क्रिकेट और टेनिस के खेल में समानता बस यही है कि दोनों में बॉल की पिटाई होती है । क्रिकेट में बॉलर बॉल के प्रति झूठा प्यार दिखाता है । उसे बहुत अच्छी तरह चमकाता रहता है । लेकिन उसका असली मकसद बल्लेबाज को आउट करना होता है जिसके लिए वह बॉल को अपना हथियार बनाता है । क्रिकेट में बल्लेबाज जहाँ अपनी पिच पर ही खड़ा रहता है । बॉल पीटने का अवसर वहीं उसे उपलब्ध हो जाता है वहीं टेनिस में खिलाड़ियों को बॉल के पीछे भाग-भागकर मारना होता है । क्रिकेट बॉल से चोट लगने का भय रहता है । वह कभी कभी गुस्से में मार बैठती है । जबकि टेनिस बॉल बेचारी उछलती कूदती रहती है । अब टेनिस बॉल से क्रिकेट खेलने का रिवाज़ जोरों पर है । पेश है कविता :
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
बॉल आ रहीं खुद पिटने
वह बल्ला घुमा रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
वह लेदर की बॉल कठिन थी
चमड़ी उसकी हुई मलिन सी
मैल भी उस पर जमा रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
थका खेलते पैड बाँधकर
हेल्मेट का बोझ साधकर
कमर बेचारा झुका रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
जब न बचा कुछ मज़ा खेल में
बैट और बॉल के मेल में
बॉल से पीछा छुड़ा रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
हेलमेट, पैड सब उतारे
टेनिस बॉल का नाम उचारे
बॉल टेनिस की मँगा रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
टेनिस बॉल प्रसन्न हो गई
निज किस्मत पर धन्य हो गई
क्रिकेटर उसको बुला रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
इधर उधर जाने की आदत
कभी मार तो कभी इबादत
यही तो अब तक लगा रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
अब मेरी अपनी पिच होगी
अब यह बॉल और हिट होगी
भाग्य ही मुझको बुला रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
टेनिस बॉल बैट से खेली
बड़ी मुलायम नई नवेली
चौके, छ्क्के उड़ा रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
लेदर बॉल पड़ी कोने में
अब क्या किस्मत को रोने में
अकेलापन अब सता रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
नियति बॉल की अत्याचारी
खेल खेल फेंकी बेचारी
मौज़िल उसको बता रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
बॉल आ रहीं खुद पिटने
वह बल्ला घुमा रहा
क्रिकेटर पिच पर जमा रहा
- विवेक सिंह 'मौज़िल'
कृपया यह भी देखें सोचती यूँ क्रिकेट की बॉल
संभव है कि इस ब्लॉग पर लिखी बातें मेरी विचारधारा का प्रतिनिधित्व न करती हों । यहाँ लिखी बातें विभिन्न दृष्टिकोणों से सोचने का परिणाम हैं । कृपया किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न रखें ।
बुधवार, मार्च 31, 2010
रविवार, मार्च 28, 2010
कर अतिरिक्त प्रयास
कर अतिरिक्त प्रयास ।
अंधकार जब आँखों में हो
बहते अश्रु निगाहों में हों
लगे टूटने आस ।
कर अतिरिक्त प्रयास ॥
लक्ष्य न जब तक हो मुट्ठी में
मज़ा नहीं तब तक छुट्टी में
त्याग हास-परिहास ।
कर अतिरिक्त प्रयास ॥
तुझे सफल ही होना होगा
असफलता को रोना होगा
मन में रख विश्वास ।
कर अतिरिक्त प्रयास ॥
कोई कसर छोड़ मत बाकी
कठिन परीक्षा ले क्षमता की
कहना पड़े न 'काश' ।
कर अतिरिक्त प्रयास ॥
तू बाहर हो या हो घर में
डूब परिश्रम के सागर में
अपना लक्ष्य तलाश ।
कर अतिरिक्त प्रयास ॥
सिर्फ़ न बह मौजों में 'मौज़िल'
लगा अन्य कामों भी दिल
