू मोती ही खाएगा . अगर वह मेहनत न करे तो आज के समय में उसे दाना तिनका भी न मिलेगा . और मिलना भी नहीं चाहिए .

कौआ अगर अपनी मेहनत से मोती कमाकर खाता है तो कौन सा पहाड टूट पडेगा ? उसे क्या सिर्फ इसलिए मोती नहीं खाना चाहिए कि वह कौआ है ? बताइए कौए के कौआ होने में कौए की क्या गलती है ?

अगर कोई इस आधार पर कलयुग को बुरा समझे तो हम उससे यही कहेंगे कि अभी कलयुग आया ही नहीं . क्योंकि हमने अभी तक कौए को मोती खाते हुए नहीं देखा है . और हंस को तो देखा ही नहीं . कौआ बेचारा पेट की खातिर दर दर भटक रहा है . मेहनत के बावजूद उसे मोती नहीं मिल रहे . हंस बिना मेहनत के ही मोती उडा रहा है . जल्दी से कलयुग आ जाए तो कौए को भी मोती मिलें . और हमें शांति !

सोमवार, जनवरी 05, 2009

मुए बता फिर तू क्या पीता ?


कुहरे का प्रकोप था भारी ,
सभी ओर पसरा था जाडा ।
एक गावँ की बुढिया घर से,
निकली लेकर बस का भाडा ॥
बस अड्डे पर पहुँच गई तो,
होने लगी उसे लघुशंका ।
समाधान था बहुत जरूरी,
मिला उपाय न कोई ढंग का ॥
चारों तरफ निराशा देखी,
सहसा एक आइडिया आया ।
कुहरा खूब घना देखा तो,
कुहरे का ही लाभ उठाया ॥
उसने अपना काम जरूरी,
बस के पीछे जा निपटाया ।
लेकिन जब आरही थी वापस,
एक पुलिसवाला टकराया ॥
बोला " बुढिया ! चुपके चुपके ,
इधर कहाँ से तू आती है ?
तूने कोई चोरी की है,
या फिर तू आतंकवादी है ॥ "
बुढिया थी सीधी बेचारी,
आरोपों से बहुत डर गई ।
उसने कुछ भी नहीं छुपाया,
तुरत फुरत सच बयाँ कर गई ॥
सख्त और तब हुआ सिपाही,
"यह तो बहुत बडी गलती है ।
पाँच रुपये जुर्माना देगी,
या फिर तू थाने चलती है ?"
पाँच रुपये देकर बुढिया ने,
झंझट से पीछा छुडवाया ।
लेकिन आगे के मंजर पर,
आँखों को विश्वास न आया ॥
वही सिपाही पाँच रुपये का,
सिक्का जब हॉकर को देकर ।
भरवाके कप एक चाय का,
पीता था चुस्की ले लेकर ॥
जाकर पास कहा बुढिया ने,
"इस वर्दी को लगे पलीता ।
मुझे न जो लघुशंका होती,
मुए बता फिर तू क्या पीता ?"

शनिवार, जनवरी 03, 2009

भिखमंगों का धर्म ?

अक्सर आतंकवाद पर बहस होती है कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता . मान लिया . पर धर्म होता किसका है ? भिखमंगों का ?
जब मैं छोटा था पूर्णागिरि जाने का मौका मिला . नानी और मामा साथ में थे . नानी को पहले से मालूम था कि वहाँ पर बहुत भीख माँगने वाले बैठे मिलेंगे इसलिए उन्होंने पहले से ही कुछ सिक्के मुझे और कुछ मेरे ममेरे भाई को दे दिए थे . हमें कहा गया कि ऊपर चढते समय और वापस उतरते समय हमें अपनी मरजी से यह पैसे देने थे पर ध्यान रखना था कि नौटंकीबाज भिखमंगों की बजाय यह सिर्फ ऐसे भिखमंगों को दिया जाय जो अपंग हों . हमने अपनी बालबुद्धि से निर्णय करके पैसे देना जारी रखा . हम यह भी चाहते थे कि पैसा लौटते समय ही खत्म हो .
हालाँकि हम कुछ बीस पैसे या बहुत हुआ तो पचास पैसे से ज्यादा एक भिखमंगे को नहीं दे रहे थे . फिर भी अगर सच पूछा जाय तो हमें खुद के दानी होने का भ्रम हो गया था . किंतु एक भिखमंगे ने सारा घमण्ड चूर चूर कर दिया . हुआ यूँ कि जैसे ही हमने उसके कटोरे में बीस पैसे डाले और आगे बढे वह पीछे से चिल्लाया , " अरे पैसे कम हों तो हमसे लेजाओ ! " हमने उससे कुछ लिया तो नहीं था . हाँ कुछ दिया ही था . इसलिए हमारी मति से उसे चिल्लाना नहीं चाहिए था . और न ही हमें कोई शर्मिन्दा होने की आवश्यकता थी . पर हम शर्म से धरती में ऐसे गढे जा रहे थे जैसे हमारे हाथों बहुत बडा अपराध हो गया हो .
इस घटना को आज सत्रह साल बीत चुके हैं . पर लगता है कल की ही बात हो . बाद में किसी ने बताया कि भीख माँगना एक धन्धा बन गया है . बातों बातों में यह भी जाना कि सिक्ख कभी भीख नहीं माँगते . हालाँकि इस तथ्य पर मुझे पहले पूरा विश्वास न हुआ . पर अब तक यह तथ्य कभी झूठ भी साबित नहीं हुआ . इसलिए अब विश्वास होने लगा है . हिन्दू भीख माँगते देखे हैं , मुसलमान भी देखे हैं पर सिख आज तक नहीं देखे .
जैसे जैसे यह विश्वास पुख्ता होता जाता है . सिक्खों पर श्रद्धा बढती जाती है . ईश्वर करे मेरा विश्वास सच हो . सोचता हूँ जब सिक्ख बगैर भीख माँगे रह सकते हैं तो हिन्दू व मुसलमान क्यों नहीं ?

