गुरुवार, दिसंबर 31, 2009

पर सेकण्ड क्रान्ति

साल बीत गया । जब धरती के विनाश की भविष्यवाणियाँ की जा रही हों तो साल की क्या औकात ? वह भी तब जब पुराने के बद्ले नया हाथोंहाथ मिल रहा हो ।

प्रागैतिहासिक काल से लेकर अब तक आदमी ने बहुत तरक्की कर ली है । तरक्की के इस सफ़र में बहुत सी खोजें हुईं जो मील का पत्थर कही जा सकती हैं । धातुओं की खोज, पहिए का आविष्कार, और आग की खोज ऐसी ही कुछ बातें हैं जिनका मानव सभ्यता की प्रगति के साथ अटूट सम्बन्ध है ।

जहाँ एक ओर मानव को विज्ञान ने शारीरिक आराम दिया वहीं उसका मानसिक चैन भी छीन लिया । ऐसे हाथियार भी विकसित हो गये जो धरती को कुछ पल में ही वीरान करने में सक्षम हैं ।

आदमी ने बड़ी से बड़ी क्रान्तियाँ कर डालीं । फ़्रान्स की क्रान्ति, इंग्लैण्ड की क्रान्ति, मैग्नाकार्टा, रूस की क्रान्ति, साम्यवाद और भी न जाने क्या क्या किया । पर इस पर सेकण्ड क्रान्ति को क्या कहा जाय ? पर सेकण्ड क्रान्ति की धूम है । चारों ओर इसके गुण गाये जा रहे हैं । कोई एक सेकण्ड का एक पैसा तो कोई आधे पैसे की दुहाई दे रहा है( पता नहीं पैसे को किस तरह आधा करेंगे) ।

पर सेकण्ड क्रान्ति ने पहले से ही सुपर फास्ट हो चुकी आदमी की ज़िन्दगी को सुपर सुपर फास्ट बना दिया है । कुछ दिनों पहले तक हम फोन पर बात करते समय सेकण्ड की सुई को देखते जरूर थे पर मिनट की अवधि चूक जाने पर फिर एक और मिनट के लिए रिलैक्स हो लाते थे । पर अब तो हर सेकण्ड बिल चलता है । बात करते समय सेकण्ड की सुई को हर पल देखते रहना पड़ता है ।

यह पर सेकण्ड क्रान्ति क्या रंग लायेगी अभी कहना जल्दबाजी होगी । फिर भी एक मोटा मोटा आइडिया लगा सकते हैं । कुछ दिनों बाद अगर आपको दीवार पर लगी घड़ी में सेकण्ड वाली सुई मिनट और घण्टे वाली सुइयों से मोटी दिखाई दे तो आश्यर्य न कीजियेगा । हो सकता है बेचारी मिनट का पत्ता ही कट जाय और केवल घण्टे और सेकण्ड ही बचें । आखिर एक घण्टे में सेकण्ड होते ही कितने हैं । कुल 3600 ही न ?

चलते-चलते
एक SMS मिला है कुछ इस तरह है:

परिश्रम = असफलता नहीं ………. समीकरण १
परिश्रम नहीं = असफलता ………. समीकरण २
समीकरण १ और २ को जोड़ने पर
परिश्रम + परिश्रम नहीं = असफलता नहीं + असफलता
परिश्रम( 1 + नहीं ) = असफलता( नहीं + 1 )
हम जानते हैं कि योग के विनिमेय नियम द्वारा
1+ नहीं = नहीं + 1
अत:
परिश्रम = असफलता

इतिसिद्धम्

सभी पाठकों को आने वाले नववर्ष की शुभकामनाएं । मिलते हैं अगले साल । तब तक लेते रहिए मौज ।

सोमवार, नवंबर 16, 2009

इकत्तीस साल - दो सौ पोस्ट

Happy-Birthday

आज हमारा हैप्पी बड्डे है । पूरे ३१ साल के हो गये आज । जीवन यात्रा में जन्मदिन का महत्व एक मील के पत्थर जैसा है । मील के पत्थर तो अब रहे नहीं । हमने तो जबसे होश संभाला है किलोमीटर के पत्थर ही देखे हैं । पहले होते होंगे मील के पत्थर । तो सिद्ध हुआ कि जीवन यात्रा में जन्मदिन का महत्व किलोमीटर के पत्थर जैसा है । हेंस प्रूव्ड ।

किलोमीटर का पत्थर आने पर हम अक्सर यह जानने को उत्सुक रहते हैं कि यात्रा कितनी बची है । लेकिन जीवन यात्रा में यह सुविधा अभी उपलब्ध नहीं है । यहाँ सिर्फ़ पीछे मुड़कर देखा जा सकता है कि कितनी दूर निकल आये । फिर भी एक मोटा मोटा सा अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आधे से ज्यादा आ गये होंगे । पीछे ज्यादा कुछ छोड़ा नहीं है । पीछे वाले को बिना छोड़े जो आगे मिल रहा है उसे भी समेटने में लगे हैं । बड़े लालची हैं हम । बचपन को अभी भी कसकर पकड़ा हुआ है । जब तक सिर पर बड़ों का आशीर्वाद कायम है तो उम्र बढ़ने के क्या होता है ? पर अब छीनाझपटी का सा माहौल बनने लगा है । मित्र-राष्ट्र बचपन की रस्सी को हमारे हाथ से छीनने पर तुले हैं । इस बात को ऐसे समझा जाय कि तेंदुलकर शतक लगाकर मैदान से लौटे हों और कोई पत्रकार भाई पूछ लें कि उम्र को देखते हुए क्या वे क्रिकेट से सन्यास लेने पर विचार कर रहे हैं ? पर वे तेंदुलकर हैं, हम नहीं । वे जब तक चाहें खेल सकते हैं ।

वैसे सरकार यदि शादी-व्याह जैसी तमाम व्यक्तिगत बातों की तरह यदि बचपना छोड़ने की भी उम्र तय करना चाहती हो तो हमारी सलाह यही होगी कि चालीस तक तो बख्श ही दिया जाय । असल में लोग जल्दी बचपना छोड़ देते हैं । फिर शिकायत करते हैं कि बुढ़ापा आगया । अगर बचपन को ही चालीस पार करके छोड़ा जाय तो संभव है बुढ़ापा सौ के पार आये । और मरेंगे डेढ़ सौ के आस-पास ।

हम जब लेख लिखने लगते हैं तो भटक जाते हैं । इसीलिये कविता लिखकर फूट लेते हैं । ये लेख-फेक लिखना फुरसतिया जी जैसे लोगों को ही शोभा देता है ।

हाँ तो कौन सा पाठ पढ़ा रहे थे हम ? हाँ याद आया । हम कह रहे थे कि हमारी यह दो सौवीं पोस्ट ऐसे ही नहीं हो गयी । इससे पहले 199 लिख चुके हैं तब यह दो सौ वीं छप रही है ।

यूँ हमारे पास खाली समय फिलहाल नहीं के बराबर है । तदापि यह आप लोगों का प्यार का आकर्षण ही है जो बिना रस्सी के भी खिंचे चले आते हैं ।

स्वप्नलोक पर और चिट्ठाचर्चा पर आपका जो प्यार मिला उसने हमेशा उत्साह बढ़ाया । यह अलग बात है कि चिट्ठाचर्चा में शामिल होने को कुछ पवित्रात्माओं ने चमचागीरी का नाम देकर भी हमें सम्मानित किया । कई दिन तक खज़ाने की तलाशी लेते रहे कि जब चमचागीरी की है तो कुछ न कुछ फायदा भी किसी न किसी मद में हुआ होगा हमें । पर कुछ मिला नहीं अभी । शायद कभी रद्दी बेचते समय मिल जाय ।

चिट्ठाचर्चा ने अभी पिछले दिनों १००० का आंकड़ा छुआ । बड़ी खुशी हुई । अनूप जी ने चिट्ठाचर्चा के द्वारा जो काम हिन्दी ब्लॉगरों का उत्साह बढ़ाने में किया है उसके मैन-आवर्स निकालने लगें तो अवश्य ही कनफ्यूजिया जायें । हम तो यही कहेंगे कि अनूप जी के व्यक्तित्व का पासंग भी अभी ब्लॉग-जगत में कोई नहीं हुआ । बराबरी की तो खैर क्या कहें !

शनिवार, नवंबर 14, 2009

सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ

ANANT


सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ

बाल-दिवस पर ऐसा करना ठीक रहेगा
हाथ लगा यह अच्छा अवसर इसे भुनाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


गन्दा बच्चा बनने का अब फैशन बीता
गन्दे बच्चे की इमेज को लगे पलीता
करूँ नित्य कुछ पुण्य पढ़ूँ मैं कुरान-गीता
नीम, करेला छोड़ूँ अब शक्कर अपनाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


क्रोध उठाकर अलग ताक पर धरना होगा
वाणी पर कुछ कठिन नियन्त्रण करना होगा
श्रम का कुछ अच्छा परिणाम न वरना होगा
मन मन्दिर में एक तराजू भी लगवाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


इस दुनिया में पहले से ही ढेरों गम हैं
देखो तो हँसने के अवसर कितने कम हैं
जिसको देखें उसकी ही आँखें अब नम हैं
मैं क्यों दिल को दुखा एक गम और बढ़ाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


यूँ इतना आसान नहीं है अच्छा बनना
फिर भी कुछ प्रयास करने में कैसा डरना
फल देगा भगवान कर्म बस हमको करना
फिर क्यों चिन्ता करूँ व्यर्थ मन को उलझाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ


बाल-दिवस पर ऐसा करना ठीक रहेगा
हाथ लगा यह अच्छा अवसर इसे भुनाऊँ
सोच रहा हूँ अच्छा बच्चा बन ही जाऊँ



चलते-चलते


Gyandutt



ज्ञानदत्त जी हो गये, चौवन साला आज ।

करत रहें ब्लॉगिंग सदा, कभी न आयें बाज ॥

कभी न आयें बाज, दुआयें लगें हमारी ।

करते ब्लॉगर-श्रेष्ठ बिलागिंग सबसे न्यारी ॥

विवेक सिंह यों कहें, मचाते मन में हलचल ।

इलाहबाद में बसें, सुनें गंगा की कलकल ॥

शुक्रवार, नवंबर 13, 2009

क्या राजनेता देश को आगे ले जाने के मूड में हैं ?

वैश्वीकरण के इस युग में संचार-क्रान्ति ने सारे विश्व को ही एक गाँव बनाकर रख दिया है । अब वसुधैव-कुटुम्बकम की भारतीय अवधारणा जहाँ सच होती नज़र आ रही है, वहीं दूसरी ओर इसे बिडम्बना ही कहा जाएगा कि भारतीय समाज खुद बिखराव की ओर अग्रसर दिख रहा है । बेवजह के क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक विवादों ने आम आदमी का जीना दूभर किया हुआ है ।

वास्तव में आज के जमाने में धर्म और राज्य के आधार पर देश को बाँटने की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है । देश को सूबों में बाँटकर राजकाज को आसान बनाने की आवश्यकता मध्ययुग में थी । आज जब पल भर में सूचना विश्व के कोने कोने में पहुँच रही है तब राज्य किसलिए ? क्या जनपदों अथवा मण्डलों में विभाजन ही पर्याप्त नहीं ?

इसी तरह यदि हमारा देश वास्तव में धर्म निरपेक्ष है तो देश का हर नागरिक धर्म और जाति से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिए । हिन्दू कानून अलग, मुसलमान कानून अलग ऐसा क्यों ?

अब जब हर नागरिक को अलग पहचान नम्बर देने की बात की जा रही है और सबकी आर्थिक स्थिति का रिकॉर्ड रख पाना भी कोई मुश्किल कार्य नहीं रहा । ऐसे में जाति को आधार बनाकर सब लोगों को गाय-भैंस की तरह हाँकने से क्या फायदा ?

क्या हमारे राजनेता देश को वाकई आगे ले जाना चाहते हैं ?

किचिन से फूँकनी गायब

किचिन से फूँकनी गायब

आ गया कैसा जमाना ?
या खुदा ! या रब !
किचिन से फूँकनी गायब ॥

पड़ी जरूरत जब भी इसकी
कभी न यह मौके से खिसकी
किया कार्य थी डिमाण्ड जिसकी
दिया मुँह आग में जब-तब
किचिन से फूँकनी गायब ॥

लेकिन फिर भी गयी नौकरी
बन्द हुई प्राचीन फैक्टरी
जैसे सिर पर फूटे गगरी
आँसुओं से भीगा तन सब
किचिन से फूँकनी गायब ॥

चिमटा, चमचा निकले चालू
और तवा जैसा भी कालू
उड़ें हवा में जैसे बालू
नौकरी नयी मिल गयी अब
किचिन से फूँकनी गायब ॥

फुँकनी के घर अंधकार है
नई जॉब का इंतजार है
कंधों पर परिवार भार है
मौन है, सिल गये ज्यों लब
किचिन से फूँकनी गायब ॥

आ गया कैसा जमाना ?
या खुदा ! या रब !
किचिन से फूँकनी गायब !