करता रह अभ्यास ।
कर अतिरिक्त प्रयास ॥
-विवेक सिंह 'मौज़िल'
शनिवार, मार्च 27, 2010
दो परमाणु करार
सोमवार, मार्च 22, 2010
कहहुँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं
चेतावनी : कृपया इस लेख को पढ़ने के बाद एक दिन का नहाना रद्द कर दें । इसे पढ़कर यदि किसी पाठक को उल्टी आने लगे अथवा स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई और दिक्कत हो तो इसमें हमारा कोई दोष नहीं होगा । हर्जे खर्चे के जिम्मेदार आप स्वयं होंगे । विवाद की स्थिति में न्यायालय स्वप्नलोक ही होगा । हमने यह लेख खूब सोच समझकर लिखा है । हमें इससे अच्छा लिखना आता ही नहीं तो इसमें हमारा कोई दोष नहीं ।
रहीम जी ने बहुत पहले चेतावनी जारी कर दी थी । पर लोग समझें तब न । अन्यथा आज विश्व जल दिवस मनाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती । देखिए तो यह दोहा :
रहीम जी ने बहुत पहले चेतावनी जारी कर दी थी । पर लोग समझें तब न । अन्यथा आज विश्व जल दिवस मनाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती । देखिए तो यह दोहा :
रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुस, चून ॥
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुस, चून ॥
पर हमारे यहाँ चेतावनी के खिलाफ़ जाने की परम्परा बहुत पुरानी है । समझा जाता है कि जहाँ नो पार्किंग लिखा है वह जगह गाढ़ी पार्किंग लायक है । जहाँ शूशू करने की मनाही लिखी होती है वहीं लोग शूशू करते दिखते हैं । इसके पीछे आखिर क्या कारण है ?
हमें लगता है कि लोगों के मष्तिस्क में चेतावनी लिखी देखकर दो बातें साफ हो जाती हैं । पहली तो यह कि यह जगह अवश्य ही जिस वर्जित उद्देश्य के लिए प्रयोग करने लायक है । और दूसरी यह कि यहाँ कोई रोकने-टोकने वाला होगा इसके चान्सेज बहुत कम हैं । क्योंकि रोकने-टोकने वाला तो चेतावनी लिखकर फूट लिया । उसके पास यहाँ रखवाली करने का टाइम होता तो चेतावनी लिखने की जरूरत ही क्या थी ?
वैधानिक चेतावनी की वैल्यू तो और भी कम है । सिगरेट और तम्बाकू के पैकेट पर भी यही चेतावनी लिखी रहती है । इसे पढ़कर लगता है कि लिखने वाले ने मजबूरी में लिखी है । डण्डे के डर से । यही सोचकर बेचारे के प्रति दयाभाव उमड़ आता है । इसी कारण लोग नुकसानदायक जानते हुए भी सिगरेट पी लेते हैं ।
चेतावनी का ही एक प्रकार डिस्क्लेमर है । इसकी हिन्दी मुझे मालूम नहीं । इसमें सीधे-सीधे जो मन में आए लिख दिया जाता है । सामने वाले की गरज होगी तो डिस्क्लेमर मानेगा ही । बड़े-बड़े धाँसू ऑफ़र देकर कम्पनियाँ नीचे छोटे अक्षरों में लिखती हैं 'शर्तें लागू' । लिख दिया जाता है कि विवाद की स्थिति में न्यायालय हमारा वाला ही होगा । हर्जे खर्चे के जिम्मेदार आप स्वयं होंगे । अपने सामान की रक्षा स्वयं करें । बिका हुआ माल वापस नहीं होगा आदि आदि ।
रामायण में भी में भी जब मुनि परशुराम के सामने लक्ष्मण जी ऐंड़ गये तो परशुराम जी ने भी डिस्क्लेमर जारी कर दिया था ।
हमें लगता है कि लोगों के मष्तिस्क में चेतावनी लिखी देखकर दो बातें साफ हो जाती हैं । पहली तो यह कि यह जगह अवश्य ही जिस वर्जित उद्देश्य के लिए प्रयोग करने लायक है । और दूसरी यह कि यहाँ कोई रोकने-टोकने वाला होगा इसके चान्सेज बहुत कम हैं । क्योंकि रोकने-टोकने वाला तो चेतावनी लिखकर फूट लिया । उसके पास यहाँ रखवाली करने का टाइम होता तो चेतावनी लिखने की जरूरत ही क्या थी ?
