गुरुवार, जुलाई 30, 2009

फ़ुरसत मिले ढेर सारी तो...

रूठ गयी हैं देवि सरस्वति,

देव आइडिया भी रूठे ।

कुछ विचार थे अधकचरे से,

मुई व्यस्तता ने लूटे ॥

यह जीवन की दौड़ धूप सी,

हमको रास नहीं आती ।

व्यस्त देखकर देवि कल्पना,

भी, अब पास नहीं आती ॥

मिले ढेर सारी फ़ुरसत तो,

संग कल्पना के डोलें ।

सच को दूर भगाकर कुछ दिन,

झूठ हर समय बस बोलें ॥

यारों के संग ताश खेलकर,

खुलकर हँसने की बारी ।

अट्टहास कर शोर मचायें,

होती हो ज्यों बमबारी ॥

बुधवार, जुलाई 29, 2009

भये प्रकट समीरा

समीर लाल 'समीर' उड़नतश्तरी वाले उर्फ़ स्वामी समीरानन्द बाबा के नाम से हिन्दी ब्लॉगजगत में कौन अपरिचित होगा । आपकी उड़नतश्तरी.....जबलपुर से कनाडा तक...सरर्रर्रर्र... गयी थी । आप 1963 में जबलपुर में अवतरित हुए । आपने हिन्दी ब्लॉगिंग में टिप्पणी के महत्व को सबसे पहले पहचाना और सब हिन्दी ब्लॉगरों को अपना कर्जदार बनाकर छोड़ा नहीं बल्कि उनके ऊपर टिप्पणी का कर्ज़ लादते ही जा रहे हैं, लादते ही जा रहे हैं । आज आपके हैप्पी बड्डे के शुभ अवसर पर हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आप यूँही हिन्दी ब्लॉगरों को कर्ज में डुबोए रहें । हमारी माँग है कि श्री समीर बाबा का जन्म दिवस टिप्पणी दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिये !

चलते-चलते

भये प्रकट समीरा, टिप्पणि वीरा, नव ब्लॉगर हितकारी ।

चढ़ि उड़नतश्तरी, करत ब्लॉगरी, सब जानत नर नारी ।

रहे लिखत कुण्डली, कहत मुण्डली, गज़ल कबहुँ लिखि डारी ।

पड़े टिप्पणि सूखा, ब्लॉग हो भूखा, नाम समीर पुकारी ।

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अति भावुक लिखते, सुन्दर दिखते, श्यामल कोमल काया ।

हुआ जन्म जबलपुर, करी कृपा सुर, ब्लॉगर इन्हें बनाया ।

मिला कंठ सुरीला, रूप सजीला, हृदय सुकोमल पाया ।

हुआ हो विवाद जहँ, साधु साधु कह, चलत चलत टिपियाया ।

सूचना : स्वप्नलोक के एक और शुभचिन्तक श्री अरविंद मिश्रा जी 'क्वचिदन्यतोअपि..........! वाले' , टिप्पणियों का अर्धशतक लगाने में कामयाब हुए हैं । उन्हें बहुत बहुत बधाइयाँ ।

मंगलवार, जुलाई 28, 2009

मौलिक लेखन ज्ञानदत्त जी के लिये



आज ज्ञानदत्त जी ने धमकी दी है कि अगर मौलिक लेखन न हुआ तो वे ब्लॉगिंग छोड़ भी सकते हैं । अब हम तो ठहरे ज्ञान जी के फ़ॉलोअर लिहाज़ा सपने में भी नहीं सोच सकते कि वे ब्लॉगिंग छोड़ें । अत: अपनी सामर्थ्यानुसार मौलिक लेख लिखने की कोशिश कर रहे हैं । इसके मूल में चूँकि ज्ञान जी हैं अत: यह मौलिक के साथ ज्ञानपूर्ण लेख भी माना जाना चाहिये ।

'मौलिक' का शाब्दिक अर्थ होता है मूल से सम्बन्धित । मूल जड़ को कहा जाता है । दूसरे शब्दों में कहें तो आरम्भ ही मूल कहलाता है ।

मूल उस धन को भी कहा जाता है जो किसी साहूकार द्वारा कर्ज़दार को दिया जाता है । इसी पर ब्याज चलता है । अक्सर ब्याज आता रहता है और मूल ज्यों का त्यों बना रहता है । ब्याज को मूल से प्यारा बताया गया है । ब्याज को अंग्रेजी में इण्टरेस्ट कहा जाता है । इण्टरेस्ट का मतलब रुचि लेना भी होता है । शायद इसीलिये ब्याज में साहूकार की रुचि रहती है और ब्याज मूल से प्यारा हो जाता है । सूद भी ब्याज का ही एक नाम है । जिन लोगों को ब्याज की कमाई खाने की आदत होती है उन्हें ब्याजखोर की बजाय सूदखोर कहना अधिक उपयुक्त माना जाता है । सूदखोर की पहचान समाज में लोभी के रूप में स्वत: ही हो जाती है । लोभ ही तो पाप का मूल है । अगर मनुष्य लोभ को त्याग दे तो यह संसार स्वर्ग बन जाय और हम सब स्वर्गवासी, ऐसा ज्ञानीजन समय समय पर पब्लिक को समझाते रहते हैं । पर क्या मजाल कि पब्लिक ज्ञानियों की किसी बात पर जरा भी कान दे । कहीं सत्संग में ज्ञानी जन प्रवचन दे रहे हों तो वहाँ बड़ी भीड़ लग जाती है । पर प्रवचन में कही गयी बातों का कोई प्रभाव जनता पर परिलक्षित नहीं होता । प्रवचन का असर न होने के पीछे मूल कारण यह बताया जाता है कि लोग एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालते रहते हैं ।

ज्योतिष के अनुसार एक नक्षत्र को भी मूल नाम दिया गया है । बच्चे जन्म के समय के नक्षत्र का प्रभाव उसके स्वभाव पर रहता है । जो व्यक्ति मूल नक्षत्र में पैदा हुआ हो उसका स्वभाव सामान्य नहीं रहता ऐसी आम धारणा है । ऐसे बच्चे के नामकरण से पहले उसके मूल शान्त कराने पड़ते हैं । आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म मूल नक्षत्र में होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया था । उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया था । मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म के मूल में जा बसी है । कबीर ने भी मूर्तिपूजा की निन्दा करते हुए कहा था :
पत्थर पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहाड़ ।
जा से तो चाकी भली पीसि खाय संसार ॥
जड़ तो मूल है ही । जड़ के बिना पौधे का अस्तित्व ही नहीं होगा । और पौधों के बिना हमारा । जड़ ही तो है जो मिट्टी से पोषक तत्वों को अवशोषित करके पौधे को बढ़ने में सहायता प्रदान करती है । पौधे अपना भोजन पत्तियों में बनाने हैं और सामान्यत: जड़ों में एकत्र कर लेते हैं । शायद उन्हें पता ही नहीं होता कि यह उनके नहीं किसी और के ही काम आने वाला है । गाजर, मूली, शलजम आदि का मूल ही तो है जिसे खाया जाता है ।

प्राचीनकाल में संन्यासी लोग जंगल में कंद मूल फ़ल खाकर ही तो जीवन निर्वाह किया करते थे ।

अब देखिये न हम मूल मुद्दे से भटककर कहाँ से कहाँ आ गये । चले थे मौलिक लेखन करने , और हो गया अमौलिक । खैर कोई बात नहीं , मौलिक लेखन फ़िर कभी सही । हम कोशिश करते रहेंगे । आप भी करिये !

सोमवार, जुलाई 27, 2009

समीर जी के समर्थन में(कृपया नारियाँ न पढ़ें)

"प्यारे पुरुष भाइयो !

आज हमारे सामने विकट समस्या खड़ी हो गयी है । कुछ मुट्ठी भर असमाजिक तत्वों ने जिनमें लगभग सभी नारियाँ ही हैं, अपनी राजनीति की रोटियाँ सेंकने के लिये सभ्य समाज के नारी वर्ग में सेंध लगाना आरम्भ कर दिया है । और इससे भी अधिक चिन्ता की बात यह है कि कुछ भोली भाली अबलायें इनके बहकावे में भी आने लगी हैं । अगर स्थिति को सँभाला नहीं गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमें अपने ही घर में एक गिलास पानी तक के लिये तरसना पड़ेगा । एक चरम स्थिति यह भी आ सकती है कि हमें अपने ही घर से बाहर निकाल दिया जाये । ईश्वर करे वह दिन कभी न आये ।

इससे पहले कि स्थिति नियन्त्रण से बाहर हो जाये, हमें कुछ कदम उठाने होंगे । अब आप सब गम्भीर होकर मेरी बात ध्यान से सुनिये । सबसे पहले तो आप यह समझ लीजिये हम नारी विरोधी न पहले कभी थे और न हैं । हमारा पक्ष सत्य का पक्ष है । पर मुट्ठी भर नारियों ने हमारी इमेज को सभ्य नारियों की नज़रों में धूमिल करने का कुटिल षडयन्त्र रचा है ताकि उनके उनके क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति हो सके ।