गुरुवार, नवंबर 12, 2009

विचार-धारा का संवैधानिक संकट

हमने जब हाई-स्कूल के बाद केमिकल इंजीनियरिंग में चार साल का डिप्लोमा पास कर लिया तो काफी खुश थे । सच पूछा जाय तो थोड़ा घमण्ड भी हमारे भीतर घर बना लिया था । हमारे जो साथी स्नातक हो गये थे उन्हें हम कुछ भाव ही न देते थे ।

पर ईश्वर ऊपर से यही सब तो देखते रहते हैं । उन्होंने अपने किसी दूत के द्वारा हमें ज्ञान दिया कि हम प्रैक्टीकली चाहे जितना खुश हो लें, पर थियोरिटीकली स्नातकों के लेवल से बहुत नीचे हैं । वह बात अलग है कि टेक्निकल नॉलेज हो जाने के कारण कोई न कोई फैक्टरी हमें काम पर रख ही लेगी । जबकि स्नातक की तो वैल्यू ही अलग है । स्नातक चाहे तो आईएऐस के लिए ट्राई मार सकता है जबकि तुम नहीं ।  जब तक आदमी स्नातक नहीं हो जाता, उसे सही मायनों में पढ़ा लिखा ही नहीं माना जा सकता । जिसने बीए कर लिया समझो बुद्धिजीवी हो गया । उसे विधान-परिषद में वोटिंग का अधिकार मिल जाता है । उसकी एक विचार-धारा बन जाती है । और तुम रहोगे डिप्लोमची ही , चाहे पैसा कितना ही कमा लेना ।

यह बात हमारे हृदय में घर कर गयी । अगले ही साल इण्टरमीडियेट का प्राइवेट फॉर्म भरा । नौकरी भी की और परीक्षा भी दी । पास भी हो गये । इसी तरह खेंच-कढ़ेर के बीए भी हो गए । पर विचार-धारा न पनपी । सोचा हो सकता है हमारी विचार-धारा बनने में कुछ ज्यादा मेहनत लगे । इसलिए एमए भी करने लगे । वह भी मर-गिर के हो ही गयी । सारा देशी विदेशी इतिहास और राजनीति शास्त्र चाट लिया पर विचार-धारा न पनपी । बल्कि और कनफ्यूज से हो गये ।

अब तो अक्कल-दाढ़ भी जोर मार रही है । कहते हैं जिसके मुँह में ऐग्जैक्ट बत्तीस दाँत हों उसकी जिव्हा पर सरस्वती जी आकर बैठ जाती हैं और आदमी सच बोलने लगता है ।

सोच रहा हूँ जिसकी कोई विचार-धारा ही नहीं वह अगर सच बोले तो क्या परिणाम होंगे ?  इसी उधेड़बुन में रहता हूँ कि कौन सी विचार-धारा ज्वॉइन करूँ- कौन सी न करूँ । अलग अलग विचार-धारा वाले लोगों के प्रवचन सुनता हूँ । प्रभावित होता हूँ । पर अगले विचारक के विचार सुनते ही पहले वाले के विचार भूल जाता हूँ । बड़ी विकट समस्या है । मन की सरकार में विचार-धारा का संवैधानिक संकट सा खड़ा हो गया है । आशा है अक्कल-दाढ़ पूरी बाहर आने से पहले कोई न कोई विचार-धारा बन ही जाएगी ।

मंगलवार, नवंबर 10, 2009

मर्दों वाला काम

abu_azmi

अबू आज़मी ने किया, मर्दों वाला काम ।

कम से कम इस बात पै, मेरा उन्हें सलाम ॥

मेरा उन्हें सलाम, झुके बाकी सब योद्धा ।

तुम ही साहूकार, और सब तो घसखोदा ॥

विवेक सिंह यों कहें, बधाई हुई लाजमी ।

मर्दों वाला काम कर दिये अबू आजमी ॥

शनिवार, अक्तूबर 31, 2009

मठाधीश बाबा के आश्रम में

कल रात तबियत कुछ अच्छी महसूस नहीं हो रही थी । मैं जल्दी सो गया । रात को अचानक कॉलबेल बजी तो उठकर दरवाजा खोला । दरवाजे पर चार अजीब से प्राणी खड़े थे । एक ने आदमी की तरह बात करते हुए मुझे हिन्दी में कहा, “ चल भई तुझे ब्लॉग-मठाधीश ने बुलाया है ।” इसके बाद उन्होंने मुझे बोलने तक का मौका नहीं दिया । मुझे बोलने का मौका तभी मिला जब होश आने पर मैंने स्वयं को ब्लॉग-मठाधीश के सामने खड़ा पाया । एक प्राणी बोला बाबा यही वह ब्लॉगर है जिसे आपने याद किया था ।

बाबा एक ऊँचे से आसन पर बैठे हुए मठा पी रहे थे । बगल में ही एक बर्तन रखा था जिसको अभी आखिरी कौर खाकर बाबा ने खाली कर दिया था । बाबा पास खड़े प्राणी से बोले, “ बच्चा माफी दो ।” वह प्राणी भागता हुआ गया और सेकिण्डों में माफी का टोकरा लेकर दौड़ता हुआ आ गया । बर्तन भरा हुआ देखकर बाबा का चेहरा खिल उठा । मैं समझ गया कि बाबा को माफी खाने का शौक है ।

बाबा ने मेरी ओर नज़र उठाकर कहा, “ हमें माफी दो बच्चा जो इतनी रात गये बुलाया ।” मैंने तुरंत बाबा के पास जाकर बर्तन से उठाकर थोड़ी सी माफी बाबा के हाथ पर रख दी । बाबा देखते रह गये । मुँह से इतना ही निकला, “माफ करना, बहुत शातिर हो ।”

फिर बाबा काम की बात पर आये । बोले, “माफ करना, दरअसल हमें शंका हो गयी है ।” मैंने हिम्मत करके पूछा , “ क्या शंका है बाबा ? मुझे आपकी शंका का समाधान करके खुशी होगी ।”

“माफ करना, सही बताओ यह स्वप्नलोक कंपनी का क्या रहस्य है ?”

बाबा, इतनी सी बात को इस तरह बुलाकर पूछा ?”

तभी एक प्राणी बोला, “ ओ सीधे से मुद्दे की बात बता । बाबा मीठा बोलते हैं इसका ये मतलब नहीं है कि बहुत सीधे हैं ।”

मेरे शरीर में झुरझुरी सी हो गयी । बाबा मुस्काराने लगे । बोले, “ माफ करना, बच्चे उद्दण्ड हैं । हाँ तो स्वप्नलोक कंपनी का क्या रहस्य है ? ”

आपको क्या लगता है ?”

माफ करना, हमें लगता है कि इस कंपनी में असल में कई लोग शामिल हैं । एक अच्छा कवि, एक बढ़िया कवि, एक अच्छा व्यंग्यकार, एक बढ़िया व्यंग्यकार, एक अच्छा कार्टूनिस्ट, एक बढ़िया कार्टूनिस्ट आदि आदि कई लोग इस ब्लॉग पर लिखते हैं ।”

बाबा अन्दाज़ा तो आपका ठीक है पर अच्छा और बढ़िया क्या अलग होते हैं ?”

फिर प्राणी को हस्तक्षेप करना पड़ा, “ तुझे अभी तो बताया था कि बाबा मीठा ही बोलते हैं । खराब को अच्छा कहते हैं और बढ़िया तो खैर बढ़िया हईये है । तू सीधा खड़ा रहेगा कि लगाऊँ एक कण्टाप ?”

बाबा ने हाथ से उसे शान्त रहने का इशारा किया और बोले, “ माफ करना, हमारी शंका निर्मूल नहीं थी । हम शर्त जीत गये । दर असल अभी शाम को ही एक नामचीन ब्लॉगर तुम्हारी बहुत तारीफ कर रहे थे । तो हमने अपनी शंका उनके सामने रख दी । शंका भारी थी लिहाज़ा वे लगभग दब से गये और शर्त लगा बैठे । हार गये बेचारे । ”

मैंने पोल खुलने के डर से कातर स्वर में निवेदन किया कि “बाबा यह बात अपने तक ही रखें अन्यथा बड़ी भद्द पिटेगी मेरी ।”

माफ करना, ठीक है पर तुम कंपनी में कवि, कार्टूनिस्ट आदि में से किस पद पर हो ?”

मैं तो बस लेखक हूँ बाबा । सबकी ओर से लिखता भर हूँ ।” कहते हुए मैं शर्म से जमीन में गढ़ा जा रहा था ।

बाबा ने धीरज बँधाया, “माफ करना, डरो मत ब्लॉग-जगत में सिर्फ़ तुम्हीं पर हमें शंका नहीं हुई है । राज और भी हैं जो हम किसी को नहीं बताते । पर तुम्हारा राज जाना है तो तुम्हें बताये देते हैं । दरअसल फुरसतिया, अनूप शुक्ल, अजय कुमार झा, और टिप्पू चाचा एक ही व्यक्ति हैं । समीरलाल एक व्यक्ति नहीं हैं । चेले चपाटे मिलाकर कुल दस लोग हैं जो उड़नतश्तरी नाम से टिपियाते और लिखते हैं । ताऊ जी का मसला तो खैर बच्चा बच्चा जानता है कि ताऊ कोई व्यक्ति नहीं एक टीम है । इस टीम के साथ एक रोचक बात यह है कि इनमें से किसका फोटू लगेगा यह आज भी डिसाइड नहीं हो सका है । और ज्यादा जानना चाहते हो तो सुनो, शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय भी एक ही व्यक्ति हैं ।”

मैं यह सब सुनकर अविश्वास से कहने लगा, “नहीं यह नहीं हो सकता । यह नहीं हो सकता ।”

इतने में पत्नी जी ने मुझे जगाकर पूछा, “ क्या नहीं हो सकता ?

और इस तरह मेरा सपना अधूरा ही रह गया ।

शुक्रवार, अक्तूबर 30, 2009

न जाओ मकर वृत्त की ओर

चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

कर्क वृत्त वाले यूँ ताकत
ताके, जैसे चाँद चकोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

तुम्हें मकर वालों की चिन्ता
किन्तु हमारा हक है छिनता
कोई वहाँ तुम्हें है गिनता ?
वहाँ पर हो जाओगे बोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

वहाँ गये तो पछताओगे
जाकर वहाँ लात खाओगे
वापस लौट यहीं आओगे
मकर वाले हैं अति लतखोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

वहाँ सुरक्षित रह न सकोगे
उस धारा में बह न सकोगे
हाल स्वयं का कह न सकोगे
कष्ट का कोई ओर न छोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

तुम बहकावे में मत आओ
मसला बैठ यहीं सुलझाओ
क्या दिक्कत है हमें बताओ
बड़े हो तुम अब नहीं किशोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर
?

हमसे यूँ मत रूठो संगी
बातें करो न ये बेढंगी
साथ सहेंगे सब सुख-तंगी
हम, इस बगिया के मोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

तेज धूप भी हमने झेली
रहे झुलसते हम सब डेली
फिर भी सदा सीख तुमसे ली
उठाओ मत यह कदम कठोर
न जाओ मकर वृत्त की ओर

कर्क वृत्त वाले यूँ ताकत
ताके, जैसे चाँद चकोर
चले तुम मकर वृत्त की ओर ?

रविवार, अक्तूबर 25, 2009

अब साधू होने का मन है

हमको नाहक ही बुलवाया
इंतजाम यह रास न आया

दोहरी सभी व्यवस्थाएं थीं
पैसा जाने कहाँ बहाया

उनको दूध-जलेबी हाज़िर
हमें बेड-टी को तरसाया

कैसी कैसी उम्मीदें थीं
उन पर पानी खूब फिराया

वे ठहरे एसी कमरों में
हमें मच्छरों से कटवाया

सीखे-पढ़े सभी मच्छर थे
सारी रात खूब तड़पाया

जिनके पास न डिग्री कोई
संचालक उनको बनवाया

ज्ञान हमारा जगजाहिर है
आम जनों में खुद को पाया

बैठे आप घरों में अपने
आप नहीं समझोगे भाया

जिसके पैर न फटी बिवाई
दर्द पराया समझ न पाया

और भला अब क्या बतलाएं
कहते कहते दिल भर आया

अब साधू होने का मन है
यह ब्लॉगिंग तो है बस माया

इलाहाबाद में चिट्ठाकारों का सम्मेलन हो गया । कुछ लोगों को बुलाया गया कुछ को नहीं बुलाया गया । हम उनमें से हैं जिन्हें नहीं बुलाया गया । अपना दर्द किससे कहें ? ऊपर से जिन्हें बुलाया गया उनमें से एक सज्जन हमसे मौज ले लिये । टिप्पू चाचा की अदालत में अरविंद मिश्र कहते हैं :

"हाँ विवेक की परिकल्पनात्मक टिप्पणी सही है वे आये होते तो उनको भी भाव दिया जाता -खेमा उन्ही का हावी था !क्या करियेगा हिन्दी बेल्ट अपनी इन कमजोरियों से उठ ही नहीं पा रहा !"

यह तो सरासर जले पर नमक छिड़का जा रहा है । हमारा खेमा होता तो हमें बुलावा भी न मिलता ?