शुक्रवार, जनवरी 02, 2009

तू क्या है ?

हर इक बात पै कहते हो तुम कि तू क्या है .

तुम्हीं कहो कि ये अन्दाजे गुफ्तगू क्या है .

शायद मिर्ज़ा गालिब ने यह शेर काफी आजिज आकर कहा होगा . अगर कहने वाला यह कहता या कहती कि ," तुम क्या हो ?" तो शायद उनके दिल पर इतनी चोट न लगती . पर "तू" शब्द शायद ज्यादा चोट कर गया .

वैसे तो हिन्दी व्याकरण में हमने पढा है कि अपने से छोटों के लिए "तू" , बराबर वालों के लिए "तुम" और अपने से बडों के लिए "आप" का प्रयोग किया जाता है . मगर इस नियम का पालन व्यवहार में कम ही देखने को मिलता है . अक्सर देखते हैं कि गावँ में माँ को तू कहकर पुकारते हैं . स्वयं मैं भी अपनी मम्मी और अम्मा को तू कहकर सम्बोधित करता हूँ . सूरदास जी ने भी कहा था ," तू मो ही को मारन सीखी ." भगवान को भी तू कहा गया है .

हालाँकि शहरों में यह कम देखने को मिलता है . बल्कि यहाँ तो लोग छोटे छोटे बच्चों तक को आप ही कहकर पुकारते हैं . इससे तू शब्द लुप्तप्राय: सा हो चला है . हरियाणा में ऐसे स्थान भी हैं जहाँ पर तू के अलावा दूसरा सम्बोधन देखने को ही नहीं मिलता . माँ भी तू , बापू भी तू और भाई भी तू . शायद उसी का प्रभाव है कि हमारे ब्लॉगजगत के ताऊ को भी प्राय: लोग तू कह देते हैं . पर किसी को भी इसमें उनका अपमान होता नहीं दिखता क्योंकि ताऊ हरियाणा की पहचान हैं .

फिल्मों में तो माँ को अब तक तू कहा जा रहा है . फिर फिल्म चाहे नए जमाने का प्रतिनिधित्व करती हो या पुराने जमाने का . बल्कि फिल्म वाले तो प्रेमिका और प्रेमी को भी आपस में तू तडाक कराते हैं . किंतु इस मामले में हमारे फिल्म वाले काफी फ्लेक्सीबिल हैं जैसी तुक गाने में सही बैठे वैसा कहला देते हैं . कभी कभी तो एक ही गाने में तीनों रूप देखने को मिल जाएंगे .

कितने अपने लगते हैं बचपन के मित्र जो हमें तू कहकर बुलाते हैं ! और हम भी जिन्हें तू कहते हैं .

इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि तू में प्यार , अनन्यभाव और अपनापन छुपा है जबकि बाकी सम्बोधनों में औपचारिकता और डर छुपा रहता है . पर इसमें बहस की गुंजाइश पूरी है क्योंकि ये हमारे निहायत ही निजी विचार हैं . हमारी पार्टी लाइन का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है .

आप भी अपने विचार रखें तो कुछ बात बने . क्या तू कहना असभ्यता है ? किसको तू कह सकते हैं ?

मित्रगण