माना कि देश की राजनीति में जगह जगह नारियाँ उभरकर सामने आ रही हैं । हमें इससे रंच मात्र भी आपत्ति नहीं । हम तो रूखी सूखी खाकर ठण्डा पानी पीने के लिये तैयार हैं । लेकिन यह सब हमारी स्वतन्त्रता की कीमत पर न हो इसके लिये हमें देश की राजनीति में हो रहे नारियों के उभारों पर पैनी नज़र रखनी होगी । हमें इस तथ्य को जमाने के सामने लाना ही होगा कि सत्य हमारे साथ है ।

हाँ, अगर घी सीधी उँगली से न निकले तो हमें उँगली टेड़ी करने से भी गुरेज नहीं होना चाहिये । हम उन लोगों में से नहीं जो साध्य के साथ साथ साधन की पवित्रता पर भी जोर देते रहते हैं , और लक्ष्य को कभी हासिल नहीं कर पाते ।

अगर जरूरी हुआ तो हमें कुछ ब्लॉग नारियों के छद्म नामों से बनाने होंगे, और इन्हीं के द्वारा मुट्ठी भर नारियों की पोल खोलनी होगी । क्योंकि नारियों के विरुद्ध पुरुषों की बात तो कोई सुनने के लिए ही तैयार न होगा, तो फ़िर सच झूठ की तो बात ही छोड़ दीजिये । यह तो आप सब जानते ही होंगे कि लकड़ी को काटने के लिये लोहे की कुल्हाड़ी में लकड़ी का हत्था लगाना ही पड़ता है ।

आगे आप स्वयं समझदार हैं । मैं अपना फ़ालतू समय देकर आपका बहुमूल्य समय नष्ट न करते हुए अपने शब्दों को यहीं विराम देता हूँ । और श्री समीर लाल 'समीर' को आमन्त्रित करता हूँ कि वे आपके सम्मुख अपने मुखारविंद से दो शब्द कहकर हमें कृतार्थ करें ।"

वह नेता ऐसा कह ही रहा था कि मेरी आँख खुल गयी और श्री समीर लाल जी का भाषण सुनने का सपना सपना ही रह गया !

सूचना : हर्ष का विषय है कि हिन्दी ब्लॉगिंग के दो और सितारों ने स्वप्नलोक पर टिप्पणियों के अर्धशतक लगाने में सफ़लता प्राप्त की है । ये हैं मानसिक हलचल वाले श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी, और ज्ञानदर्पण वाले श्री रतन सिंह शेखावत जी । सुखद संयोग है कि दोनों ही किसी न किसी तरह ज्ञान से सम्बन्ध रखते हैं । दोनों महानुभावों को कम्पनी की ओर से बहुत बहुत बधाइयाँ ।

जनसंख्या कब बढ़ती है

चीन में काफ़ी समय से एक परिवार एक बच्चे का नारा दिया जा रहा था . पर अब सुनने में आया है कि वहाँ जो लोग स्वयं इकलौती संतान हैं उन्हें दो बच्चे पैदा करने को प्रोत्साहित किया जा रहा है ताकि देश में बूढ़ों के बढ़ते प्रतिशत पर काबू किया जा सके . और भविष्य में श्रमशक्ति की कमी न होने पाये .



चीन ने जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण किया और अब फ़िर से बढ़ाने की कोशिशें होने लगीं, और यहाँ अभी तक पहला ही टारगेट हासिल नहीं कर सके । इस पर कुछ लोगों का यह कहना है कि, " देखा ? हम पहले ही जानते थे इसीलिए कभी मन से कोशिश ही नहीं की . दूरदृष्टि भी तो कोई चीज है . अगर अब भी हम कुछ होशियारी दिखा सकें तो हमें यहीं से पलट जाना चाहिये , रेस में एक तरफ़ चीन से पहले नहीं पहुँचे तो क्या . दूसरी तरफ़ तो पहले पहुँच ही सकते हैं . "

फ़िर भी अगर जनसंख्या कम करनी ही हो तो उसके लिये एक अच्छी रणनीति की दरकार है । तभी न कुछ एक्शन लिया जा सकेगा । दरअसल पहले हमें पता लगाना होगा कि साल के किन किन महीनों में जनसंख्या सबसे ज्यादा बढ़ती है । चिन्ता न करिये हमने पता लगा लिया है । हमारे स्कोरर ने बताया है कि साल में जुलाई के महीने के नाम सबसे ज्यादा जनसंख्या बढ़ाने का रिकॉर्ड है और जनवरी रनर अप है । इनमें भी एक जुलाई और एक जनवरी के दो दिन सबसे ज्यादा क्रिटिकल हैं । हमारे सर्वेक्षण में पाया गया है कि जितने लोगों का जन्मदिन एक जुलाई को होता है उतने लोगों का साल में और किसी तारीख को नहीं होता । चाहें तो एक जुलाई को कलेण्डर से बाहर किया जा सकता है या कोई दूसरा उपाय किया जाय । यह हमारे सिलेबस से बाहर से बाहर की बात है । फ़िर भी हमारी सलाह है कि सबसे पहले तो जनसंख्या दिवस को 11 जुलाई से हटाकर 1 जुलाई कर देना चाहिये ।

वैसे इस खोज के लिये हमें कुछ पुरस्कार मिलना बनता है और आजकल पुरस्कार माँगने से ही मिलते हैं । पर हमें नहीं भी मिलेगा तो बुरा नहीं लगेगा । जैसे लालू जी को मन्त्री नहीं बनाये जाने पर बुरा नहीं लगा ।

रविवार, जुलाई 26, 2009

किया कारगिल वार

आज 26 जुलाई है । आज ही के दिन 1999 में हमारी सेना ने कारगिल युद्ध में 'ऑपरेशन विजय' को सम्पन्न करके विजय का शंखनाद किया था । इस युद्ध में हमें अपने वीर सैनिकों की बलि देनी पड़ी । यह युद्ध निहायत ही अनावश्यक था और जनरल परवेज मुशर्रफ़ की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा के अतिरिक्त इसका कोई आधार न था ।

इस युद्ध के साथ मेरे गावँ का रिश्ता बड़ा ही भावुक है । इस महायज्ञ में एक आहुति शहीद नरेश सिंह के रूप में यह गावँ दे चुका है । कैप्टन सौरभ कालिया के नेतृत्व में जाट रेजीमेंट के नरेश सिंह अर्जुन राम, भंवर लाल बघेरिया, बीकाराम और मूलाराम ही सबसे पहले पाकिस्तानी घुसपैठ का जायजा लेने नियंत्रण रेखा पर गये थे और वहीं से पाकिस्तानी सेना ने इनका अपहरण कर लिया था व इनके शव ही स्वदेश आ सके थे ।

इस युद्ध में भारत और पाकिस्तान के हज़ारों सैनिक मारे गये थे । निजी महत्वाकांक्षा के चलते इतने परिवारों को उजाड़ने वाले मुशर्रफ़ को ईश्वर कोई सजा देंगे ?

चलते-चलते

स्वार्थ नीरनिधि डूबकर, किया कारगिल वार ।
जनरल तेरी नीति को, बार बार धिक्कार ॥
बार बार धिक्कार, हज़ारों सुहाग उजड़े ।
सैनिक हुए शहीद, रह गये पीछे दुखड़े ॥
विवेक सिंह यों कहें, युद्ध था गैर जरूरी ।
किया पीठ पर वार, बढ़ा दीं फ़िर से दूरी ॥


सूचना : स्वप्नलोक पर मौज लेते हुए, हिन्दी ब्लॉगर अनूप शुक्ल 'फ़ुरसतिया' कानपुर वाले, टिप्पणियों का अर्धशतक लगाने में सफ़ल रहे हैं । इन्हें स्वप्नलोक कंपनी की ओर से बहुत बहुत बधाइयाँ ।


आदित्य पहलवान के पापा, रंजन जी दरअसल पहले ही अपना अर्धशतक पूरा कर चुके हैं, कम्पनी की नज़रों से वे ऐसे ही बच गए जैसे भारत ने अमेरिकी सैटेलाइट की नज़र बचाकर परमाणु परीक्षण कर दिया था । रंजन जी को कंपनी की ओर से बहुत बहुत बधाइयाँ !

शनिवार, जुलाई 25, 2009

बोलो असत्य भगवान की....