शनिवार, अक्तूबर 24, 2009

सबसे पहले मैंने ही

सबसे पहले मैंने ही, चिट्ठे को ‘चिट्ठा’ बोला था
यह रहस्य था गहरा मैंने, इलाहाबाद में खोला था

सुनते ही सब मचल गये थे, तान लिये थे भौहें भी
जैसे मैंने गिरा दिया जो, वह परमाणु गोला था

कुछ लोगों ने इसे मामला, झूठमूठ का बतलाया
लेकिन मैंने भी तो पहना, बुजुर्गियत का चोला था

कानाफूसी बहुत हुई पर, कानों में ही उलझ गयी
कोई खुलकर बोल न पाया, मुँह में कोका-कोला था

कोई हल्की बात कहे, या इसको भारी बतलाये
मैंने अपने इन शब्दों को पहले कभी न तोला था

तीसमारखाँ अच्छे अच्छे, मार न पाये पन्द्रह भी
मैं यह समझा चतुर हो गया, लेकिन ब्लॉगर भोला था

नया शौक नेतागीरी का, बिस्मिल्लाह करने आये
टकले होकर घर से निकले, गिरा चाँद पर ओला था

बीच धार जब लगी डूबने, नैया तो सब चिल्लाये
यह क्या ? हमने तो समझा था कोई उड़नखटोला था

बड़े शौक से पास बुलाया, कितनी इज़्ज़त बख्श दिये
बेचारों को मालुम क्या, मैं फूल नहीं था शोला था

पैर कब्र में लटके तो क्या, जो मिल जाये अच्छा है
नामवरी का काम किया यह, भरा नाम से झोला था

शुक्रवार, अक्तूबर 23, 2009

तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

तलते थेद उती थाली में
दितमें में लथ थाना थाते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

तलते बत अपनी मनमानी
औलों ती बातें बेमानी
बत ये ही तो बते हैं द्यानी
अपनी बात तहे दाते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

विनम्लता ते बैल पुलाना
दो दी में आये तह दाना
इधल लदाना उधल बुदाना
त्वतल्तव्य तलते दाते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

औलों तो इमोतनल तलते
त्वयं उदाती ते भी दलते
अत्तहास ते तान ततलते
बात बात पल मुतताते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

अपना पतधल लोत न पाये
नदल हमाली ओल धुमाये
बतन्त देथा तो ललताये
ये तब त्या अत्थी बातें हैं ?
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं

बैथे इलाहाबाद में दातल
बोले थूब दोत में आतल
हुतैन हम ना हुए वहाँ पल
दहाँ बैथ तब बतियाते हैं
तहाँ तहाँ ते आ दाते हैं !

सोमवार, अक्तूबर 19, 2009

बन्द कर अब मेरा धीरज जा लिया

मेजर गौतम राजरिशी से प्रभावित होकर आज गज़ल में हाथ आज़माने का मन किया । बस लिख दिया यूँ ही कुछ निरर्थक । पर गज़ल बनी कि नहीं यह तो गज़लगो ही जानें । आप पढ़िए ।

तेरी खुराफातों से आजिज़ आ लिया ।
बन्द कर अब मेरा धीरज जा लिया ॥


कर रहा है धृष्टता पर धृष्टता ।
चैन की वंशी का सुर चुरा लिया ॥

वाहवाही दी बहुत मैंने मगर ।
आज तूने सत्य ही बुलवा लिया ॥

नाम मेरे साथ तूने जोड़कर ।
फालतू में नाम भी कमा लिया ॥

कब भरेगा पेट ओ भूखे तेरा ?
मारकर इज़्ज़त तो मेरी खा लिया ॥

मैं इशारों में नहीं समझा सका ।
कर दिया मजबूर मुँह खुलवा लिया ॥

बन रही थी जब मेरी सरकार तब ।
तू समर्थन उस समय हटा लिया ॥

अब सुधर जा कुछ भलाई भी कमा ।
पाप तो तूने बहुत कमा लिया ॥

अब दुआएं लूटने की फ़िक्र कर ।
खा चुका है अनगिनत तू गालियाँ ॥

लिख रहा था अब तलक तू फ़ालतू ।
अब गज़ल में भी कलम अज़मा लिया ?

रविवार, अक्तूबर 11, 2009

ओबामा को नोबेल पचा नहीं

Nobel

ओबामा को शांति का नोबेल मिलना कुछ लोगों के गले नहीं उतरा । जल्दबाजी में खा तो गये पर निगल नहीं पा रहे । कुछ का गले में तो कुछ का आहारनाल में अटका पड़ा है । कुछ खाऊ टाइप इसे निगल गये पर पचाने में कामयाब नहीं हुए ।

लेकिन ऐसे पचाऊ लोगों की गिनती भी कम नहीं जिन्होंने इसे पचाकर बाहर भी निकाल दिया होगा और अब कुछ और पचाने में लगे होंगे ।

कूड़े से कविता तक

 

दिवाली अभी आयी नहीं लेकिन माहौल बन गया है । घर की साफ-सफाई होने लगी है । अवांछित तत्वों के खिलाफ बिना किसी कानूनी कार्रवाई के ही उन्हें जबरदस्ती घर के बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है । घर में थे तो आनन्द से पड़े हुए थे । न कहीं बारिश में भीगने का डर, न आँधी में उड़ने की चिन्ता । लेकिन अब भविष्य अंधकारमय नज़र आने लगा है ।

घर में थे तो कूड़ा होते हुए भी किसी की मजाल न थी कि कूड़ा कह दे । लेकिन अब जिसे देखिए वही देखते ही नाक-भौं सिकोड़ लेता है । “अपने घर में चाहे हमसे भी बदतर कूड़ा मौजूद हो लेकिन पब्लिकली बड़े सफाई पसंद होने का दिखावा करेंगे ।” कूड़ागण पड़े पड़े सोच रहे हैं ।

कूड़े के सदस्यों में गहन विचार विमर्श जारी है । आगे की संभावनाओं पर विचार हो रहा है । यह जो भी कूड़े के साथ हो रहा है वह बिल्कुल ठीक नहीं हो रहा है इस बात पर आम सहमति है । आखिर मकान मालिक ने कैसे स्वयं डिसीजन ले लिया कि हम अवांछित तत्व हैं । कोई पंचायत नहीं, कोई कोर्ट कचहरी, मुकद्दमा नहीं । बस कह दिया कि बाहर हो लो । कम से कम दो चार दिन का नोटिस तो देना चाहिए था  कि नहीं ? उन दिनों को भूल गए जब हम उन्हें जान से भी ज्यादा प्रिय थे ।

 

एक गत्ते के टुकड़े का दर्द कुछ ज्यादा ही उभर आया । टूटी प्लास्टिक की बाल्टी से रोकर  बोला, “ अम्मा क्यों घावों को कुरेदती हो ? जब में कम्प्यूटर का कवर बनकर पहली बार इस घर में आया था तो मकान मालिक के लड़के ने मुझे छू भर दिया था । इसी बात पर उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया था । अपने ही बेटे की धुनाई एक कागज के टुकड़े के पीछे कर डाली थी । सब समय का फेर है ।”

 

“जानती हूँ ।” बाल्टी बोली । “ मुझे न बताओ । मैं इन लोगों की असलियत को अच्छी तरह जानती हूँ । मैंने कई साल इनके बाथरूम में बिताए हैं । इनकी अन्दर बाहर की सब खबरें मेरे पास हैं । अब तुम्हें क्या बताऊँ । तुम बच्चे ठहरे ।”

 

हीटर का कवर इनकी बातों को सुनसुनकर बोर हो गया । बोला, “ अब आगे की कार्रवाई के बारे में सोचो । बीती बातों को भूल जाओ । क्या किसी तरह कानूनी केस डालकर कुछ दिन का स्टे नहीं मिल सकता ? पर हम गरीबों की सुनेगा कौन ? हाँ यदि किसी खोजी पत्रकार के पास पहुँचा जा सके तो वह हमारे अंदर से भी धाँसू खबर बना सकता है । हो सकता है इस कूड़े में मकान मालिक के काले कारनामों के कुछ सबूत ही हों ।”

 

तभी मकान मालिक वहाँ से गुजरा तो कूड़ागण शान्त हो गए । सहसा उसने एक कागज के टुकड़े को उठा लिया और बोला, “अरे यह तो बहुत पुरानी कविता है । आजकल तो हरियाणा में वैसे भी चुनावी माहौल है क्यों न इस कविता को ब्लॉग पर ठेल दिया जाय ?”

 

उस कागज के टुकड़े पर 20 जून 2000 लिखा था । नीचे यह कविता थी ।

 

नहीं चाहिए मुझको ये अधिकार वोट का

कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

आया चुनाव थर-थर डर से काँपे मेरी सब काया

मेरे दिल के तारों ने गम का संगीत बजाया

बचना, होने लगा गरम बाजार वोट का

 कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

आया जो भी वोट माँगने यही लगाया नारा

कमजोरों को आगे लाना, पहला लक्ष्य हमारा

रखना ध्यान हमारा अबकी बार वोट का

 कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

कहने लगा एक प्रत्याशी ‘कर लो मुझसे वादा

वोट मुझे ही दोगे तुम बदलोगे नहीं इरादा

क्या लोगे करने का, कारोबार वोट का ?’

 कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

और अंत में आये कुछ गुंडे भी मुझे डराने

धमकाकर स्वपक्ष में मेरा भी मतदान कराने

‘विवेक’ मैं खुश नहीं देख व्यवहार वोट का

कमजोरों के लिए नहीं संसार वोट का

शनिवार, अक्तूबर 10, 2009

बिका हुआ माल वापस न होगा

Badhaee

कृपया माल की डिलीवरी लेते समय जाँच परख लें । बाद में बिका हुआ माल वापस न होगा ।

नगद बड़े शौक से, उधार अगले चौक से ।  – पाबला किराना स्टोर

शुक्रवार, अक्तूबर 09, 2009

अमर उजाला में स्वप्नलोक

Swapnlok

स्वप्नलोक के प्रशंसकों को जानकर हर्ष होगा कि कंपनी के ब्लॉग को 6 अक्टूबर, 2009 के अमर उजाला अखबार में ब्लॉग-कोना में जगह दी गयी है । सोचा इस कटिंग को इतिहास में दर्ज कर ही दिया जाय जिससे हमारे पोते परपोते कभी कह सकें कि, “हमारे पूर्वज इतना अच्छा लिखते थे कि अखबार वाले भी उसे छापते थे ।

इस अवसर पर कंपनी अपने प्रशंसकों का तहे दिल से आभार प्रकट करती है । यह आपका प्यार ही है कि लाख प्रयासों के बावजूद हम अपनी ब्लॉग लिखने की लत से निजात पाने में अब तक असफल रहे हैं । आगे की अल्ला जाने ।

गुरुवार, अक्तूबर 08, 2009

ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?


ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?


मुझे न मरने में आपत्ति
मित्र तुम्हारे हाथ
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

उड़ी सदा ही मुझे देखकर
जिन आँखों की नींद
मेरी कीर्ति-पताका ने जो
हृदय, दिये थे बींध
नहीं हुआ आश्यर्य, यही थी
उनसे तो उम्मीद
किन्तु तुम भी करते आघात ?
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

तुम्हें शिकायत थी, तो कहते
मुझसे मेरे मीत
हम दोनों ने मिलकर गाये
सदा प्रेम के गीत
तो क्या सब था झूठ ? झूठ थी
तेरे मेरी प्रीत ?
छिपायी तुमने दिल की बात ?
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

लिये तुम्हारे ही दम पर तो
मैंने इतने पंगे
मैं अवश्य षडयन्त्रकारियों
को, कर देता नंगे
लेकिन तुमको लगे हमारे
भले कार्य बेढंगे
लगा दिल पर भारी आघात
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

रहा कैसियस जलता मुझसे
सिसरो को भी तोड़ा
कैस्का भी जा मिला उन्हीं में
उसने भी मुँह मोड़ा
किन्तु हृदय तो आज ही रोया
जब तुमने भी छोड़ा
याद आयी पहली मुलाकात
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ ?

मुझे न मरने में आपत्ति
मित्र तुम्हारे हाथ
ब्रूटस ! तुम भी इनके साथ


( और सीजर निकल लिया)

बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

करवा लें, चौथ दें

 Karava-Chauth1

करवा-चौथ के अवसर पर सभी पतियों को बधाई । प्रसन्नता-पूर्वक करवा लें, और चौथ दें । वरना…………

मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

मैं मेंढक से हार गया

आज सुबह जब बाथरूम में नहाने गया तो एक अजीब घटना हो गयी । ड्रेन की जाली हट गयी तो एक छोटा मेंढक उछलकर बाहर बाथरूम के फर्श पर आ गया । मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा कि एक तुच्छ मेंढक इस तरह घर में घुस आये । यदि इसे बाथरूम तक ही सीमित रहना हो तब तो सहा भी जाय । लेकिन अतीत का हमारा अनुभव रहा है कि हमने जब जब मेंढकों के प्रति उदारता दिखाई है ये किचिन तक जाने में भी नहीं हिचके ।

अब मैंने उसे वापस ड्रेन में भेजने के प्रयास आरम्भ कर दिये । मेंढक भी कम चालू नहीं था । मैंने आदमी के अलावा कभी किसी जीव को इतना चालू नहीं देखा । मैं उसे हाथ से पकड़ना नहीं चाहता था । चाहता भी तो शायद पकड़ न पाता । लिहाजा मग से पानी भरकर उसे बहाने की कोशिश की किन्तु उसने भाँप लिया और जहाँ मैंने पानी डाला वहाँ से पहले ही वह सुरक्षित स्थान की ओर पलायन कर गया । मैंने कई मग पानी इसी तरह असफल प्रयास में बहा दिया । मेंढक कभी बाल्टी के पीछे छिप जाता तो कभी वाश बेसिन से आने वाले डेढ़ इन्च के पाइप के पीछे जा छिपता ।