कल असत्य भगवान मिल गये । नज़र बचाकर निकलने की जुगत में थे पर मैंने आदाब बजा ही दिया । लिहज़ा उन्हें रुकना पड़ा । मैंने पूछा, "भगवन ! मैं आपका कितना बड़ा पुजारी हूँ यह बात तो आपसे छिपी नहीं , फ़िर इस बेरुखी का कारण ? " बोले, " असत्य से सत्य जानना चाहते हो ? तो सुनो । इसका कारण यह है कि मेरा भरोसा अपने भक्तों से उठ गया है । आजकल न जाने लोगों को क्या हो गया है । जिसे देखो सच का सामना करने को आतुर दिख रहा है । कल तक जो मेरे सबसे प्रिय भक्त थे आज वही विरोधी सेना में खड़े हैं । यह देखकर मेरा दिल टूट गया है । मुझे अपने भक्तों से इतने स्वार्थी होने की उम्मीद न थी । "

मैंने कहा, " भगवन यह तो दुनिया है । इसमें लोग सत्य-असत्य सब स्वार्थ के लिये ही तो बोलते हैं । आजकल मँहगाई इतनी बढ़ गयी है कि जीना दूभर हो गया है । ऐसे में अगर किसी को सत्य बोलने से चार पैसे मिलते हैं तो आपको भला क्या आपत्ति है ? "

भगवान बोले, " ऐसे पैसे का लाभ ही क्या जिसके लिए अपमानित होना पड़े ? जरा रिकॉर्ड उठाकर देख लो कितने लोग पैसा ले गये सत्य के पुजारी बन कर ? दरअसल स्वार्थ ही तो सब रोगों की जड़ है । वे लोग मेरे पास भी स्वार्थ के लिये थे । और सत्य की शरण में भी स्वार्थ के लिये ही गये हैं । अगर मेरे महत्व का उन्हें अहसास होता तो कदापि सत्य की शरण न ली होती । मैंने दुनिया में कितनी उथल-पुथल को दबा रखा है । अब शायद लोगों को पता चले । क्योंकि किसी चीज के महत्व का अहसास तभी होता है जब हम उसे खो देते हैं । यदि मैं दो दिन के लिये भी काम करना बन्द कर दूँ तो त्राहि त्राहि मच जाएगी । "

" लेकिन भगवन ! अब पॉलिग्राफ मशीन आगयी है तो क्या पता जिन्दगी में कब इसका सामना करना पड़ जाए । इसलिये मेरा भी यही विचार है कि अब लोगों को आपसे किनारा करना ही होगा । कल को हो सकता है यह मशीन न्यायालय में भी लगा दी जाये । तो क्यों न सत्य बोलने की आदत डाल ली जाए ?" मैंने कहा ।

वे बोले, " सत्य बोलने से दुनिया नहीं चलती । इस मशीन से तुम्हें पार पाना है तो भी मेरा ही आसरा लेना होगा । तुम्हें शायद पता नहीं कि इस मशीन की विश्वसनीयता अभी भी सवालों के घेरे में है । और ऐसी स्थिति में सरकार इसे न्यायालय में लगाने को तो सोच भी नहीं सकती । हाँ यह संभव है कि इसे बैन कर दिया जाय । क्योंकि यही बहुमत की इच्छा है । और सरकार तो बहुमत से चलती है । वैसे इस मशीन के बारे में कहा जा रहा है कि कुछ आदतन झूठ बोलने वाले लोग इसे चकमा दे सकते हैं । तो हे भक्त ! झूठ बोलने की आदत डाल । सिर्फ स्वार्थ हेतु ही झूठ न बोल । निस्वार्थ भाव से झूठ बोल । हर समय झूठ ही बोल । ऐसा करने से ही तू इस मशीन को जीतने में सफ़ल हो सकता है । क्या तूने शास्त्रों को नहीं पढ़ा ? सभी जगह तो लिखा है कि इस संसार में जो कुछ भी दिखाई देता है सब असत्य है । ऐसे में तू मुझसे किनारा करेगा तो तुझे संसार से किनारा करना पड़ेगा । चार दिन की इस जिन्दगानी में फ़ालतू फेरों में न पड़ । घर जा , मौज ले ।" ऐसा कहकर असत्य भगवान आगे चल दिये ।

मैं बोले जा रहा था असत्य भगवान की... जय ! इसी समय श्रीमती जी ने मुझे जगा दिया और सपना अधूरा ही रह गया ।

शुक्रवार, जुलाई 24, 2009

जड़ों से कटकर उन्नति

एक दिन एक पतंग उड़ते उड़ते धरती से बहुत ऊपर चली गयी । धागा बार-बार उसको समझाता कि और ऊपर जाने में खतरा हो सकता है, पर पतंग को धागे की बातें अच्छी नहीं लग रही थीं . वह आग्रह कर करके हर बार थोड़ा और ऊपर उड़ने की अनुमति ले लेती थी . धागा यद्यपि उदारवादी था तथापि उसकी लम्बाई असीमित नहीं थी . उसकी हिम्मत जवाब दे गयी . बोला, " अपनी सामर्थ्यानुसार जितनी सहायता मुझसे बन पड़ी मैंने की, पर अब तुम्हें और ऊपर जाने देने के लिये मुझे अपने मूल को छोड़ना पड़ेगा और यह मैं नहीं कर सकता . " पतंग को धागे की यह बात अच्छी न लगी . उसकी इच्छा थी कि धागा अपने मूल को छोड़कर उसे खुले आकाश में निर्बाध उड़ने दे . तभी उसे खयाल आया कि क्यों न वह धागे को छोड़कर स्वयं खुले आसमान स्वच्छंद उड़े . वह ऐसा सोच ही रही थी कि उसके ऊपर एक बूँद गिरी . उसने ऊपर देखा तो डर से सहम गयी . उसके ऊपर एक बादल था . पतंग ने हिम्मत करके बादल की ओर देखा . बादल उदास था . उसकी आँखें भरी हुई थीं . वह बादल का आँसू ही था जो बूँद बनकर पतंग के ऊपर गिरा था .

बादल को उदास देख उससे डरने की बजाय पतंग को उससे सुहानुभूति हुई . उसने बादल से पूछा, " बादल ! तुम इतने बड़े होकर भी रो रहे हो ? तुम तो धरती से इतने ऊपर उठ चुके हो और तुम्हारे ऊपर किसी का नियन्त्रण भी नहीं है . तो फ़िर ऐसा क्या हुआ कि तुम रो रहे हो ? क्या मैं तुम्हारी किसी प्रकार सहायता कर सकती हूँ ?


दु:ख के समय सुहानुभूति पाकर बहुधा हम भावुक हो जाते हैं . बादल का गला रुँध गया . बोला, " जो दिखाई देता है वह हमेशा सच नहीं होता । जैसा तुम्हें लगता है वैसा है नहीं । मैं स्वच्छंद दिखाई देता हूँ पर स्वच्छंद हूँ नहीं । असल में मेरे ऊपर हवा का कठोर नियंत्रण रहता है । हवा मुझे जहाँ चाहे ले जाती है । पर हवा दिखाई नहीं देती, इसलिये देखने वालों को लगता है कि मैं स्वच्छंद हूँ और अपनी इच्छा से इधर उधर घूमता रहता हूँ । इसी से मुझे आवारा कहा जाता है ।


यह सब मेरी ही गलतियों का परिणाम है । मैं एक झील के जल का हिस्सा था ।मैं अक्सर आसमान के बादलों को देखकर उनके जैसा बनने के सपने देखा करता था । और अपनी तुलना कुँये के मेंढक से करके किसी तरह बाहर निकलने के लिये आतुर रहा करता था । एक दिन अचानक गरमी और हवा को देखकर मुझे आसमान की सैर करने की सूझी । मैं कुछ ऊर्जावान जलकणों को साथ लेकर हवा पर सवार हो गया और ऊपर की ओर चल दिया । मेरे साथियों ने मुझे रोकने की भरसक कोशिश की पर जीवन में उन्नति करने की महत्वाकांक्षा के चलते मैंने उनकी एक न सुनी । तब से मैं यूँ ही निरुद्देश्य अनाथ सा हवा का गुलाम बना घूमता रहता हूँ । अपना कोई अस्तित्व होकर भी मानो नहीं है । कब किसी महामेघ में विलीन होकर अपना अस्तित्व खो बैठूँगा, मैं नहीं जानता । कभी कोई बड़ा बादल पास से गुजरता है तो गरजकर हड़का देता है । आगे से अपने इलाके में न दिखायी देने की चेतावनी देकर चला जाता है ।


आज मैंने निर्णय लिया है कि मैं यह झूठी शानोशौकत छोड़कर धरती पर वर्षा बनकर जाऊँगा । यद्यपि मुझे नहीं पता कि मेरी बूँदें कहाँ जाकर गिरेंगी, अपनी मातृ-झील के पानी में मिलने का सपना तो शायद सपना ही रह जाय । तथापि पानी बनकर धरती पर किसी के काम आया तो स्वयं को धन्य समझूँगा ।


तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हें धागे जैसा साथी मिला है जो तुम्हें ऊपर उड़ते हुए भी सँभाले रहता है , तुम्हें जड़ों से जोड़े रहता है, और सफ़लता को तुम्हारे ऊपर हावी नहीं होने देता । मैंने अपनी जड़ों से कटकर उन्नति भी की तो क्या की ।"


इतना कहकर बादल बूँद-बूँद होकर धरती पर गिर गया । पतंग को बादल की मृत्यु पर शोक था और अपने धागे पर गर्व !


धागा इस वार्तालाप से अनभिज्ञ पतंग को सँभलाने में व्यस्त था ।

गुरुवार, जुलाई 23, 2009

गोत्र प्रकरण क्या है

गोत्र प्रकरण गाहे बगाहे सुर्खियों में आता रहा है । अक्सर इस तरह के मामलों में विवाद की जड़ तक कम ही लोग पहुँच पाते हैं । यह मुद्दा जाट समुदाय से संबन्धित है ।

जिस तरह भारतीय समाज वर्णों में, वर्ण जातियों में विभाजित हुए वैसे ही जातियाँ भी उपजातियों में विभाजित हुईं । जाट भारतीय समाज में क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत एक वीर और साहसी जाति मानी जाती है । यह हरयाणा के अलावा राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहुसंख्या में है । जाट समुदाय में उपजातियों, जिन्हें गोत्र भी कहा जाता है, की संख्या 360 मानी गयी है । गोत्र का किसी उपगोत्र में विभाजन देखने को नहीं मिलता . अत: एक गोत्र के लोग सैद्धान्तिक रूप से एक परिवार और वंश परंपरा के माने जाते हैं . इस स्थिति में एक ही गोत्र के लड़के-लड़की के विवाह की बात करना जैसे सगे भाई बहन के विवाह की बात करना है . इस तरह के विवाद नगण्य ही हुए हैं .