मैंने पहले कई बार मेंढकों को बाथरूम में देखकर अनदेखा किया है पर आज इस जिद्दी मेंढक की धृष्टता पर मुझे क्रोध आने लगा । एक तुच्छ जीव मुझ मनुष्य को चुनौती दे रहा था । हम सुनते आ रहे हैं कि आदमी के जैसा मस्तिष्क ईश्वर ने किसी और जीव को नहीं दिया पर यह मेंढक इस अवधारणा को झुठलाने की हठ कर रहा था । जब सब तरफ से मैं उसे ड्रेन के तीन इन्च व्यास के छिद्र के पास लाता तो वह फिर कूद कर दूर चला जाता और सारी मेहनत बेकार हो जाती । काफी देर तक यही क्रम चलता रहा । अब मेरा उद्देश्य नहाना न होकर इस धृष्ट मेंढक को बहाना था ।

यूँ इसका दूसरा आसान उपाय भी हमने पहले से ईजाद किया हुआ है कि एक प्लास्टिक का डिब्बा मेंढक के ऊपर रख दो और नीचे से धीरे से एक मोटा कागज घुसा कर आराम से इस सिस्टम को बाहर लेजाकर मेंढक को छोड़ आओ, लेकिन अब इसे बहाना नाक का सवाल था ।

मेंढक भी अब थकता जा रहा था । उसने भी आराम करके अपनी ऊर्जा को रिकवर करने का एक अच्छा तरीका ढूँढ़ लिया ।वह वाश बेसिन वाले पाइप में घुस गया । पर मैं भी कहाँ मानने वाला था , बाहर जाकर वाश बेसिन में खूब सारा पानी बहा दिया अब मेंढक बाहर आना ही था । अब पाइप में वह पुन: एण्ट्री न मार दे इसके लिए एक कपड़ा ठूँस दिया । अब फिर से प्रयास किया तो मैं मेंढक को ड्रेन में बहाने में कामयाब हो गया । इसके लिए कम्पनी का कितना पानी मैंने बहा दिया पता नहीं । पानी तो असीमित मिलता ही है ।

इस घटना के बाद मेरे मन में कुछ सवाल उठने लगे । आखिर उस मेंढक को ड्रेन से बाहर आने का अधिकार क्यों नहीं है ? धरती तो उसकी भी है । हमने ताकत के बल पर इस पर कब्जा कर लिया तो क्या हुआ धरती माता तो सभी जीवों की है ।

जवाब आया कि वह ड्रेन में नहीं रह सकता तो वहाँ पैदा होने की क्या आवश्यकता थी ? लेकिन यह भी मन को संतुष्ट न कर सका । आखिर उसके पैदा होने में उसका क्या दोष ?

मैं मेंढक से जीतकर भी हारा हुआ महसूस कर रहा हूँ ।

सोमवार, अक्तूबर 05, 2009

धर्म के ठेकेदारो सुधर जाओ

आजकल ब्लॉग-जगत में धर्म का बोलबाला है . सभी अपने धर्म को अच्छा सिद्ध करने की कोशिश में हैं . अन्य धर्म वालों को आकर्षित करने में जुटे हैं जैसे अवैध रूप से सवारी ढोने वाले जीप जीप चालक आपस में एक एक सवारी के लिए झगड़ते रहते हैं . हमारा धर्म बड़ा लिबरल है, अमुक धर्म तो निहायत ही कट्टर है या गंदा है . वो मूर्तिपूजक है बुरा है आदि वाक्य सुनकर ऐसा ही आभास होता है जैसे ये भगवान तक पहुँचाने का कमीशन लेते हों .

हमने बचपन से ही पढ़ा है कि धर्म भगवान तक पहुँचने का एक साधन मात्र है . अलग अलग धर्म एक ही ईश्वर की आराधना अलग अलग तरीकों से करते हैं . या कहें कि धर्म एक बस के समान है जो हमें सुविधाजनक तरीके से मंजिल तक पहुँचाती है . इसके कण्डक्टर और ड्राइवर सवारियाँ लाते हैं , बस में ठूँस देते हैं . लेकिन जो सवारियाँ पहले से ही बस में हैं वे इससे खुश नहीं होती . आखिर उन्हें परेशानी होती है घिचपिच से .

अब धर्म की बस को देखिए इसके कण्डक्टर और ड्राइवर तो बस को चलती छोड़कर पहले ही भगवान के पास पहुँच गए ट्रेन पकड़कर . सवारियाँ आपस में लड़ मर रही हैं . शायद सोचती हैं कि बस जल्दी भरे तो चले . ड्राइवर पहले चला गया यह पता चले तो शायद अपने निजी वाहन का इन्तजाम करके जाएं . अन्यथा इसी बस में पड़े सड़ते रहें . ये कभी नहीं पहुँचाएगी .

समझ लो आप भगवान के पास पहुँच भी गए . वहाँ फिर वही दिक्कत . एक बस के हिसाब से सब इन्तजाम मिलेंगे . जिस बस में ज्यादा लोग होंगे उन्हें परेशानी होगी . जैसे आरक्षण की श्रेणी में गुर्जरों को डाले जाने से राजस्थान में मीणाओं को दिक्कत हो रही है . वे तो कभी नहीं कहते कि और लोग भी हमारे साथ आरक्षण में आने चाहिए . रही बात सुरक्षा की फीलिंग की . कुछ लोगों को संख्याबल अधिक होने से सुरक्षा की भावना आती है . लेकिन क्या भरोसा कि जो आदमी आपके बगल वाली सीट पर बैठा है वही आपकी जेब नहीं काट लेगा ?

इसलिए भाइयो अपने लक्ष्य पर नज़र रखो . आपको अच्छे और सुविधाजनक तरीके से अपनी मंजिल तक पहुँचना है . आप सवारी हो , सवारी रहो . ड्राइवर बनने की कोशिश मत करो . ड्राइविंग का शौक है तो अपना वाहन लो और चलते बनो .

कभी मेरे नाम पर भी….

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कार्टून देखें और तारीफ करें । कहीं ऐसा न हो कि आप कुछ गलत कहकर चलते बनें और देश एक उभरते हुए कार्टूनिस्ट से हाथ धो बैठे । :)

रविवार, अक्तूबर 04, 2009

टाइटन को जानिए

आपने टाइटन की घड़ी अवश्य देखी होगी . टाइटैनिक जहाज के डूबने के बारे में भी सुना होगा . इसी तरह  शनि ग्रह के एक उपग्रह का नाम भी टाइटन है .

दर असल यह टाइटन नाम यूनान के पौराणिक साहित्य से लिया गया है . देवी पृथ्वी ( जी ) ने अपने पुत्र यूरेनस ( आकाश का देवता ) के संसर्ग से जिन छ: पुत्र और छ: पुत्रियों को सबसे पहले जन्म दिया . वे सभी बड़े ही बलवान और विशालकाय थे . इन सभी को  टाइटन कहा गया . हेसियड की थियोगोनी के अनुसार टाइटन बारह ही थे लेकिन कुछ प्राचीन यूनानी ग्रन्थों में अन्य टाइटनों का उल्लेख भी मिलता है .

टाइटनों में सबसे छोटा क्रोनोस हुआ जो सबसे अधिक शक्तिशाली भी था . यूरेनस के अत्याचारों से तंग आकर जी ने अपने इस पुत्र को उसके विरुद्ध उकसाया  . क्रोनोस भी यूरेनस के बढ़ते अत्याचारों से दु:खी था . उसने अपने पिता को अपद्स्थ करके टाइटनों  के राज-सिंहासन पर अधिकार कर लिया, और यूरेनस को नपुंसक बनाकर छोड़ दिया गया .

क्रोनोस ने अपनी बहन रिआ ( Rhea ) को अपनी पत्नी और महारानी बनाया . रिआ को धरती और उत्पादकता की देवी माना जाता है . इसका चिन्ह चन्द्रमा और हंस है . क्रोनोस अपनी पैदा होने वाली अधिकतर संतानों को खा जाता था . लेकिन  रिआ ने अपने पुत्र जियूस के स्थान पर क्रोनोस को कपड़े में लपेट कर पत्थर का टुकड़ा दे दिया जिसे वह निगल गया . इस प्रकार जियूस बच गया जिसने आगे चलकर अपने अत्याचारी हो चुके पिता को प्रसिद्ध टाइटनों और ओलम्पियनों के युद्ध में हराया . इस युद्ध के बाद क्रोनोस का साथ देने वाले टाइटनों को तारतारस ( पाताल लोक या नरक ) में बन्दी बनाकर भेज दिया गया .

उम्र में सबसे बड़े टाइटन ओकीनोस(Oceanus) ने अपनी बहन टेथीज(Tethys) को पत्नी बनाया, और पूरी पृथ्वी के जल, झरनों, नदियों और  समुद्र का स्वामी हुआ . टेथीज को धरती पर जल का समान वितरण करने वाली देवी माना जाता है . इसने झरनों और नदियों को जन्म दिया .

इसी प्रकार अन्य टाइटन भाई बहनों ने भी आपस में विवाह किए और पति-पत्नी बने .

टाइटनों की दूसरी पीढ़ी को ओलम्पियन कहा गया . ओलम्पियनों की संख्या भी बारह बताई जाती है . ये यूनान के प्रसिद्ध ओलम्पिक पर्वत के आसपास रहा करते थे .

यूनानी मान्यता के अनुसार यह स्वर्ण-युग था . इसके बाद रजत-युग ताम्र-युग आदि आते हैं .

 

अपनी-बात

 

  कुछ पाठकों ने जिज्ञासा प्रकट की है कि यह कौन सी कंपनी है जिसका जिक्र स्वप्नलोक पर बार-बार होता है ? इस जिज्ञासा को समय आने पर शान्त किया जाएगा . तब तक अन्य पाठक  भी ज्ञान जी की भाँति अपने हिसाब से इस कंपनी के बारे में स्वतंत्र होकर सोचें .

 

हमारा मानना है कि ये सूर्य देव, चन्द्र देव आदि जो प्राकृतिक चीजें हैं इन्हें महात्मा गांधी मार्ग , इंदिरा गांधी विश्व-विद्यालय आदि की भाँति प्राचीनकाल में  तथाकथित देवताओं ने नामांकित कर दिया होगा . हो सकता है जिन महापुरुष के नाम पर सूर्य का नामकरण हुआ हो उन्हें हनुमान जी ने काट खाया हो . और मुश्किल से लोगों के कहने पर उन्हें छोड़ा हो . 

शनिवार, अक्तूबर 03, 2009

यूनान की पौराणिक कथाओं में सृष्टि की उत्पत्ति

यूनान देश का नाम किसने नहीं सुना होगा ? सिकन्दर यूनान का ही निवासी था । यूनान की प्राचीन सभ्यता भारतीय सभ्यता की ही भाँति पर्याप्त विकसित थी । कालान्तर में रोमन साम्राज्य का विकास होता गया और यूनानी सभ्यता लुप्तप्राय: हो गयी । यूनान के बारे में हम जितना ही अधिक जानते हैं उससे अधिक जानने इच्छा होती है क्योंकि भारत और यूनान के बीच हम एक विचित्र समानता महसूस करते हैं ।

भारतीय पौराणिक साहित्य की तरह यूनान का पौराणिक साहित्य भी पर्याप्त रोचक है । हेसियड द्वारा रचित देवताओं की वंशावली के अनुसार सृष्टि के रचयिता कैओस(Chaos) हैं । कैओस का अर्थ होता है अनिश्चितता और विप्लव की स्थिति । कैओस ने सबसे पहले ठोस पदार्थ बनाया जिससे पृथ्वी(Gaea) का जन्म हुआ । तब कैओस ने तारतारस ( Taratarus ) बनाया जो पृथ्वी के सबसे नीचे स्थित लोक है । यहाँ बुरी आत्माओं का निवास होता है । एरोस भी कैओस का पुत्र है जो प्यार और इच्छाओं का देवता है । अंत में कैओस ने इरेबस ( Erebus ) को बनाया जो धरती के नीचे का अंधकार है । जब बुरी आत्मा को तारतारस भेजा जाता है तो उसे इस अंधकार से गुजरना होता है ।

जी का पुत्र यूरेनस ही उसका पति हुआ और इन दोनों को ही सृष्टि के आदि माता-पिता माना गया । जी यूरेनस के अलावा जी के दो और पुत्र माउन्टेन ( पर्वत ) और पोण्टस( Pontus - समुद्र का देवता ) हुए जो यूरेनस के सहोदर थे ।

यूनानी देवताओं के बारे में आगे आने वाले समय में कम्पनी द्वारा संभवत: कुछ पोस्ट प्रकाशित की जाएंगी । उनमें विस्तार से जानकारी देने का प्रयास किया जाएगा ।

शुक्रवार, अक्तूबर 02, 2009

अहिंसक ब्लैक-बॉडी की तरह होता है

आज 2 अक्टूबर है, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी का जन्म दिवस । लालबहादुर शास्त्री जी का भी जन्म दिवस आज ही है । गाँधी जी के साथ अहिंसा का अटूट सम्बन्ध है और अहिंसा के साथ हिंसा अटूट रिश्ता है । हिंसा एक प्रकार की ऊर्जा है जो एक व्यक्ति उत्सर्जित करता है ।