अब सवाल उठता है कि फ़िर गोत्र विवाह विवाद क्या है ? दर असल जाट समुदाय के कुछ गोत्रों में भाई चारा प्रचलित है . अर्थात कुछ गोत्र समूह मानते हैं कि वे मूल रूप से एक ही वंशावली से संबन्ध रखते हैं और एक ही मूल गोत्र से उनका उद्गम हुआ है . इस स्थिति में वे भी आपस में विवाह संबन्ध स्थापित नहीं करते . पर नये जमाने में जहाँ लोग अपने सगे भाई तक को नहीं पहचानते वहाँ गोत्र किसको याद है लिहाजा लोग अज्ञानतावश भाई चारे के गोत्र से विवाह सम्बन्ध स्थापित कर बैठते हैं . पर जब यह मामला परंपरावादियों की निगाह में आता है तो बखेड़ा खड़ा हो जाता है . यही पहली तरह का गोत्र विवाह विवाद है .

पहले समय में अक्सर एक गावँ में एक ही गोत्र के लोग रहते थे, बल्कि आसपास के बहुत से गावँ भी उसी गोत्र के होते थे . पर जैसे जैसे समय बीता लोगों को एक ही जगह टिककर जीवन यापन कर पाना कठिन लगने लगा, लिहाजा गावँ में धीरे धीरे कई गोत्रों के लोग आकर बस गए . समझ लीजिये 'क' गोत्र बाहुल्य गावँ में 'ख' गोत्र के कुछ लोग आकर रहने लगे . अब यदि इस गावँ का 'ख' गोत्र वाला लड़का किसी दूसरे गावँ से ( एक ही गावँ में विवाह नहीं हो सकता ) 'क' गोत्र की लड़की से विवाह करके ले आया तो . गावँ में मौजूद 'क' गोत्र के लोगों के सामने विषम स्थिति आ जाती है कि वे लड़की को जो उन्हीं के गोत्र की है बहन समझें या भाभी समझें . इसी स्थिति से बचने के लिये . यह विवाह भी अमान्य होता है . आजकल इसी तरह के विवाद अधिक संख्या में देखने को मिलते हैं .

इसके अलावा कुछ गोत्र ऊँचे और कुछ नीचे समझे जाते हैं . ऊँचे गोत्र वाला लड़का नीचे गोत्र वाली लड़की से तो विवाह कर सकता है पर ऊपर के गोत्र वाली लड़की से नहीं . यह भी विवाद का कारण बनता है .

दरअसल ऐसे विवाद पैदा होते ही तथाकथित मानवाधिकारवादी और मीडिया वाले इसे सुर्खियाँ बटोरने का सुनहरा मौका समझते हैं और अपने अपने तर्कों से इसे हवा देते रहते हैं . जमीनी हकीकत को समझने के लिये कोई तैयार नहीं . शासन में भी जाटों का उचित प्रतिनिधित्व न होने के कारण शासन की नीतियाँ भी कभी कभी इस हकीकत को ध्यान में न रखकर बना दी जाती हैं .

अब तो बस जाटों के पास एक ही उपाय बचा है कि वे अमेरिका के लोगों को मनायें कि वे भी गोत्र विवाह पर रोक लगा दें . फ़िर देखिये कैसे दूसरे दिन ही यहाँ भी वही रूल फ़ॉलो होता है .

बुधवार, जुलाई 22, 2009

टूटी मेरी सगाई

पंखा एक डॉक्टर के घर

जाकर यूँ फ़रमाया ।

कर दें मेरा भी इलाज

बिजली ने मुझे सताया ॥

घूम गया मेरा दिमाग

जैसे ही बटन दबाया ।


लटका था चुपचाप हवा में,

लेकिन अब लहराया ॥

हलचल सी मच गयी, हवा के

कण कुछ समझ न पाये ।

एक दूसरे को भगदड़ में

लतियाये, धकियाये ॥

हुई शिकायत घर मेरे,
अम्मा ने डाँट लगायी ।
बोले लोग, " इसे मिर्गी है "
टूटी मेरी सगाई ॥


मंगलवार, जुलाई 21, 2009

निगले जाने का मुआवजा


कल राहु सूरज को निगल जाएगा । यह पहली बार नहीं है जब राहु सूरज को निगल जाने वाला है । यह चन्द्रमा को भी निगल जाता है . और तो और यह पहले से बता देता है कि किस तारीख को आकर सूरज या चाँद को निगलने वाला है । चश्मदीदों ने कहा है कि यह हादसा सूरज के साथ अमावस को और और चाँद के साथ पूर्णिमा को ही होता है . यह बात अभी तक हर बार सच निकलती है . शायद राहु को जब निगलने का मन करता होगा तो वह पहले चाँद को ही देखता होगा . पर अमावस को चाँद तो मिलता नहीं इसलिए मजबूरी में यह सूरज को भी निगलने से गुरेज नहीं करता . आश्चर्य है कि जब पहले ही पता रहता है कि वारदात होने वाली है तो ब्रह्मा जी अपनी देवता सरकार को कोई एक्शन लेने के लिये क्यों नहीं कहते . कुछ समाज सेवक टाइप के लोग अन्त तक यही कहते रहते हैं," अजी ऐसे कैसे कोई किसी को निगल जाएगा ? कोई कानून व्यवस्था नाम की चीज है कि नहीं ."


हमारा मानना है कि देवता सरकार को कुछ तो उपाय करना चाहिए . या तो राहु भाई को पहले ही अन्दर करें . पर सबूतों के अभाव में या किसी और कारणवश ऐसा न हो सके तो उन्हें समझा बुझाकर शांत करने की कोशिश हो सकती है कि वे सूरज को माफ़ कर दें , सूरज को ज़ेड-प्लस सुरक्षा मुहैया कराई जा सकती है . एक तरीका यह भी है कि सूरज को चुपके से कह दिया जाय कि वह थोड़ा दाँये-बाँये होकर निकले क्योंकि आज उस रास्ते से राहु भाई आने वाले हैं . पर इस उपाय को खुद सूरज ने ही ठुकरा दिया है . उसका कहना है कि, "मेरी सुरक्षा की जिम्मेदारी देवता सरकार की है मेरी स्वयं की नहीं . इसलिए बेशक मुझे निगल लिया जाय पर मैं अपने रास्ते से किंचित भी इधर उधर नहीं हो सकता । " वैसे हमें लगता है कि असल में कोई भी यह नहीं चाहता कि राहु सूरज को न निगले । सभी को तमाशा देखने का मन है । और देवताओं को राजनीति की रोटियाँ सेंकने की फ़िक्र है । यह तो सभी जानते ही हैं कि राहु भाई निगलकर पेट में तो रखते नहीं । उगल तो देंगे ही । तो फ़िर क्या चिन्ता करना ।


पिछली बार का ही किस्सा सुनिये । जब राहु भाई ने चाँद को निगला था तब सरकार पक्ष के देवता ने चाँद को मुआवजा देने की घोषणा की थी । कुछ सूत्रों ने तो यहाँ तक कहा कि देवता मन्त्री ने चाँद के कान में यह भी कहा कि, "तसल्ली रखो तुम्हें न्याय मिलेगा । वैसे भी तुम्हारा कुछ घिस तो नहीं गया । 7 मिनट 31 सेकण्ड तो सूरज को निगलने और उगलने में लगने वाला अधिकतम समय है . तुम्हारे लिए तो कम ही होगा ।" लेकिन इस घोषणा से नाराज होकर विपक्ष के देवता का बयान था कि, "मुआवजे की घोषणा करने वाले नेता को अगर राहु निगल ले तो हम कई गुना ज्यादा मुआवजा देने को तैयार हैं ।"


बताया जाता है कि उस देवता के घर में दूसरे दिन शॉर्ट सर्किट से आग लग गयी । बयान बाजी बढ़ती गयी . बस फ़िर क्या था आधे वोटर इधर आधे उधर और बाकी असरानी जी के पीछे . अन्य पार्टियाँ ठगी सी देखती रह गयीं . और अगली बार चाँद या सूरज के निगले जाने का इन्तजार करने लगीं .


नारद जी ऐसा कह ही रहे थे कि मेरी आँख खुल गयी और सपना अधूरा ही रह गया .

रविवार, जुलाई 19, 2009

बूढ़े, न समझो कूड़े...


आज 'दो कलियाँ' फ़िल्म का मशहूर गाना 'बच्चे, मन के सच्चे...' सुना तो खयाल आया कि इसी धुन पर बूढ़ों के लिए भी एक गाना हो तो कैसा रहे ? तो बस हमने सरस्वती जी को दरख्वास्त भेज दी और कुछ ही देर में उधर से जवाब भी आ गया । अटैचमेण्ट में जो गाना उन्होंने भेजा वह पेश कर रहे हैं । पर पहले YOUTUBE पर जाकर ओरिजिनल गाना सुन लें । अल्पना वर्मा जी से विशेष रिक्वेस्ट है कि यदि संभव हो तो इस गाने को अपनी सुरीली आवाज में गाकर सुना दें । समीर जी कृपया इसे ट्राई न करें :)

बूढ़े, न समझो कूड़े
नहीं सबकी आँख के काँटे
ये मुरझाते फूल हैं वो
कलियों से अलग जो छाँटे

बूढ़े, न समझो कूड़े........