ऊष्मा भी ऊर्जा का ही एक रूप है । जब किसी वस्तु में ऊष्मा का घनत्व अधिक होता है तो उसका ताप बढ़ जाता है । ऐसी स्थिति में उससे ऊष्मा का उत्सर्जन भी बढ़ जाता है । जब ऊष्मा के स्रोत से ऊष्मा का उत्सर्जन होता है तो यह सीधी रेखा में प्रवाहित होती है । मार्ग में आने वाली हर वस्तु पर इसका प्रभाव पड़ता है । अब यह उस वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है कि वह उत्सर्जित ऊष्मा से कितनी ऊष्मा अवशोषित करती है । कुछ वस्तुएं ऊष्मा का बिल्कुल भी संग्रह नहीं करती हैं । जितना उत्सर्जन इनके ऊपर पड़ता है ये आगे पार निकल जाने देती हैं जैसे भृष्ट चुंगी अधिकारी तस्करी के सामानों से भरे ट्रक को निकल जाने देता है ।

कुछ वस्तुएं ऊष्मा को परावर्तित कर देती हैं । इनका सिद्धान्त जैसे को तैसा वाला होता है । यदि ऊष्मा सीधी आपतित होती है तो ये भी सीधा उसे स्रोत की ओर परावर्तित करके ईंट का जवाब पत्थर से देती हैं । यदि ऊष्मा किसी अन्य कोण से कटाक्ष की तरह आपतित होती है तो ये भी उसे उसी कोण से दूसरी ओर भेज देती हैं । जैसे रैगिंग से पीड़ित विद्यार्थी सीनियरों द्वारा ली गयी रैगिंग का बदला जूनियर छात्रों की रैगिंग से लेता है । दर्पण का व्यवहार भी ऐसा ही होता है ।

कुछ वस्तुएं जिन्हें ब्लैक-बॉडी या कृष्णिका कहा जाता है अपने ऊपर आपतित ऊष्मा की सारी मात्रा को अवशोषित कर लेती है और बाद में उसे अपनी शर्तों पर उत्सर्जित करती है । यही स्थिति आदर्श अहिंसक की होती है जो सारी हिंसा को सह लेता है । वह हिंसा का जवाब हिंसा से नहीं देता ।

चूँकि कृष्णिका आदर्श अवशोषक होती है इसलिए हर वस्तु इस स्तर को प्राप्त नहीं कर सकती । जिस आदर्श को हर कोई पा ले वह आदर्श ही क्या ? इसीलिए आदर्श ऊँचे रखे जाते हैं ताकि कुछ श्रेष्ठ लोग ही उन तक पहुँच सकें और बाकी लपलपाते रहें । कुछ छ्द्म आदर्श भी होते हैं जो दूर से देखने पर आदर्श लगते हैं लेकिन पास आते ही उनकी पोल खुल जाती है और वे नकलची साबित होते हैं । इस श्रेणी में ऐसे लोगों को रखा जा सकता है जो संस्कृत के कुछ कठिन श्लोकों को रटकर देवभाषा ज्ञाता होने का स्वांग रचते हैं और ऐसा जाहिर करते हैं कि जिसे संस्कृत नहीं आती मानो वह निरा मूर्ख ही है । कुछ अंग्रेजी के कठिन से स्पेलिंग याद कर डालते हैं और और जहाँ चार लोग जमा दिखें वहीं अपने अंग्रेजी ज्ञान का उत्सर्जन करने लगते हैं ।

संतुलित लोग ग्रे-बॉडी की तरह होते हैं जो उत्सर्जित ऊष्मा का कुछ भाग आवश्यकतानुसार अवशोषित कर लेते हैं । कुछ भाग ऊष्मा स्रोत को भी उसकी औकात के हिसाब से परावर्तित कर देते हैं ताकि उसके भाव न बढ़ जाएं । बाकी को आगे जाने देते हैं ताकि यह किसी और जरूरतमंद के काम आ सके ।

वैसे तो अब तक आप समझ चुके होंगे । लेकिन जो न समझे हों उन्हें बता दें कि यह एक घटिया पोस्ट है जो हमारे एक बढ़िया पाठक की भारी माँग पर लिखी गयी है ।

आखिर घटिया चीजों का भी अपना मार्केट होता है !

सोमवार, सितंबर 28, 2009

विजयादशमी आत्म-सम्मान दिवस कब बनेगा ?

आदरणीय महाराज दशानन जी, प्रणाम !

हम जानते हैं कि आज विजयादशमी है । आज का दिन इतिहास का सबसे काला दिन है । यही वह दिन है जब अपने विरोधियों से आपको परास्त होना पड़ा था । यद्यपि जनबल आपके ही साथ था किन्तु विजय का सेहरा अयोध्या के दो अनजाने से राजकुमारों के सिर बाँधकर आपके विरोधी जनता की नज़रों में खलनायक बनने से बच गए थे । यदि विभीषण जैसे देशद्रोहियों ने जिस थाली में खाया उसी में छेद न किया होता तो आज विजयादशमी तो मनायी जाती । किन्तु आपके विशालकाय पुतले को जलाने की बजाय उसकी पूजा की जा रही होती ।

जिसकी लाठी उसकी भैंस की उक्ति यहाँ बिल्कुल सटीक बैठती है । राम ने यूँ तो सूर्पनखा की नाक काटकर कोई भला काम नहीं किया था । वन में भटकी हुई अकेली अबला पर बल प्रयोग करना कहीं की वीरता नहीं हो सकती । आपके साथ राम का भला क्या मुकाबला ?

आपने फिर भी राम को सबक तो सिखा ही दिया कि पर-स्त्री को कैसे अपने संरक्षण में रखकर भी आपने उसकी पवित्रता का सम्मान किया और अपनी जान दे दी फिर भी अबला के विरुद्ध कभी बल प्रयोग की बात सोची भी नहीं । किन्तु अब बहुमत का जमाना है । जिस बात को ज्यादा लोग कहें वही सत्य मानी जाती है । समाज ऐसी संसद बनकर रह गया है जहाँ हर प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित करा लिया जाता है । आपके समर्थक चाहते हुए भी अल्पमत में रहने के डर से आपके पक्ष में हाथ खड़े नहीं कर पाते ।

यदि गुप्त मतदान प्रणाली से मतदान कराया जाय तो हमें पूरा भरोसा है कि इस बात पर दो तिहाई बहुमत अवश्य आपके पक्ष में होगा कि सत्य आपके साथ था । क्या आज भी अपनी बहन के अपमान का बदला अधिकतर लोग इससे भी घटिया तरीके अपनाकर नहीं लेते ? क्या हिन्दी फिल्मों का हीरो यह सब करके हिट नहीं हो जाता ?

आज शाम को जब आपका पुतला जल रहा होगा तो सत्य मानिये हमारा दिल जल रहा होगा । हमारा वश चलता तो आज का दिन आत्म-सम्मान दिवस के रूप में धूम-धाम से मनाते । लेकिन जिस देश में हिटलर के नाम पर दुकान का नाम नहीं रखा जा सकता वहाँ अभी आपके पक्ष में खुलकर बोलना खतरे से खाली नहीं होगा । डूबते हुए के साथ डूब जाना तो कहीं की बुद्धिमानी नहीं होती न ?

आशा है लोग अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुनकर खुलकर आपके पक्ष में खड़े होंगे । ऐसा होने भी लगा है । फिर आपका पुतला जलाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकेगा । आज का दिन आत्मसम्मान दिवस के रूप में दुनिया भर में मनाया जायेगा ।

अपनी बात

आज पता चला ब्लॉगवाणी बंद हो गया । जानकर दु:ख हुआ । हिन्दी चिट्ठों का बड़ा अच्छा संकलक था । हमने इसके साथ बहुत मजा किया । यह मानने में हमें कोई बुराई नहीं दिखती कि हमने भी जब से इसकी पसंद के भेद को समझा तबसे अपनी पोस्ट को जब तब खुद ही पसंद करते रहे । आखिर अपनी पोस्ट किसे पसंद नहीं होती ?

एक वाकया याद आता है । एक बार किसी महिला को अपने बच्चे के लिए स्कूल में खाना भिजवाना था । राह चलते एक आदमी को उसने खाना पकड़ा दिया और कहा कि स्कूल में जो बच्चा सबसे सुन्दर हो उसे ही यह खाने का डिब्बा दे दें । संयोग से उस आदमी का बेटा भी उसी स्कूल में पढ़ता था । उसने बेझिझक खाना अपने बेटे को दे दिया । इसमें गलती किसकी रही ?

वैसे चिट्ठाजगत धड़ाधड़ महाराज की जिम्मेदारी अब बढ़ गयी है । चिट्ठाजगत में यदि पोस्ट का सही समय दिखाया जाय तो अच्छा रहेगा ।

शुक्रवार, सितंबर 25, 2009

शरद ऋतु लायी नई बहार

शरद ऋतु लायी नई बहार


भोर और संध्या हैं ताजा
सूरज हुआ उदार
शरद ऋतु लायी नई बहार


नया नया सा मौसम आया
बिखरा-बिखरा सा सब पाया
पहले वह थोड़ा झुँझलाया
करने लगा सुधार
शरद ऋतु लायी नई बहार

कट्टर-पंथी चुनाव हारे
धूप और लू छिपकर सारे
आपस में लड़ते बेचारे
शासन करत उदार
शरद ऋतु लायी नई बहार

गरमी में जो मारे चाँटे
बिना बात ही सबको डाँटे
तब जो धूप चुभोए काँटे
करे वही अब प्यार
शरद ऋतु लायी नई बहार

ईद, दशहरा, गरबा छाये
एक साथ सब मिलकर आये
दीवाली की रौनक लाए
भाये सब त्यौहार
शरद ऋतु लायी नई बहार

भोर और संध्या हैं ताजा
सूरज हुआ उदार
शरद ऋतु लायी नई बहार

मंगलवार, सितंबर 22, 2009

जानिये 108 और 786 के बारे में

108

आपने बड़े बड़े संत महात्माओं और पूज्यनीय व्यक्तित्वों के नाम के पहले 'श्री-श्री १०८ श्री' जैसे विभूषण अवश्य देखे होंगे । क्या आपको पता है यह संख्या १०८ का क्या महत्व है । यदि पता है तो हमें बताया क्यों नहीं ? और यदि नहीं पता है तो अब जान लीजिये :

असल में हिन्दी वर्णमाला के सभी अक्षरों को यदि क्रमानुसार अंक दिये जाएं तो । 'ब्रह्म' शब्द के सभी अक्षरों से संबंधित अंकों का योग करने पर १०८ बनता है । यही कारण है कि हिन्दू धर्म में इस संख्या को पवित्र माना गया है ।

'सीताराम' शब्द के अक्षरों से संबंधित अंकों का योग करने पर भी १०८ की संख्या ही मिलती है । इस प्रणाली से किसी शब्द से संबंधित संख्या प्राप्त करने के लिए । वर्णमाला के स्वर और व्यंजनों को अलग अलग अंक दिये जाते हैं ।

ब्रह्म = ब + र + ह + म = 23 + 27 + 33 + 25 = 108

सीताराम = स + ई + त + आ + र + आ + म = 32 + 4 + 16 + 2 + 27 + 2 + 25 = 108

786

यही कहानी संख्या 786 के पीछे भी है । 786 की संख्या को इस्लाम धर्म में पवित्र समझा जाता है । आमतौर पर अधिकांश मुस्लिम इस संख्या से किसी न किसी तरह जुड़े रहना चाहते हैं ।

पवित्र कुरआन की शुरुआत होती है ' बिस्मिलाह-उर रहमान-उर रहीम' से जिसका अर्थ होता है ' आरम्भ उस ईश्वर के नाम पर किया जाता है जो अनुग्रही और दयालु है' । इसी 'बिस्मिलाह-उर रहमान-उर रहीम' को अरबी लिपि में लिखने पर यदि इसके सभी अक्षरों से संबंधित अंकों का योग किया जाय तो 786 की संख्या मिलती है । इस प्रणाली में अक्षरों को अंक विशेष पद्यति से दिये जाते हैं जिसमें 10 के बाद 100 , 200, 300,......... आदि आते हैं और 900 के बाद 1000, 2000, 3000,... आदि आते हैं ।

विभागीय सूचना :श्री श्री १०८ श्री समीर लाल 'समीर' उर्फ़ बाबा समीरानंद जी 'उड़न तश्तरी वाले' स्वप्नलोक पर टिप्पणियों का शतक लगाने में सफल हुए हैं . उन्हें कम्पनी की ओर से बहुत बहुत बधाइयाँ .

सोमवार, सितंबर 21, 2009

गंगाराम पटेल और बुलाकी नाई

गंगाराम पटेल और बुलाकी नाई के किस्से आपने सुने ही होंगे । फिर भी हमने जैसा सुना वैसा आपको सुना देते हैं ।

गंगाराम पटेल को जब गंगा-स्नान का विचार आया तो उन्होंने बुलाकी नाई को बुलाकर अपने साथ चलने का हुक्म सुना दिया । बुलाकी नाई की शादी को अभी ज्यादा अरसा नहीं हुआ था इसलिए उसका मन नई दुल्हन को छोड़कर घर से दूर जाने का न था फिर भी सीधे-सीधे मना न कर सकता था । गाँव में रहना था तो पटेल जी से बिगाड़ नहीं होना चाहिए । लिहाजा उसने अपनी छत्तीस विद्याओं में से एक का प्रयोग किया । बोला, " मालिक ! मैं चलने को तो तैयार हूँ लेकिन मेरी एक शर्त है । मैं हर पड़ाव पर आपसे एक सवाल पूछूँगा । उस सवाल का जवाब यदि आप संतोषजनक न दे सके तो मैं वहीं से वापस आ जाऊँगा । "

गंगाराम पटेल ने अपने बाल धूप में सफेद न किए थे । वे अनुभवी आदमी थे तुरंत ताड़ गए कि यदि शर्त न मानी गई तो बुलाकी विद्रोह कर सकता है । उन्होंने शर्त को स्वीकार कर लिया ।

यात्रा की तैयारियाँ हो गईं और वह दिन भी आ पहुँचा जब गंगाराम पटेल और बुलाकी नाई गंगा-स्नान करने के लिए यात्रा पर चल पड़े । पहले दिन जोश थोड़ा ज्यादा था । घोड़ा भी तरोताजा था । शाम तक काफी दूर निकल गए । जब नजदीक आया तो उन्होंने डेरा जमा लिया । बुलाकी को जल्दी थी । वह आत्म विश्वास से लबरेज था । उसने रुकते ही अपने सवाल का जवाब देने का आग्रह किया । लेकिन गंगाराम पटेल बोले, " उतावला न हो । घोड़े को पेड़ से बांध । शहर जा । आटा दाल ला । घोड़े के लिए दाना-घास ला । आकर खाना पका । हमें खिला । फिर तू खा । हमारे लिए हुक्का भर । फिर तू हमारी पैर-चप्पी करना और हम तेरे सवाल का जवाब देंगे । "

बुलाकी ठगा सा रह गया । पर करता क्या ? जल्दी जल्दी सब काम निपटाने के इरादे से शहर की तरफ निकला । शहर से आते समय एक अजीब दृश्य देखकर वहीं खड़ा होकर देखने लगा । जब उसकी समझ में कुछ न आया तो सोचा कि आज क्यों न गंगाराम पटेल से यही सवाल पूछ लूँ ? उसने ऐसा ही किया । जल्दी-जल्दी पटेल के बताये सभी काम निपटाकर वह हुक्का भर लाया । गंगाराम पटेल हुक्का गुड़गुड़ाने लगे और बुलाकी उनके पैर दबाने लगा । तब गंगाराम पटेल ने उसे अपना सवाल पूछने को कहा ।

बुलाकी बोला ," मालिक! जब मैं शहर से लौटकर आ रहा था तो मैंने एक अजीब दृश्य देखा । एक युवक अपने छोटे भाई को पीटे जा रहा था । भाई चिल्लाकर कह रहा था कि, " भाई मुझे मत मार, मैंने पिताजी से कोई झूठ नहीं बोला, सब सच ही तो कहा था ।" इस पर भाई बोला, " अब तुझे पिताजी से यह कहना है कि तूने जो कहा था सब झूठ था ।"

आगे बुलाकी नाई बोला, " मालिक! आप मेरी जिज्ञासा शांत करिये कि आखिर उन दोनों के बीच क्या समस्या थी ?"

गंगाराम पटेल बोले, " क्या इसी सवाल के लिए तू इतना उतावला हो रहा था ? सुन :

इस शहर में एक भूतपूर्व पहलवान रहता है, जिसने अपनी जवानी में अच्छे-अच्छे पहलवानों का कचूमर निकाल दिया था । पर जवानी हमेशा नहीं रहती । पहलवान की जवानी भी ढल गयी । उसने अपने बेटे को पहलवान बनाने की पूरी कोशिश की किन्तु पहलवान का बेटा पहलवान नहीं हुआ । हाँ वह पहलवान को दिलासा देता रहता था कि मैंने कल फलाँ शहर में पहला इनाम जीता, और परसों पास के गाँव के पहलवान कटोरीलाल को चित्त कर दिया । बाप हमेशा बेटे को यही समझाता कि खाने-पीने में कुछ कमी लगे तो मुझे बताना पर कभी किसी से दबना मत , जो मेरी इज्जत को दाग लग जाय । लेकिन जो पैसे मुनक्के खरीदने के लिए मिलते थे बेटा उनसे बीड़ी और दारू पी आता । बचते तो कुछ इनाम खरीद लाता ।

छोटा बेटा सब जानता था । लेकिन भाई के डर से कुछ नहीं बोलता था । आखिर बड़ा भाई छोटे भाई पर तो भारी पड़ता ही था और उसे बाप का भी समर्थन था । पर एक दिन छोटे भाई से भी न रहा गया । उसने घर आकर बाप को बता दिया कि, " आज भाई से पास के गाँव का पहलवान चीनीमल एक पेन छीन कर भाग गया । " बाप ने बड़े बेटे को पूछा तो वह साफ मुकर गया कि ऐसा कुछ हुआ था । और छोटे भाई को आँखों ही आँखों में धमकाना चाहा । छोटा भाई बेचारा चुप हो गया । पर बाप को बेटे की पहलवानी पर शक हो गया ।

बस इसी बात पर बड़ा बेटा छोटे बेटे को बाहर जाकर गुस्से में पीट रहा था ।

अरे बुलाकी नाई ! तू कहीं उसे ही तो नहीं देख आया ।"

गंगाराम पटेल की बात सुनकर बुलाकी नाई की घर वापस जाने की इच्छा पर पानी पड़ गया और वह अगले दिन का इंतजार करने लगा !

अनूप जी के आदेश पर :कुछ लोगों को लगा है कि कहीं यह चीनीलाल-चीन, पहलवान-भारत, बड़ा बेटा-सरकार और छोटा बेटा-मीडिया तो नहीं ? हम इसका खण्डन करते हैं । कहानी को मौलिक समझा जाय । इस कहानी को चीनी घुसपैठ से जोड़ कर न देखा जाय ।

रविवार, सितंबर 20, 2009

मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता


मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता!

अपना ज्ञान सँभालो आपै
मुझे न इसकी आवश्यकता
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

स्विस-बैंकों में मेरा खाता
साक्षी मेरी मितव्ययिता का
करने लगूँ खर्च यदि खुलकर
मुद्रा-स्फीति चढ़ेगी ऊपर

मत माहौल बनाओ भय का
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

पहली बार हुआ जब सांसद
तब से सांसद-निधि की भी मद
मैंने कभी न खर्ची पूरी
बनी तभी जनता से दूरी

मौका मिला न मन्त्री-पद का
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

अब जब मैं भी मंत्री ही हूँ
बदला लेकिन रंच नहीं हूँ
तुम हाई-कमान के चमचे
काम नहीं यह होता हमसे

अन्य आइडिया सोचो दद्दा
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

अपना ज्ञान सँभालो आपै
मुझे न इसकी आवश्यकता
मुझे सिखाओ मत मितव्ययिता

शनिवार, सितंबर 19, 2009

शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते!


शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते!

हमें पूछते तो क्या होता ?
होठ न हम सिलवाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

तुमने बहुत हमें है माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना ?
खुला राज यह बहुत पुराना
हम न किन्तु कह पाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

पहले उनको कहा जनार्दन
हमको धिक्कारा था निज मन
आम आदमी का दे भूषण
अब उनको बहकाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

राजनीति में नव आगन्तुक!
पहले अपनी सीट करो बुक
बदलो यह साहब वाला लुक
हम कितना समझाते ?
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

तुम कलयुग में ही हो भाया
सतयुग अभी नहीं है आया
फिर क्यों कड़वा सत्य सुनाया ?
मीठा झूठ सुनाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

कहा सत्य ही इन्हें जानवर
कहाँ जायेंगे बुरा मानकर
हाथ हिलायें हम विमान पर
ये तब पूँछ हिलाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

जिनकी तुम खा रहे कमाई
तुमने गाली उन्हें सुनाई
क्या अजीब बुड़बक हो भाई
इसीलिए इतराते ?
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते

हमें पूछते तो क्या होता ?
होठ न हम सिलवाते
शशि तुम हमें पूछ, फ़रमाते!

शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

शठे शाठ्यं समाचरेत्

आजकल देखने में आ रहा है कि ब्लॉगरगण कुछ परेशान लग रहे हैं । कुछ इसलिए परेशान हैं कि प्रिंट मीडिया उनकी रचनाओं को छापने लायक नहीं समझता तो कुछ इसलिए परेशान हैं कि प्रिंट मीडिया रचनाएं छाप तो देता है लेकिन शाबाशी रचनाकार को पहुँचाने की बजाय खुद हड़प कर जाता है । कित्ती तो गलत बात है ।

इसी चिन्ता में हम पंखे के नीचे समाधि लगाकर ध्यान-मग्न हो गए तो बोध की प्राप्ति भी शीघ्र ही हो गई । और समस्या का जो हल सूझा वह इस प्रकार है :

जब आप परेशान हों तो 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' के मार्ग पर चलें । और कुछ नहीं तो मानसिक शान्ति तो मिल ही जाएगी ।

जो लोग अपने चिट्ठे की प्रिंट मीडिया द्वारा की जा रही अवहेलना से व्यथित हैं उन्हें प्रिंट मीडिया को भाव देना बन्द कर देना चाहिए । जमकर मीडिया की अवहेलना करें । कोई पूछे, " आज का अखबार देखा ?" तो उत्तर के बदले प्रश्न करें, " ये अखबार क्या होता है भाई ?"

जो महानुभाव इस बात से त्रस्त हैं कि प्रिंट मीडिया उनके ब्लॉग से सामग्री लेकर मनमाफिक तरीके से छाप रहा है, उनके लिए सलाह है कि अखबार को पूरा का पूरा ब्लॉग पर छाप दें । बस नाम को छोड़कर ।

बाकी तो हम अधिक क्या कहें थोड़े लिखे को बहुत समझें, क्योंकि आप स्वयं समझदार हैं!

गुरुवार, सितंबर 17, 2009

मंत्री महोदय की सफाई

पता चला है कि एक मंत्री महोदय ने 'इकोनॉमी' क्लास' को 'कैटल क्लास' कह दिया । अब माँस की जीभ है फिसल ही जाती है । फिसल गयी । जनता और विपक्ष सफाई माँग रहे हैं । सूत्रों से पता चला है कि सफाई तैयार की जा रही है । पर कुछ मुश्किलें हैं । पार्टी चाहे तो हमारे ब्लॉग से सफाई वक्तव्य कॉपी कर सकती है । जो यूँ होगा :

"यह विपक्ष और मीडिया की कारस्तानी है । मंत्री महोदय के बयान को तोड़-मरोड़कर जनता के सामने पेश किया गया है । यह बयान निहायत ही सकारात्मक है और पार्टी द्वारा चलाये जा रहे मितव्ययता अभियान की पहली उपलब्धि है ।

हमारी विपक्ष से अपील है कि जनता की भलाई के काम में टाँग न अड़ाए अन्यथा जनता उन्हें अगले चुनाव में जरूर सबक सिखाएगी ।

दरअसल मंत्री महोदय का आशय था कि इकोनॉमी क्लास में ऐसी सुविधाएं दी जा रही हैं कि इसे फिलहाल कैटल क्लास ही कहा जाना चाहिए । हम जनता को ऐसी सुविधाएं दिया जाना कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे । हम रेलवे के जनरल कोच तक वीआईपी वाली सुविधा पहुँचाकर ही दम लेंगे । यदि हम ऐसा न कर सके तो हमारा इकोनॉमी क्लास में जाने का लाभ ही क्या । आखिर इसके फायदे जनता को भी मिलने चाहिए । "

इस सफाई से भूतपूर्व रेल मंत्री का चित होना तो तय माना जा रहा है । पर वर्तमान कहीं बुरा न मान जाएं यही लोचा है ।

बुधवार, सितंबर 16, 2009

ब्लॉग रत्न : फुरसतिया महाराज ( मेरा पन्ना से उधार )



वैसे तो आपके ठीक सामने जो व्यक्ति कम्प्यूटर और चश्मे के पीछे से आपको लगातार घूरे जा रहा है, उसे आप पहचानते ही होंगे . फिर भी यदि किसी कारणवश आप इन्हें न पहचान सके हों तो हम शंका उठने से पहले ही समाधान कर देते हैं . डरिये मत ये सिर्फ दिखते खतरनाक हैं . ये अनूप शुक्ल हैं . आज इनका हैप्पी बड्डे है . इस अवसर पर इनके जन्म के उपलक्ष्य में जितेन्द्र चौधरी का एक पुराना लेख हम लाए हैं । लेख 2006 में आज ही के दिन लिखा गया होगा . पर आज भी प्रासंगिक है . आप जैसा है वैसा ही पढ़कर हमें वापस कर देना . हम जीतू जी को लौटा देंगे . खराब मत करना . उधार का लेख है . कहीं हरजाना देना पड़ जाए . तो पढ़िये जीतू जी का लेख:

ब्लॉग रत्न : फुरसतिया महाराज

आज यानि १६ सितम्बर को सर्वप्रिय लेखक और ब्लॉग जगत के बड़े भाईसाहब अनूप कुमार शुक्ला उर्फ़ शुकुल उर्फ़ फुरसतिया का जन्मदिन है, बोले तो हैप्पी बर्थ डे है। फुरसतिया जी अगर चीन मे होते तो शोक मना रहे होते कि एक साल और निकल गया। लेकिन अब चूंकि ये भारत मै पैदा हुए है, इसलिए जन्मदिन की मुबारकबाद तो सबको देनी ही पड़ेंगी। (दोगे नही तो जाओगे कहाँ, चिट्ठा चर्चा यही लिखते है, और आजकल नारद की अनुपस्थिति मे चिट्ठा चर्चा ही हिन्दी के ताजे चिट्ठों तक पहुँचने का एकमात्र माध्यम है। मैने हिन्दी ब्लॉग लिखने की प्रेरणा इन्ही के चिट्ठे को देखकर ली थी। पहली टिप्पणी इन्ही के ब्लॉग पर की थी। शुरुवात के दिनो मे फुरसतिया और ठलुवा (ये भी बहुत भीषण प्राणी है, इनपर फिर कभी) ब्लॉग मे आपसी बातचीत किया करते थे। इधर से ये फायर करते थे, उधर से वो, दोनो का जवाबी कीर्तन देखने लायक है।

फुरसतिया जी के अनुसार यह कविता एकदम सटीक बैठती है हमने इसे इनके ब्लॉग से ही चांपा है)

हम न हिमालय की ऊंचाई, नहीं मील के हम पत्थर हैं

अपनी छाया के बाढे. हम, जैसे भी हैं हम सुंदर हैं

हम तो एक किनारे भर हैं सागर पास चला आता है.