इन्साँ कोई बूढ़ा है
मत समझो वह कूढ़ा है
अनुभव उसकी झोली में
ज्ञान है उसकी बोली में
अच्छे और बुरे देखे
बच्चे और बड़े देखे
उसने देखे हैं जीवन में
बहुत मुनाफ़े घाटे......

बूढ़े, न समझो कूड़े....

बच्चे थे फ़िर बड़े हुए
खुद पैरों पर खड़े हुए
वक्त जवानी का बीता
लगा इन्हें सब कुछ रीता
आज बुढ़ापे ने घेरा
छूटा सब तेरा मेरा
अब न अकेलापन भाता है
समय न कटता काटे......

बूढ़े, न समझो कूड़े........

अगर पुरातनवादी हैं
फ़िर भी दादा-दादी हैं
हमको पाला-पोषा है
कल का नहीं भरोसा है
सेवा इनकी आज करें
इनके दिलों पर राज करें
इनके साथ बिताएं दो पल
दूर करें सन्नाटे................

बूढ़े, न समझो कूड़े
नहीं सबकी आँख के काँटे
ये मुरझाते फूल हैं वो
कलियों से अलग जो छाँटे
बूढ़े, न समझो कूड़े...........

शनिवार, जुलाई 18, 2009

इन्द्र के नाम खुली चिट्ठी

महोदय !

हम जानते हैं कि यह समय देवताओं के सोने का है, लिहाज़ा आप सो रहे होंगे, और देवउत्थान एकादशी से पहले किसी भी सूरत में जागने वाले नहीं । पर हालात ही कुछ ऐसे हैं कि बिना लिखे रहा नहीं जाता । यद्यपि जब आप जागेंगे तब तक हालात का वर्षा जब कृषि सुखानी वाले हो चुके होंगे तथापि यदि आप इससे अगले साल के लिए कुछ सबक लेंगे तो भी हम स्वयं को धन्य समझेंगे । आशा है जब आप जागेंगे तो हमारी चिट्ठी को अवश्य पढ़ लेंगे ।

जरा विचार करके देखें कि देवशयनी एकादशी से देवउत्थान एकादशी के बीच एक लम्बा अन्तराल होता है । जब करोड़ों लोग आपके ऊपर निर्भर हों तो आप सब चैन से एक साथ कैसे सो सकते हैं ? स्वर्ग की गवर्नमेन्ट के मुखिया होने के नाते सारा उत्तरदायित्व आपका ही बनता है । बाकी सब तो आपके पिछलग्गू ठहरे ।

आपने अपने मन्त्रियों को विभाग वितरण न जाने कब किया होगा । क्या आपको नहीं लगता कि लम्बे समय तक मन्त्रियों के विभाग बदले नहीं जायेंगे तो वे निरंकुश और भ्रष्ट हो सकते हैं ? और तो और वे लम्बे समय एक ही विभाग में रह कर इतने ताकतवर बन सकते हैं कि आपकी सर्वोच्चता को चुनौती देने के बारे में भी सोच सकते हैं । इसीलिए तो यहाँ धरती पर भी जो चालू टाइप प्रधानमन्त्री होते हैं वे किसी मन्त्री को ज्यादा दिन एक विभाग में टिकने नहीं देते ।

पृथ्वी पर कोई यदि परिश्रम करके आपको चुनौती देने की पोजीशन में आना चाहता है तो आपका आसन डोलते लगता है, और आप उचित या अनुचित कोई भी तरीका अपनाकर उसे हतोत्साहित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते । ऐसे में जाहिर है आपके ऊपर लोगों की निर्भरता ज्यों की त्यों बनी रहेगी । हालाँकि यहाँ धरती पर भी कई सरकारें चलती हैं पर वे सब तो क्रेडिट लेने के लिए ही हैं । देश ग्रोथ करता है तो क्रेडिट सरकार ले लेती है और वर्षा अच्छी नहीं हुई तो ठीकरा आपके ही सिर फूटता है । ऐसे में आप स्वयं विचार करें कि जनता को सरकार भरोसे छोड़कर आप अपनी जिम्मेदारियों को ऑटो मोड पर डालकर मंत्रियों सहित सोने जायें यह भला कहाँ तक उचित है ?

ऐसा भी नहीं लगता कि आपके पास देवता पॉवर की कमी हो । तैंतीस करोड़ देवी-देवता कम नहीं होते । एक मन्त्रालय में आप चाहें तो कई मन्त्री एक साथ नियुक्त कर सकते हैं । ऐसे में आपका वर्षा जैसा महत्वपूर्ण मन्त्रालय अपने पास रखना किसी दृष्टिकोण से उचित प्रतीत नहीं होता । हमें नहीं लगता कि आप जागते समय भी उर्वशी, मेनका, रम्भा आदि रमणियों के नृत्य-दर्शन से मुक्ति पाकर बादल से फीडबैक लेने के लिए कुछ समय निकाल पाते होंगे और उससे पूछते होंगे कि कहाँ बरसा और कहाँ नहीं बरसा । वैसे हम सहमत हैं कि नृत्य देखते रहना भी कोई छोटा काम नहीं ।

हाँ यह सही है कि सभी देवता मन्त्री बनने के काबिल नहीं होते । पर इस स्थिति में क्या उनके देवता बने रहने पर सवाल नहीं उठने चाहिए ? आखिर ऐसे देवताओं की जरूरत ही क्या है ? नये चुनाव कराये जा सकते हैं । इन्सानों में कितने ही करोड़ ऐसे लोग मिल जायेंगे जो योग्य होते हुए भी देवता बनने की लालसा मन में पाले हैं । ऐसे में उनकी सेवायें ली जा सकती हैं, और नाकारा देवताओं को कीड़े मकोड़े बनाकर धरती पर डम्प किया जा सकता है । कृपया इसका यह मतलब कदापि न निकाला जाय कि हमारे ऐसा सुझाव देने के पीछे हमारी देवता बनने की कोई महत्वाकांक्षा है । हम किलियर कर देना चाहते हैं कि हमारी अभी स्वर्गवासी होने की कोई इच्छा नहीं है । हमें धरती पर ही बहुत मज़ा आ रहा है ।

यदि आपने इन्सान को अपनी सरकार में शामिल कर लिया तो इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा कि आपको लम्बी नींद की समस्या से निज़ात पक्का मिल जाएगी । क्योंकि इन्सान को सर्वदा आपके सोने का इन्तज़ार रहेगा और आपके सोते ही वह आपकी जड़ें खोदने लग जाया करेगा और आप सावधानी हटी दुर्घटना घटी वाली स्थिति में आकर हर समय चौकन्ने रहने लगेंगे । और अनिद्रा को, जिसे फ़िलहाल एक रोग समझा जाता है , जल्दी ही देवी का दर्जा मिल जाएगा ।

उसके बाद अगर देवता सोयेंगे भी तो शिफ्टों में !

गुरुवार, जुलाई 16, 2009

नियन्त्रण कर जिव्हा पर

माया को चंचल कहें, साधू, वेद, पुराण ।

रीता तेरा हाथ है, नहीं कटार, कृपाण ॥

नहीं कटार, कृपाण शत्रुता मोल न लेना ।

तजकर माया मोह राम का आश्रय लेना ॥

विवेक सिंह यों कहें, नियन्त्रण कर जिव्हा पर ।

माया मिले न राम कर्म ऐसे तो मत कर ॥

बुधवार, जुलाई 15, 2009

गुरु जी के लक्ष्य वेधन

आज गगन शर्मा जी की पोस्ट पढ़ी । कहते हैं कि गुरु, गुरु ही होता है । हम अतिविनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं कि हम यह नहीं मानते कि गुरु, गुरु ही होता है । गुरु और भी बहुत कुछ होता है । अब हमारे गुरु जी को ही ले लीजिए । अभी कल ही उनकी पोस्ट पढ़ी : घुन्नन-मिलन । पढ़ी तो आपने भी होगी, किसी कारणवश न पढ़ सके हों तो जाकर पढ़ लें ।
जिन्होंने पढ़ी उन्होंने अपने-अपने अर्थ निकाले होंगे । पर चूँकि हम तो उनके चेले ठहरे इसलिए उनकी हर पोस्ट का विस्तृत अध्ययन करके उसके निहितार्थ को हृदयंगम करना हमारा होमवर्क रहता है । हमने कल वाली पोस्ट में काफ़ी सिर खपाया लेकिन कोई निश्चित सूत्र हाथ न लग सका । थक हारकर गुरु जी को फोन लगाया लेकिन बीएसएनएल( भाई साहब नहीं लगेगा ) है ना इसलिए नहीं लगा । इसी चिन्ता में हम सो गए ।

अचानक रात को गुरु जी का फ़ोन आया । लगभग हड़काते हुए बोले,"होमवर्क हो गया ?" शायद उनको पहले ही हमारी योग्यता पर भरोसा था कि यह लल्लू न समझ पायेगा । मैंने कहा," गुरु जी होमवर्क तो नहीं हुआ । आपने इतनी भारी पोस्ट डाल दी । मैंने फोन भी लगाया पर नहीं लगा । बोले ," बातें मत बना । और ध्यान से सुन ।" मैं ध्यान लगाकर सुनने लगा ।

गुरु बोले," तुझे याद होगा । बालसुब्रमण्यम जी ने हम पर उत्तर फेंका था । और हम उस उत्तर का प्रश्न ढूँढ़ने का बहाना बनाकर वहाँ से चले आये थे । उधर पता चला कि घुन्नन ने भैया को तंग किया है । और घुन्नन का सहारा लेकर कुछ लोग भैया से मौज ले रहे थे । जिनमें तुम भी शामिल थे । अब हमें कई लक्ष्यों का वेधन एक साथ करना था । हम सब पर अलग पोस्ट लिखना अफ़र्ड नहीं कर सकते थे ना ।"

"पर गुरु जी इस पोस्ट से क्या संदेश गया ?" मैंने अज्ञानतावश पूछ लिया ।" गुरु जी के होठों पर गुराहट फ़ैल गई । मुस्कराकर बोले," तू नहीं समझेगा । इस पोस्ट से हमने क्या क्या लक्ष्य वेध दिये हैं । सुन ,

" पहला तो हमने बालसुब्रमण्यम जी को जाहिर कर दिया कि हम भली भाँति जानते हैं साहित्य क्या होता है और ब्लॉग क्या होता है । इसका बोनस हमें यह भी मिला कि हमारा नाम अब साहित्यकारों की श्रेणी में आ गया । बोले तो परसाई, अज्ञेय, गालिब और दिनकर के साथ हमारा नाम लिखा जाएगा । आखिर हमने भी साहित्य लिखा है ।

दूसरा लक्ष्य वेधन यह हुआ कि तुम जैसे मौज लेने वालों को संदेश दिया । कि भैया ने सच बोला है कोई चोरी नहीं की । फ़िर उनसे मौज क्यों ली गयी ।

तीसरा लक्ष्य वेधन यह हुआ कि भैया को हमने बता दिया कि उनकी पोस्ट ब्लॉग है और हमारी साहित्य । इस प्रकार वे ब्लॉगर ही रह गए और हम साहित्यकार हो गए हैं । अब हमें कब तक 'छोटे' कहकर बुलाएंगे ।

चौथा लक्ष्य वेधन यह हुआ कि घुन्नन को हमने बता दिया कि वे हमारे पास आते तो हम क्या करते । इससे यह फ़ायदा और मिला कि हल्दी लगी न फ़िटकरी और रंग आ गया चोखा । लक्ष्य तो इस लेख से और भी बहुत सारे वेध दिए हैं हमने पर वे सब तुम्हारे सिलेबस से बाहर हैं । इतना कहकर गुरु जी की आवाज आनी बन्द हो गयी । मैं हेलो हेलो कहता जा रहा था ।

मेरी हेलो हेलो की आवाज सुनकर श्रीमती जी समझ गयीं कि हम अवश्य ही सपने में फोन पर बात कर रहे हैं । और उन्होंने हमें जगा दिया । अन्यथा हमें गुरु जी से कुछ और ज्ञान मिल गया होता ।

सोमवार, जुलाई 13, 2009

होती बड़ी फ़ज़ीहत है

बाथरूम में फ़िसल गया कल,

गिरा फ़र्श पर धड़ाम से ।

बाहर से आवाजें आयीं,

"क्या करते हो ? आराम से !"

किन्तु मुझे आराम कहाँ था,

रगड़ाई में व्यस्त हुआ ।

ऐसा रगड़ा बदन घिस गया,

हाय दर्द से त्रस्त हुआ ॥

हफ़्ते भर में बजन घट गया,

मोटा था, अब दुबला हूँ ।

मानो काया पलट हो गयी,

महाबली था, अबला हूँ ॥

इसी तरह यदि हुआ नहाना,

जल्दी ही चुक जाऊँगा ।

मेरे जैसे और मिलेंगे,

किन्तु न फिर मैं आऊँगा ॥

नहाने का साबुन हूँ तो क्या,

मेरी भी तो इज़्ज़त है ।

जाने कहाँ-कहाँ घिसते हैं,

होती बड़ी फ़जीहत है ॥

रविवार, जुलाई 12, 2009

मेरी 116वीं पोस्ट

बगल में जो मक्का की फ़सल दिखाई दे रही है वह हमारी गाढ़ी मेहनत का नतीजा है । घर के सामने पड़ी खाली जमीन को घास छीलकर खेती योग्य बनाया गया और फ़ावड़े से गुड़ाई करने के बाद इसमें कई तरह की पौध लगायी गयी जिनमें फ़ूलगोभी, टमाटर, बैंगन, मिर्च, और शिमला मिर्च का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा । भिण्डी, पालक, लौकी, तोरई, अरबी आदि के बीज बोये गये । और मक्का का आइडिया सबसे बाद में आया । अब इसमें छर्रा निकल आया है और भुट्टे की दाढ़ी भी लटकने लगी है । पालक ने अब तक कई बार साग खिलाया है । बैंगन ने भी इतना निराश तो नहीं किया कि उस बेचारे की बदनामी आपके सामने ही करूँ पर टमाटर धोखेबाजी में सबसे आगे रहे और बिना बताये ही खिसक लिए जैसे हम क्लास के पिछले दरवाजे से चुपचाप खिसक जाया करते थे । गोभी से हमें आशा न थी फ़िर भी काफ़ी दिन तक उसने हमारा साथ दिया तो आस बँधने लगी थी लेकिन जैसे ही उसे पता चला कि उससे हमने उम्मीदें लगा लीं हैं बेचारी उम्मीदों का बोझ नहीं झेल पाई और कोई न कोई बहाना करके सभी पौधे निकल लिए । मिर्च पर हमें कभी संदेह न था । पर अब रोजाना एक पौधा हमारे देखते देखते मुरझा जाता है फ़िर सूख जाता है और हम मजबूर हैं कुछ नहीं कर पा रहे । लौकी को पड़ौसियों की नज़र खा गई । खूब लम्बी बेल है । फ़ूल भी खूब आते हैं । चोइया लगता है और दो दिन बाद सूख जाता है । अरबी को कई बार चेक कर लिया है पर धरती के ऊपर जैसा हालचाल दिखाई देता है वैसा नीचे नहीं है फ़िर भी कहते हैं कि आशा पर दुनिया टिकी है तो हमने भी उसे कह दिया है कि बिना टेंशन लिए जितना हो सके उतना ही करे । जान जोखिम में न डाले ।



मक्का पर तो हमें गर्व होता है । इसने हमारा मन मोह लिया है । इसकी दाढ़ी के तो कहने ही क्या । बचपन में ही जैसे इसे बुढ़ापा आ गया हो । जब अपनी मेहनत का पहला भुट्टा खाने को मिलेगा उस दिन का हम सभी को बेसब्री से इन्तजार है । अभी से योजनाएं बनने लगी हैं कि किस किस पड़ौसी के घर कितने भुट्टे दिये जा सकते हैं । यह मक्का मेरा राजा बेटा है । जिसके बिना मेरा खेती करने का सारा उत्साह जाता रहता । पर अब मुझे एक नया जोश मिल गया है । क्योंकि सफ़लता जोश भर ही देती है । चाहे वह कितनी ही असफ़लताओं के बाद क्यों न मिली हो । असफ़ल व्यक्ति में कमियाँ ढूँढ़ना बड़ा आसान होता है । और उससे भी कहीं अधिक आसान किसी सफ़ल व्यक्ति के गुण ढूँढ़ना होता है ।


नोट : हमारे गुरु श्री शिवकुमार मिश्र जी स्वप्नलोक पर अब तक 44 टिप्पणियाँ करने में सफ़ल रहे हैं । कम्पनी उन्हें विनम्रतापूर्वक बधाई देती है ! यह भी एक सुखद संयोग ही है कि उनका चवालीसा हमारी 116 वीं पोस्ट की पूर्व संध्या पर पूरा हुआ !

शनिवार, जुलाई 11, 2009

शीर्षक में क्या रखा है ? आप बस पढ़िये

भीषण गरमी है । बारिश सामने ही है पर बरसना ही नहीं चाहती । सीधे सीधे मना भी नहीं करती कि," हमें नहीं बरसना जी, आप अपना कोई और इन्तजाम कर लो । " मानो कोई भ्रष्ट बाबू फ़ाइल को सामने रखे बैठा है और आगे नहीं बढ़ाता । बस तसल्ली देता रहता है । खुलकर रिश्वत भी नहीं माँगता और बिना रिश्वत लिए काम भी नहीं करता । समझदार लोग चुपचाप एक लिफ़ाफ़ा मेज के नीचे से सरका देते हैं और फ़ाइल आगे बढ़ जाती है । पर नासमझ तो नासमझ ठहरे । समझ ही नहीं पाते कि आखिर बाबू चाहता क्या है । बस मन ही मन बेचारे बाबू को कोसते रहते हैं ।

बाबू सरकार से वेतन पाता है । पर उससे उसका काम ही नहीं चलता । ऊपर की आमदनी चाहिए । वर्षा जी भी शायद इन्द्र के सिंचाई विभाग से वेतन पाती होंगी । पर बाबुओं की देखा-देखी उन्हें भी ऊपर की खुशामद चाहिए । पेड़ मत काटो, वृक्षारोपण करो, प्रदूषण मत फ़ैलाओ आदि आदि, न जाने कितनी ही माँगें हैं पर अपने को समझदार कहते न थकने वाला इन्सान समझ ही नहीं पा रहा । अपने लिए पानी तक का प्रबन्ध न कर सकने वाला इन्सान वाकई कितना समझदार है !