हम जमीन पर ही रहते हैं अंबर पास चला आता है.

–वीरेन्द्र आस्तिक

अब इन्होने ब्लॉग का नाम फुरसतिया काहे रखा, लो लीजिए इन्ही से सुन लीजिए :

"जब मैनें देखादेखी ब्लाग बनाने की बात सोची तो सवाल उठा नाम का.सोचा फुरसत से तय किया जायेगा.इसी से नाम हुआ फुरसतिया.अब जब नाम हो गया तो पूछा गया भाई फुरसतिया की जगह फोकटिया काहे नही रखा नाम.नाम क्या बतायें?अक्सर ऐसा होता है कि काम करने के बाद बहाना तलाशा जाता है.यहाँ भीयही हुआ.तो बहाना यह है कि ब्लाग फुरसत में तो बनसकता है पर फोकट में नहीं.इसलिये नाम को लेकर हम निशाखातिर हो गये."
फुरसतिया शब्द का अर्थ चाहे जो भी हो, हम तो इसे फुल्ली रसभरी बतिया मानते है। मतलब ये कि फुरसतिया का ब्लॉग पढते समय आप हास्य रस मे सराबोर हो जाते है। शब्दों पर इनकी बहुत अच्छी पकड़ है। विषय वस्तु के बारे मे क्या कहें, हमने इनको लड़कियों से छेड़खानी के ऊपर एक लेख लिखने को कहा तो जनाब प्रेक्टिकल एक्सपीरियन्स लेने (यहाँ इसे ‘छेड़ने‘ पढा जाए) गर्ल्स कालेज के बाहर टहलते मिले। मतलब ये कि बिना अनुभव किए वो लिखते नही और लिखने के लिये अनुभव लेने से भी नही चूकते। अब गालियों का सांस्कृतिक महत्व वाले लेख को ही लीजिए, बाकी आप स्वयं समझ जाएंगे। वैसे अभी पिछले दिनो इन्होने निरन्तर पत्रिका के एड्स विशेषांक पर भी कुछ लेख भी लिखे थे, (आप गलत सलत मत समझिएगा, हम पहले से ही कह देते है।)
फुरसतिया जी के ऊपर तो वैसे अतुलवा बहुत कुछ लिख चुका है, हम यहाँ सिर्फ़ अनछुई बाते ही बताएंगे और हाँ चिकाई बिल्कुल नही करेंगे। फुरसतिया जी बचपन से बहुत चिकाईबाज किस्म के इन्सान रहे है। फुरसतिया के बचपन की बात है, कानपुर में ब्रहम नगर के पास, एक छोटा सा मंदिर था मंदिर के बाहर, एक राक्षसी खुला हुआ मुँह वाली मूर्ति बनी हुई थी, इनको पता नही उस राक्षसी मे क्या नजर आया, मंदिर के बाहर खड़े रहकर, घन्टो छोटे छोटे कंकड़ों से राक्षसी के मुँह का निशाना साधा करते थे। वहाँ से इनका प्रस्थान तभी होता था, जब तक कि कोई इनको गरियाता हुआ खदेड़ता नही था।
ब्लॉग के बारे आपने चाहे कितनी परिभाषाएं सुन रखी हो, ब्लॉग की झकास परिभाषा फुरसतिया जी ने इस तरह से दी है:

"ब्लाग क्या है?इसपर विद्घानों में कई मत होंगे.चूंकि हम भी इस पाप में शरीक हैं अत: जरूरी है कि बात साफ कर ली जाये.हंस के संपादकाचार्य राजेन्द्र यादव जीकहते हैं कि ब्लाग लोगों की छपास पीङा की तात्कालिक मुक्ति का समाधान है.खुद लिखो-छाप दो.मतलब आत्मनिर्भरता की तरफ कदम."

अनूप भाई की एक खास बात है, ये किसी को भी पिटता हुआ नही देख सकते। अगर दो लोग मिलकर किसी तीसरे की पिटाई कर रहे हों तो फुरसतियाजी बिना मसला जाने, तुरन्त पाला बदलकर पिटने वाले के घाव सहलाने लगते है। पिछले कई किस्से बयां किए जा सकते है। हमारा बऊवा जो हर बार पिटने वाले काम करता था, फुरसतियाजी उसकी पिटाईपरान्त तत्काल घाव सहलाने के लिए उपलब्ध रहते थे। यहाँ तक तो गनीमत थी, लेकिन एक दिन कल्लू पहलवान ने अपना लट्ठ लहराते हुए फुरसतियाजी से पूछा “बहुत याराना लगता है…. क्यो?” उस दिन के बाद से अनूप भाई बऊवा से ऐसे कन्टी हुए कि बऊवा से सिर्फ़ हमारे ब्लॉग तक की पहचान रखे हैं। एक और बात फुरसतिया जी नेकी करके भूल जाते है, ना जाने कितनी बार बऊवा को पिटने से बचाते बचाते खुद चोटिल हुए। फुरसतिया जी अब ये मत पूछना बऊवा कौन? हम जानते है आप महान आत्मा है जो नेकी कर दरिया मे डाल वाले सिद्दान्त पर विश्वास करते है।
शुकुल भाई चिकाई करने मे बहुत आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी है, कभी भी किसी की चिकाई करने मे विदेशी सहायता पर निर्भर नही रहते। अकेले अपने बलबूते पर चिकाई लेते है। सार्वजनिक रुप से भरपूर चिकाई लेते है और व्यक्तिगत रुप से मेल मुलाकात कर आते है। जैसे भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान, सार्वजनिक रुप से बयानबाजी (चिकाई) करते है, मिलने पर हैंहैं करते हुए पाए जाते है। अगला बन्दा इनका ब्लॉग (दो तीन बार पढकर) सोचता है कि इसने चिकाईबाजी तो की है, लेकिन कुछ उखाड़ने की सोचे इस बीच शुकुल गूगलटाक पर चहकते हुए, पब्लिक रिलेशन करते हुए नजर आते है।बन्दा अभी कुछ कहे, उससे पहले ही ये कहते है, अरे वो हम सिर्फ़ मौज ले रहे थे। वो लेख तुम्हारे लिए थोड़े ही था, वो तो पब्लिक के लिए था। बन्दा लुटा पिटा, ठगा सा रहा जाता है। इसे बोलते जबरी मारे और रोने भी ना दे।
फुरसतिया जी को समय समय पर साहित्यिक बीमारियां भी होती रहती है, कभी कविता (अरे वो वर्मा जी की लड़की नही, काव्य वाली कविता) का शौंक, कभी हाइकू का हैंगओवर और कभी जीवनियों का जोश। कभी ये जीवित कवियों की जीवनी लिखते है, कभी मरहूम शायर को भी जन्नत मे चैन नही लेने देते। कविताएं भी लिखी है इन्होने, अब समझने वालों से पूछो कि कैसे समझ मे आयी। आखिरी समाचार मिलने तक इस पर अभी शोध जारी है। इनके लेख इतने लम्बे लम्बे होते है कि पढने वाला अगर पूरा पढने बैठे तो अर्सा लग जाए। इसलिए पहला और आखिरी पैराग्राफ पढकर लोग तारीफ़ करके कट लेते है। लेखन मे इन्होने देवी देवताओं को भी नही छोड़ा, कई कई बार वहाँ से कम्पलेन्ट आयी कि भई देखो और समझाओ इसको क्या क्या लिखॆ जा रहा है। अनेको बार तो बवाल बहुत बढ गया लेकिन नारद ने हर बार मान्डवली करायी।
फुरसतिया की लेखन शैली मे शब्दों का अजीब लेकिन परपेक्ट सा घालमेल होता है, साहित्य की गम्भीरता, हास्य की मिठास, कनपुरिया चिकाई की चाश्नी और व्यंग का तीखापन एक साथ एक ही जगह पर देखने को मिलती है। लेखन मे विषय भी इतने धाकड़ होते है कि हम लोग सोचते रह जाते है, ये लिखकर आ भी जाते है। एक बात और, लिखने के तुरन्त बाद, ये गूगल टाक पर शिकार तलाशते नजर आते है, जो पहले पकड़ मे आया, तड़ से उसको बोलते है, पढ। अगर किसी ने झूठ मूठ बोला कि पढ लिया, तो फुरसतिया जी हैडमास्टर की तरह लेख सम्बंधित सवाल पूछने लगते है। और अगर किसी ने दबाव मे आकर बोला, “वाह! वाह! क्या लिखा है।” बस फिर तो फुरसतिया जी गुलाम अली की तरह हारमोनियम उसकी तरफ़ करके, पूरी प्रस्तावना से उपसंहार तक उसको बता देते है। अनलिखे प्वाइन्ट भी बता देते है। उसके बाद बारी होती है, टिप्पणी तकादे की। फुरसतिया तुरन्त उसको बोलते है, टिप्पणी कर। मरता ना क्या करता, अगला तुरन्त टिप्पणी करके पतली गली से सरक लेता है, और अगली बार गूगल टाक पर मिस्टर इन्डिया वाली सैटिंग से ही लागिन करता है या फिर अति व्यस्त लिखकर ही अवतरित होता है।
फुरसतिया जी आसान लेखन मे विश्वास नही करते, इनका मत है:

    1. पहली बार तो बन्दा लेख देखने आए, (बन्दा लेख लम्बा देखकर पतली गली से निकल जाता है)
    2. दूसरी बार पढने आए (अगर फुरसतिया गूगल टाक पर दिख गए तो पक्का पकड़कर लाया गया होगा)
    3. तीसरी बार डिक्शनरी बगल मे दबाकर दोबारा पढने आए। (बशर्ते डिक्शनरी मिल जाए)
    4. चौथी बार टिप्पणी के लिए (पिछली बार गूगल टाक पर गोली देकर निकले बन्दो के लिए) आए।


इसके अलावा अनूप भाई युवा चिट्ठाकारों को बहुत प्रोत्साहन देते है, ये प्रोत्साहन उस वक्त दोगुना चौगुना हो जाता है यदि वो चिट्ठाकार कोई महिला चिट्ठाकार हो। उनको सहायता देने मे फुरसतिया जी की ऊर्जा देखते ही बनती है। हम तो सिर्फ़ एक इमेल की दूरी पर रहते है लेकिन फुरसतिया, वो तो यह दूरी भी मिटाकर मोबाइल नम्बर तक दे देते है।हम लोगों ने भी कई बार चिकाई चिकाई मे महिला चिट्ठाकार वाला खेल इनके साथ खेला है, सचमुच मे अनूप भाई बहुत अपनापन दिखाते है….बाकी हम कैसे लिखे यहाँ पर।
अनूप भाई को एक बहुत बड़ी चिन्ता रहती है अपने ब्लॉग पर हिट संख्या की। विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि इन्होने अपने ब्लॉग पर एक नही दो नही, तीन तीन हिट काउन्टर लगा रखे है। ज्यादा कुरदने पर पता चला कि यदि एक हिट काउन्टर इनके मन मुताबिक विजिटर संख्या नही दिखाता तो ये दूसरे वाले को देखते है। अगर दोनो कम दिखाते है तो इसको बदलने की सोचने लगते है।जैसे लोग अखबार मे राशिफल पढते समय पहले जन्मतिथि अनुसार राशिफल पढते है, कुछ गलत सलत होता है तो नाम के पहले अक्षर वाला राशिफल पढते है, ठीक वैसा ही।
इन सबके बावजूद भी फुरसतिया जी का ब्लॉग मेरा मनपसन्द ब्लॉग है। सुबह जब मै लागिन करता हूँ तो पहला काम इनका ब्लॉग देखने जरुर जाता हूँ, जैसे गुरद्वारे मत्था टेकने जाते है लोग बाग। सचमुच फुरसतिया का लेखन बहुत कमाल का है, यदि कोई सीखना चाहे तो फुरसतिया का ब्लॉग अपने आप मे एक इन्स्टीट्यूशन है। हास्य व्यंग का पुट, समसामयिक आलोचना, ज्वलन्त मुद्दे, सामाजिक कुरीतिया सभी पर इन्होने बहुत ही अच्छे तरीके से लिखा है। हिन्दी के इस ब्लॉग रत्न को मेरी तरफ़ जन्मदिन की बहुत बहुत बधाइयां। आशा है वे इस तारीफ को पाकर फ़ूलेंगे नही, और अपना लेखन लगातार जारी रखेंगे। इन्ही शुभकामनाओं के साथ…..( और चिकाई के जवाबी फायर की उम्मीद में)उनका अनुज, शिष्य और ब्लोंगोटिया यार (ये लंगोटिया टाइप का होता है)

-जीतू

चलते-चलते

फुरसतिया जी हो गए, छियालीस के आज .

ब्लॉग नीरनिधि मौज के बादशाह बेताज ..

बादशाह बेताज, मुबारक होय जनमदिन .

यूँ ही लेते रहें मौज ये सबसे प्रतिदिन ..