शास्त्रों में लिखा है कि जल ही जीवन है । जीवन अब बोतल में बिकता है । हवा भी बिकती है पर इतने बड़े पैमाने पर नहीं । जब हवा-पानी मिलते हैं तो जीवन रहता है । जीवन को बुलबुले की भाँति माना गया है । हवा पानी जब अलग अलग हो जाते हैं तो बुलबुला फ़ूट जाता है । बुलबुले का कोई भरोसा नहीं । कब फ़ूट जाए कोई नहीं जानता । स्वयं हवा और पानी भी शायद नहीं जानते कि वे कब संबंध विच्छेद कर लेंगे ।

जीवन का भी कोई भरोसा नहीं । कौन कब टपक जाय कुछ कहा नहीं जा सकता । कौन हमें यहाँ भेज देता है और फ़िर अचानक वापस बुला लेता है ? क्या हम किसी शरारती बच्चे के खिलौने हैं जो हमें रिमोट से नियन्त्रित कर रहा है ? हम क्यूँ हैं ? यह सृष्टि , यह ब्रह्माण्ड किसकी शरारत है ?

कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड का लगातार विस्तार हो रहा है । यह शायद 76.9 किलोमीटर प्रति सेकण्ड की गति से बाहर की ओर फ़ैल रहा है । कितनी ही आकाशगंगाएं भाग रही हैं । वैज्ञानिक पता करने में जुटे हैं कि ब्रह्माण्ड में हमारे अलावा क्या कहीं जीवन है ? इसी चक्कर में नित्य नये नये राज खोले जा रहे हैं । कहा जा रहा है कि यहाँ से दो सौ प्रकाशवर्ष दूर कोई तारा बुझ रहा है या जल रहा है । बहुत प्रसंशनीय है आपने इतनी दूर का समाचार सुनाया । पर हमें तो यह न्यूज दो सौ साल पुरानी लगती है । जो प्रकाश वहाँ से दो सौ वर्ष पहले चला होगा वही तो आपने देखा होगा । खैर छोड़िये हम इतने संकुचित नहीं कि ब्रह्माण्ड के बारे में ही सोचते रहें । ब्रह्माण्ड के परे क्या है ? किसी विशेषज्ञ से जब ऐसा सवाल पूछ लिया जाय जो बहुत कठिन हो तो सबसे पहले वह यही बोलता है कि ," गुड क्वेश्चन !" इस प्रश्न का भी वही हश्र होता है । पर हमें सोचने से कोई रोक तो नहीं सकता ना । इसलिए सोच लिया ।

हो सकता है ब्रह्माण्ड के बाहर कोई महा-ब्रह्माण्ड हो और हमारा ब्रह्माण्ड उस महा-ब्रह्माण्ड में किसी अण्डे के समान हो जो धीरे धीरे बड़ा हो रहा है और एक दिन फ़ूट जाने वाला है ।

जैसे परमाणु में इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन जैसे न जाने कौन कौन से टॉन फालतू घूमते रहते हैं । हो सकता है उसी भाँति ब्रह्माण्ड भी महा-ब्रह्माण्ड का कोई परमाणु ही हो और ये सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, आकाशगंगाएं, ब्लैकहोल और न जाने कौन कौन जो अपने को बहुत तीस मार खाँ समझते हैं, उस परमाणु के इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे ही हों । हम और आप तो खैर चीज ही क्या हैं । शायद विकिरण हों ।
शायद इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे सूक्ष्म कणों के भीतर भी सूक्ष्म जीवन हो और वहाँ के जीव उसे ही अपना ब्रह्माण्ड कहते हों । वहाँ भी चांद तारे हों और और कई ग्रहों पर जीवन हो । वहाँ भी आतंकवाद, राष्ट्रवाद, उदारवाद, नारी-सशक्तिकरण, समलैंगिकता और मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर बहस होती हो और जरा-जरा सी बात पर लोग कट मरते हों ।

यही सब महा-ब्रहमाण्ड और महा महा-ब्रह्माण्ड में भी होता रहता होगा । या ऐसा हो सकता है कि हम सपने में हों और जब जागें तो किसी और दुनिया में बिस्तर पर पड़े मिलें जहाँ हमें जगाया जा रहा हो ," उठो सुबह हो गयी । ऑफ़िस नहीं जाना क्या ?"

कहीं आप गम्भीर तो नहीं हो गए ? मैं तो यूँ ही मजाक कर रहा था ! ( यही तो शीर्षक है )

गुरुवार, जुलाई 09, 2009

छाये जब काले बादल

रिमझिम बूंदें लगीं बरसने,
छाये जब काले बादल ।
प्यास बुझी प्यासी धरती की,
पीकर बारिश का मृदु जल ॥
ठण्डी-ठण्डी हवा चली,
गरमी से छुटकारा पाया ।
ताल-तलैया भरे सभी,
सबको ऐसा मौसम भाया ॥
लगे नाचने मोर हर तरफ़,
पक्षी कोलाहल करने ।
बच्चे, खेत बना गलियों में,
लगे नालियों से भरने ॥
आसमान पर देखो तो यह,
बना इन्द्र का धनुष भला ।
जोत बैल, ले हल अपना,
खेतों की ओर किसान चला ॥
मन भायी यह ऋतु वर्षा की,
वापस अब जाये न कहीं ।
हाय कष्टकारक वह गरमी,
यहाँ लौट आये न कहीं ॥

सोमवार, जुलाई 06, 2009

भोले भालो अब तो जागो

आजकल 'अमर उजाला' में एक समाचार अक्सर पढ़ने को मिल जाता है जिसमें सोने चाँदी के गहनों की सफ़ाई करने के बहाने कुछ लोग भोली-भाली महिलाओं को झाँसा देकर उनके जेवरात लेकर भागने में सफ़ल हो जाते हैं ।
मैं 2003 में हरियाणा के ही धारुहेड़ा ( रेवाड़ी ) में रहा करता था । उस समय से ही यदा कदा हरियाणा से ऐसे समाचार पढ़ने को मिलते रहते थे । अब पानीपत में हूँ । यहाँ भी पिछले कुछ दिनों से आसपास के क्षेत्रों के ऐसे समाचार पढ़ने को मिल रहे हैं ।
ऐसे मामलों में अक्सर दो लोग सोने चाँदी के जेवर साफ़ करने की आवाजें लगते हुए गलियों में घूमते हैं । भोली भाली महिलाएं इन्हें बुलाकर पूछताछ करती हैं तो ये लोग बड़े सस्ते में ही जेवर साफ़ करने को तैयार हो जाते हैं । जेवर मँगाकर उन्हें पानी में डाला जाता है और कुछ मसाला भी महिलाओं को दिखाकर पानी में यह कहकर डाला जाता है कि इससे आधे घण्टे में जेवर साफ़ हो जाएंगे । इस पानी को आग पर गरम होने के लिए रख दिया जाता है ।
महिलाएं यूँ तो अपनी समझ से होशियारी से काम लेती हैं और टकटकी लगाए पूरा ध्यान जेवरों पर रखती हैं लेकिन जब उनसे पीने के लिए पानी माँगा जाता है या किसी अन्य बहाने से उन्हें दूर भेजा जाता है तो वे सम्मोहित सी उनके कहे अनुसार कार्य कर देती हैं । बस इसी समय ये लोग जेवर पानी से निकालकर अपने पास रख लेते हैं और यह कहकर वहाँ से चले जाते हैं कि आधे घण्टे बाद जब पानी ठण्डा हो जाए तो जेवर निकाले जा सकते हैं । जेवर साफ़ मिलेंगे । और वाकई जेवर ये लोग साफ़ कर ले जाते हैं । इसके बाद पछतावे के सिवाय कुछ नहीं मिलता । थाने में रिपोर्ट लिखवाइये । इधर उधर भागते रहिए । फ़िर कुछ नहीं होता ।
इसका इलाज केवल जागरूकता है । पर आश्चर्य है कि इतने सालों से एक ही तरीके से यह हो रहा है और लोग अब तक जागरूक नहीं हो सके ? दरअसल ऐसे समाचार अखबारों में ही पढने को मिलते हैं और अखबारों की पहुँच इतनी नहीं है जितनी कि टीवी की । टीवी वाले ऐसे समाचार भला क्यों दिखाएंगे जिससे चैनल की TRP बढ़ने की कोई उम्मीद ही नहीं ।
आशा है लोगों में जागरूकता आएगी और ऐसे ठगी के मामले और ज्यादा न होंगे ।

शनिवार, जुलाई 04, 2009

देश विकसित बने भी तो कैसे ?

जमाना बदल रहा है । पर जैसा कि हमेशा होता आया है बदलाव को स्वीकार करने वालों से ज्यादा लोग इसका विरोध कर रहे हैं । समलैंगिकता पर बहस करना आजकल एक फ़ैशन सा हो गया है । फ़िलहाल अधिकतर बहसों में इसके विरोधियों की संख्या ही अधिक मालूम होती है । सब काम छोड़कर लोगों को अचानक समाज की चिन्ता सताने लगी है । ऐसा लगता है कि समाज पर बहुत बड़ा संकट आ गया है । पर जो लोग समझदार हैं वे अल्पमत में होते हुए भी इसके समर्थन में डटे हुए हैं और बहुमत से लोहा ले रहे हैं । असल में यही वे लोग हैं जिन्हें समलैंगिकता को बढ़ावा देने के फ़ायदे समझ आ गए हैं बाकी तो यूँ ही बस ध्यानाकर्षण हेतु हो हल्ला कर रहे है ।
समझ लीजिए अगर समलैंगिकता को बढ़ावा दिया जाए और देश में समलैंगिकों की पर्याप्त संख्या हो जाए तो कई समस्याएं तो स्वयं ही VRS ले लेंगी ।
जिन्हें समाज में लगातार गिरते जारहे स्त्री पुरुष अनुपात की टेंशन लगी रहती है उन्हें अब निश्चिंत हो जाना चाहिए । जब स्त्री पुरुष अनुपात ही सन्दर्भहीन हो जाएगा तो इसके उठने या गिरने से किसी को का क्षति-लाभ ?
कुछ लोगों की शिकायत रहती है कि अगर दिन दूनी रात चौगुनी दर से बढ़ रही जनसंख्या पर लगाम कसी जा सके तो हमें विकसित देश का तमगा हासिल करने से ब्रह्मा भी नहीं रोक सकते । देश के विकसित होने की गारण्टी तो हम नहीं ले सकते पर इतना तय है कि जनसंख्या वृद्धि दर में अवश्य कमी आ जाएगी और यदि स्थितियां अनुकूल रहीं तो क्या पता जनसंख्या घटने भी लगे । फ़िर देश के विकसित होने की राह में इसके रोड़ा बनने का बहाना न चल सकेगा ।
आजकल परिवार में पति-पत्नी के बीच आए दिन झगड़े होते रहते हैं । कभी कभी तो यह झगड़े न्यायालय तक भी पहुँच जाते हैं और इनकी वजह से ज्यादा जरूरी मामलों को निपटाने के लिए अदालतों के पास समय की कमी हो जाती है । इन झगड़ों के होने का कारण दरअसल शक्तिसन्तुलन का न होना है । लेकिन जब टक्कर बराबरी की होगी तो झगड़े की स्थिति ही न बनेगी । समझ लीजिए जैसे दो परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के बीच तनाव तो होता रहता है पर हमला कोई नहीं करता ।
बेचारी अबलाओं को तो जैसे मोक्ष ही मिल जाएगा । खूब चैन की बाँसुरी बजेगी ।
दहेज प्रथा जैसी बुराइयाँ अपना अस्तित्व खो देंगी । क्योंकि जब दोनों पक्ष बराबर हों तो कौन किसे दहेज देगा ?
जब समलैंगिकों का बहुमत हो जाएगा तो देश में लड़का-लड़की की शादी को अवैध और अप्राकृतिक करार दे दिया जा सकता है या इसे टैक्स के दायरे में लाया जा सकता है । जिससे देश की सरकार को काफ़ी राजस्व मिलने की संभावना है ।
दरअसल दूसरों की खुशियाँ देखकर विचलित हो जाने का गुण हमारे समाज में कूट कूटकर भरा गया है । इसीलिए तो इतने सारे फ़ायदों के बावजूद समाज का बहुमत समलैंगिकता के खिलाफ़ खड़ा नजर आ रहा है ।
बताइये , यह देश विकसित बने भी तो कैसे ?

गुरुवार, जुलाई 02, 2009

देवी तेरी महिमा अपार

मैं होश सँभाला हूँ जब से ।
तुझको महसूस किया तब से ॥
तू मेरे साथ रही हरदम ।
खुशियाँ हों या घेरे हों गम ॥
मैं होता हूँ जब महफ़िल में ।
तू रहती है मेरे दिल में ॥
जब कभी अकेला होता हूँ ।
तेरे सपनों में खोता हूँ ॥
तू चुपके से आ जाती है ।
बस मुझे उठा ले जाती है ॥
पहुँचा देती है स्वप्नलोक ।
सपने देखूँ बेरोक-टोक ॥
मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ ।
आश्चर्य ! न बिल्कुल थकता हूँ ॥
यह अखिल विश्व तारामण्डल ।
हो चन्द्र या कि हो सूर्य धवल ॥
मैं पहुँच गया सबसे ऊपर ।
पल में फ़िर आ धमका भू पर ॥
जीवन धरती से दूर जहाँ ।
मैं अन्तरिक्ष में गया वहाँ ॥
अनगिनत सभ्यताएं पलतीं ।
तेरे ही साँचों में धलतीं ॥
तू मन है तू ही है विचार ।
देवी तेरी महिमा अपार ॥
तुझमें ही बसते हैं ईश्वर ।
तू ब्रह्मा, तू विष्णु, तू हर ॥
तेरे ही कारण स्वर्ग, नर्क ।
राशियाँ मेष, वृष, कुम्भ, कर्क ॥
तू लाजवाब का है जवाब ।
बिन नींद दिखाती तु ही ख्वाब ॥
बिन तेरे मैं संबलविहीन ।
ज्यों योद्धा रण में शस्त्रहीन ॥
मैं कवि हूँ तू कल्पना, बता ।
बिन तेरे मेरी बिसात क्या ?

बुधवार, जुलाई 01, 2009

मानसून से मोर तक


अब लग रहा है कि मानसून जी आ गए हैं । वैसे नामानुकूल तो जैसा कि इनका नाम है मान+सून तो इनको जल्दी मान जाना चाहिए था पर इतने पर भी मान गए तो जल्दी ही समझा जाना चाहिए । अब आ गए हैं तो बारिश भी करेंगे । क्या है कि बड़े लोग जहाँ भी जाते हैं जरा देर से पहुँचते हैं और फ़िर घोषणाओं की झड़ी लगा देते हैं । घोषणाओं की बारिश करने में कोई रिस्क फ़ैक्टर तो है नहीं इसलिए घोषणा को अमल में लाया जा सकेगा या नहीं इसकी टेंशन प्राय: घोषणा करते समय न लेना ही उचित माना गया है । ऐसा कोई उदाहरण इतिहास में शायद न मिले जिसमें किसी झूठी घोषणा करने वाले को सजा हो गई हो ।
मानसून जी ने भी सोचा होगा, अबकी बार दिखा दिया जाय कि वे भी कम बड़े नहीं इसीलिए जरा देर से आए होंगे । अब बरसने की बारी है तो बरस भी रहे हैं और गरज गरजकर घोषणा भी करते जा रहे हैं या कहें कि झूठी घोषणा करने वालों को ललकार रहे हैं कि ,"इधर देखो ऐसे होते हैं बड़े । झूठी घोषणाओं की बारिश नहीं करते हम !"
अब मोर को पक्का भरोसा हो गया है कि अंग-प्रदर्शन का यही सुनहरा अवसर है और वह जहाँ मन होता है वहीं लंगोटी खोलकर नंगा नाच दिखाने लगता है । कोई शर्म नहीं , कोई लिहाज नहीं । कुछ चिड़ियों का सोचना है कि, "मोर को कम से कम इतना खयाल तो होना ही चाहिए कि वह राष्ट्रीय पक्षी है कोई आम चिड़िया नहीं । पर देखिए तो नंगई में आम चिड़ियों से मीलों आगे है । पता नहीं इसे राष्ट्रीय पक्षी किन परिस्थितियों में घोषित किया गया होगा । बोलिए तो दूसरी चिडियाँ राष्ट्रीय पक्षी क्यों नहीं बन सकतीं ? हमारी समझ से तो राष्ट्रीय पक्षी का भी निर्णय चुनाव से होना चाहिए । और अगर राष्ट्रीय पक्षी कोई ऐसी वैसी हरकत करता मिले तो उसके खिलाफ़ बाकायदा महाभियोग प्रस्ताव लाया जाना चाहिये । "
मोर ने जब यह सुना तो चिड़ियों को खूब लताड़ पिलाई । बोले ," हम बालिग हैं । कोई बच्चे नहीं । हमें भी अच्छे बुरे की समझ है । जैसे चाहें कपड़े पहनें या फ़िर न पहनें । हम क्या करें , क्या न करें इसमें किसी राय की जरूरत हमें नहीं है । हमारा जब मन होगा जहाँ मन होगा ऐसे ही नाचेंगे । जिसे अच्छा नहीं लगता वह हमारी तरफ़ देखे ही क्यों ?
और रही बात राष्ट्रीय पक्षी होने की तो मैं पद का लालची कभी नहीं रहा । त्यागपत्र जेब में लेकर घूमता हूँ । पर यह देना किसे है यही मालूम नहीं । यहाँ जान के लाले पड़े रहते हैं और आप हमें पद की धमकी दे रहे हैं । मुझे मारते समय क्या कोई सोचता है कि मैं राष्ट्रीय पक्षी हूँ इसलिए मुझ पर रहम किया जाय ?
बाघ भी तो राष्ट्रीय पशु है उससे कभी किसी ने सवाल किया है कि भाई तू राष्ट्रीय पशु है तो हिंसा क्यों करता है ? महात्मा गाँधी के देश में क्या राष्ट्रीय पशु बनाने के लिए बाघ ही मिला था ?"

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