विवेक सिंह यों कहें, हमारी इन्हें दुआएं .

देने वाले मौज, स्वयं आकर दे जाएं ..



जितेन्द्र चौधरी: विवेक भाई,
लेख छापने का धन्यवाद।
इतने साल हो गए ये लेख लिखे, शुकुल(फुरसतिया) ना बदला, ना ही बदलेगा।
आज जब शुकुल 46 साल के माशाअल्लाह जवां मर्द हो गए है, उनको उनके जन्मदिन पर ढेर सारी बधाईयां। शुकुल तुम जियो हजारों साल, लिखो लेख पचास हजार।

एक बार फिर से धन्यवाद और शुकुल को बधाई।

सोमवार, सितंबर 14, 2009

सपनों की दुनिया

सपनों की दुनिया भी क्या है ।

सबकी अपनी जुदा-जुदा है ॥

जब भी मुझे नींद आती है ।

स्वप्नलोक में ले जाती है ॥

देख रहा हूँ एक मरुस्थल ।

यद्यपि यहाँ उपस्थित है जल ॥

गंगा एक बह रही उजली ।

यह न शिव-जटाओं से निकली ॥

निकली है यह सुप्त नयन से ।

करुण अश्रुओं के क्रंदन से ॥

अविरल धार आँसुओं की यह ।

सदियों से कहती है बह-बह ॥

कन्या-भ्रूण मरेंगे जब तक ।

हत्या मनुज करेंगे जब तक ॥

तब तक यही मरुस्थल होगा ।

बंजर भू अंत:स्थल होगा ॥

मिले न पशु, पक्षी, हरियाली ।

पड़ीं खाइयाँ बनी सवाली ॥

मैं प्रश्नों से नज़र चुराता ।

बालू पर हूँ पकड़ बनाता ॥

हाथ लगी लेकिन असफलता ।

बार बार मैं रहा फिसलता ॥

मैं खाई से निकल न पाया ।

पत्नी जी ने मुझे जगाया ॥

लेकिन सपना वह दु:खदाई ।

कैसी थी वह गहरी खाई !

कन्या भ्रूणों के वे साये ।

मुझे भूलते नहीं भुलाए ॥

अरे मूर्ख मानव अब मानो ।

पापकर्म यह है पहचानो ॥

करो न ह्त्या कभी भ्रूण की ।

समीर खुश्बू दे प्रसून की ॥

सूचना : यह कविता समीर जी द्वारा रचित इसी शीर्षक की कविता से प्रेरित है । इसके लिए समीर जी की अनुमति प्राप्त कर ली गई है ।

नहीं यह मेरी मंजिल

या आभासी जगत से, बिरथा कर मत मोह ।
मोह क्लेश का मूल है, होकर रहे बिछोह ॥
होकर रहे बिछोह, अकेला चल तू राही ।
ऊपर उठकर देख, त्याग तारीफ़, बुराई ॥
विवेक सिंह यों कहें, नहीं यह मेरी मंजिल ।
हुआ सफ़र से त्रस्त, आ गया बहलाने दिल ॥

रविवार, सितंबर 13, 2009

हिन्दी-दिवस पर हिन्दी-बैण्ड


मैंने जब से होश सँभाला स्वयं को बृजभाषामय वातावरण में पाया । खड़ी बोली हिन्दी तो वहाँ बस लिखने और पढ़ने के लिए है । यदि कोई बोलने की कोशिश भी करे तो धाराप्रवाह बोलना कठिन होता था । आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि बाहरी लोग ही 'क्या कू' बोलते अच्छे लगते हैं, या फिर ज्यादा पढ़े लिखे लोग । अगर कोई आम आदमी यह कोशिश करता तो मजाक होता था कि, " देखो तो, अंग्रेजी की टाँग को तोड़े ही दे रहा है ।" यदि गाँव का व्यक्ति शहर में जाकर बस गया है तो वह जब भी गाँव घूमने आये उसे गाँव की भाषा में ही बोलना चाहिए न कि अंग्रेजी फुर्रकनी चाहिए ऐसी आम धारणा है । अन्यथा कहा जाता है कि वह उड़ने लगा है । घमण्डी हो गया है । आदि आदि ।

मैं जब कभी किसी के बारे में सुनता कि अमुक व्यक्ति कई भाषाएं जानता है तो यही विचार आता कि कैसे वह किसी भाषा में बोलते समय अन्य भाषाओं के शब्दों को घालमेल होने से बचाता होगा । पर अब लगता है कि आदमी एक ऐसे रेडियो की तरह होता है जिसका बैण्ड स्वयमेव परिस्थिति के अनुरूप बदलता रहता है ।

ऑफिस में हों या बेटों से बात करें तो शहरी हिन्दी का बैण्ड, पत्नी से बात करें या गाँव में हों तो गाँव की अपनी प्यारी बृजभाषा का बैण्ड, अभी चेन्नई से किसी पुराने साथी का फोन आ जाए तो अंग्रेजी का बैण्ड अपने आप ही लग जाता है । पर जो बात बृजभाषा बैण्ड में होती है वह किसी और में कहाँ ? इसीलिए पत्नी को मैंने उसकी इच्छा के प्रतिकूल मुझसे बात करते समय बृजभाषा बैण्ड पर रहने को राजी किया हुआ है । इससे बड़ी शान्ति मिलती है । अन्यथा ऐसा लगता है जैसे मैं अभिनय करता जा रहा हूँ ।

यह तो हुई अपनी भाषा की बात । अब आते हैं हिन्दी दिवस पर । अब हिन्दी दिवस में अधिक देर नहीं बची । इसलिए मैं एक हिन्दी दिवस की कविता का पुन:ठेलन कर ही देता हूँ । झेलिए :



हिन्दी दिवस के अवसर पर

समारोह कार्यालय में था,
हिन्दी दिवस मनाना था ।
सभ्य समाज उपस्थित सब,
मर्दाना और जनाना था ।

एक-एक कर सब बोले,
सबने हिन्दी का यश गाया ।
हिन्दी ही सत्य कहा सबने,
अंग्रेजी तो है बस माया ।

साहब एक बढ़े आगे,
अपना कद ऊँचा करने में ।
"मिलती है अद्भुत शान्ति सदा ही,
हिन्दी भाषण करने में ।

चले गए अंग्रेज यहाँ से,
पर अंग्रेजी छोड़ गए ।
बुरा किया अंग्रेजों ने,
मिलकर भारत को तोड़ गए ।

किन्तु नहीं चिन्ता हमको,
हम मिलकर आगे जाएंगे ।
उत्थान करेंगे हिन्दी का,
हिन्दी में हँसेंगे, गाएंगे ।

अब बात करेंगे हिन्दी में,
हम सब अंग्रेजी छोड़ेंगे ।
जो अंग्रेजी में बोलेगा,
हम उससे नाता तोड़ेंगे ।"

सचमुच उनका कद उच्च हुआ,
करतल ध्वनि की हुँकार हुई ।
अंग्रेजी पडी रही नीचे,
तो हिन्दी सिंह सवार हुई ।

पर यह क्या सब कुछ बदल गया,
अनहोनी को तो होना था ।
बस चीफ बॉस का आना था,
हिन्दी को फिर से रोना था ।

आगमन चीफ का हुआ सभी ने,
उठकर गुड मॉर्निंग बोला ।
"मोर्निंग मॉर्निंग हाउ आर यू ?"
साहब ने गिरा दिया गोला ।

खड़े हुए जा माइक पर,
फिर हिन्दी की तारीफ करी ।
"ऑल ऑफ अस शुड यूज़ हिन्दी,
जस्ट लीव इंग्लिश यू डॉण्ट वरी ॥"

शनिवार, सितंबर 12, 2009

अरे तू अब बस भी कर यार









अरे तू अब बस भी कर यार !
कर दी ऊपर अगर शिकायत,
बहुत पड़ेगी मार.....


सही समय पर रहा नदारद
रहे तरसते सब नाले-नद
सूख गए सब खेत धान के
किसान बैठे हार मान के
कर करके इंतजार......

रहा घूमता तू बदली संग
झूम रहा था ज्यों पी हो भंग
भूल गया निज जिम्मेदारी
कर लीं खत्म छुट्टियाँ सारी
कर दी बहुत अबार.......

बरस रहा अब बिना ब्रेक ही
धूप दिखाई न दी नेंक भी
चार माह का काम अधूरा
चार दिनों में करता पूरा
बना बड़ा होशियार.....

सुनी नहीं क्या उक्ति पुरानी
'का वर्षा जब कृषि सुखानी'
कीमत समझ समय की लल्लू !
आज छोड़ बदली का पल्लू
हो जा खुद-मुख्तार......

जाँच बिठाई जाएगी जब
सत्य सामने आयेगा तब
तुझको किसने था उकसाया ?
तू ऐसा कैसे कर पाया ?
सो गए क्या सब पहरेदार....

यह संवेदनशील काम है
लेकिन तू तो बेलगाम है
बादल तुझे कौन बनवाया ?
क्या तू आरक्षण से आया ?
कार्यवाही को हो तैयार....

नौकरी तेरी चली न जाय
मिलेगी फिर न ऊपरी आय
नौकरी छोटी हो या बड़ी
ऊपरी आय चीज है बुरी
कराती गलत कार्य हर बार......

अरे तू अब बस भी कर यार !


सूचना: स्वप्नलोक पर गत्यात्मक ज्योतिष वाली संगीता पुरी जी ने अर्ध-शतक ठोकने में सफलता हासिल की है । उन्हें बहुत बहुत बधाई ! इस अवसर पर इनके बारे में इन्हीं की जुबानी :

पोस्‍ट-ग्रेज्‍युएट डिग्री ली है अर्थशास्‍त्र में .. पर सारा जीवन समर्पित कर दिया ज्‍योतिष को .. अपने बारे में कुछ खास नहीं बताने को अभी तक .. ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन-मनन करके उसमे से वैज्ञानिक तथ्यों को निकलने में सफ़लता पाते रहना .. बस सकारात्‍मक सोंच रखती हूं .. सकारात्‍मक काम करती हूं .. हर जगह सकारात्‍मक सोंच देखना चाहती हूं .. आकाश को छूने के सपने हैं मेरे .. और उसे हकीकत में बदलने को प्रयासरत हूं .. सफलता का इंतजार है।

बुधवार, सितंबर 09, 2009

वहीं हमारे काशी-काबा


छोटा सा है गाँव हमारा ।
लगता हमें जहाँ से प्यारा ॥

जब स्कूल बन्द हो जाते ।
हम सब गाँव घूमने जाते ॥

भागदौड़ शहरों में जैसी ।
देखी नहीं गाँव में वैसी ॥

सुबह-शाम खेतों पर जाना ।
घर पर ऊधम खूब मचाना ॥

अम्मा-बाबा हँसते रहते ।
पापा भी कुछ हमें न कहते ॥

काश छुट्टियाँ जल्दी आयें ।
फिर से गाँव घूमने जायें ॥

जहाँ हमारे अम्मा-बाबा ।
वहीं हमारे काशी-काबा ॥

सोमवार, सितंबर 07, 2009

चाँद-तारा प्रहेलिका का परिणाम

चाँद-तारा प्रहेलिका में जो पाठक भाग ले सके उन्हें बधाई । जो भाग न ले पाये उन्हें अगली प्रहेलिका के लिए शुभकामनाएं । सबने खूब मजा किया । कुछ लोग सीरियस हो गए तो कुछ ने ठण्डे दिमाग से प्रहेलिका पर हल चलाया ।

वस्तुत: चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा लगभग 27.3 दिन में करता है । धरती की परिक्रमा करते समय यह पश्चिम से पूरब की ओर जाता है । किन्तु पृथ्वी अपनी कल्पित धुरी पर इससे भी तेज पश्चिम से पूरब की ओर घूमती है । इसीलिए चन्द्रमा हमें पश्चिम की ओर जाता दिखाई देता है । यदि कभी पृथ्वी थोड़ी देर अपनी धुरी पर घूमना छोड़कर सुस्ताने लगे तो और चाहे जो हो पर चन्द्रमा आपको अवश्य पश्चिम से पूरब की ओर जाता दिखाई देगा ।

तारा धरती की परिक्रमा नहीं करता । उसका पूरब से पश्चिम की ओर जाते हुए दिखना सिर्फ धरती के अपनी धुरी पर घूमने के कारण है । इसलिए जब पृथ्वी सुस्ताने के लिए रुकेगी तो यह भी रुक जाएगा ।

अब चलते हैं प्रहेलिका के उत्तर की ओर :

जिस समय चन्द्रमा और तारा एक जगह पर हों, उससे आगे तारा धीरे-धीरे आगे होता जाएगा और चन्द्रमा पीछे रह जाएगा । दोंनों पूरब से पश्चिम वाले रूट पर चलेंगे । पश्चिम के क्षितिज में पहले तारा फिर चन्द्रमा डूब जाएंगे ।

विवेक रस्तोगी जी, संगीता पुरी जी , और दिनेशराय द्विवेदी जी, विजेता बनने में सफल हुए । सभी को बधाइयाँ ।

अन्य टिप्पणियाँ भी मजेदार रहीं । कुछ लोगों ने फोटू देखकर ही पहचान लिया कि यह तारा नहीं ग्रह है । और ग्रह भी शुक्र है यह भी पता लगा लिया । उन्हें बधाई । उनका नाम नोबेल पुरुस्कार के लिए आगे सरका दिया गया है । स्वाहा !

मित्रगण