वैधानिक चेतावनी की वैल्यू तो और भी कम है । सिगरेट और तम्बाकू के पैकेट पर भी यही चेतावनी लिखी रहती है । इसे पढ़कर लगता है कि लिखने वाले ने मजबूरी में लिखी है । डण्डे के डर से । यही सोचकर बेचारे के प्रति दयाभाव उमड़ आता है । इसी कारण लोग नुकसानदायक जानते हुए भी सिगरेट पी लेते हैं ।
चेतावनी का ही एक प्रकार डिस्क्लेमर है । इसकी हिन्दी मुझे मालूम नहीं । इसमें सीधे-सीधे जो मन में आए लिख दिया जाता है । सामने वाले की गरज होगी तो डिस्क्लेमर मानेगा ही । बड़े-बड़े धाँसू ऑफ़र देकर कम्पनियाँ नीचे छोटे अक्षरों में लिखती हैं 'शर्तें लागू' । लिख दिया जाता है कि विवाद की स्थिति में न्यायालय हमारा वाला ही होगा । हर्जे खर्चे के जिम्मेदार आप स्वयं होंगे । अपने सामान की रक्षा स्वयं करें । बिका हुआ माल वापस नहीं होगा आदि आदि ।
रामायण में भी में भी जब मुनि परशुराम के सामने लक्ष्मण जी ऐंड़ गये तो परशुराम जी ने भी डिस्क्लेमर जारी कर दिया था ।
काल कवलु होइहिं छिन माहीं । कहहुँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं ॥
शनिवार, मार्च 20, 2010
एक बार फिर आ गौरैया
आज फुरसतिया की ओर टहलने चले गए तो पता चला कि वे कविता का मसौदा लेकर बैठे हैं । हमें अपने आशुकवि होने पर बड़ी लाज आयी । हालांकि हम लाज के मारे लाल तो नहीं हुए पर सोच में अवश्य पड़ गए कि ऐसे लम्बे लम्बे झिलाऊ लेख लिखने वाले लोग कविता लिख रहे हैं तो हम क्यों नहीं लिख सकते ? बस बैठे और गौरैया के नाम दस मिनट कर ही दिये आज के । कविता हाज़िर है:
एक बार फिर आ गौरैया
तेरी बहुत याद आती है
यूँ तो रूठ न जा गौरैया
बचपन की यादों में शामिल
तेरे बिन वे यादें बोझिल
तेरे दर्शन को बेकल दिल
सूरत जरा दिखा गौरैया
एक बार फिर आ गौरैया
तेरे पीछे धमाचौकड़ी
कतना के नीचे रख लकड़ी
एक बार धोखे से पकड़ी
अब वह खता भुला गौरैया
एक बार फिर आ गौरैया
देख प्रदूषण मत हो शक्की
एक बात है बिल्कुल पक्की
हमने काफी करी तरक्की
तू भी खुश हो गा गौरैया
एक बार फिर आ गौरैया
दिन यह तेरे नाम कर दिया
बहुत बड़ा यह काम कर दिया
तुझको आज सलाम कर दिया
पंख जरा फैला गौरैया
एक बार फिर आ गौरैया
तेरी बहुत याद आती है
यूँ तो रूठ न जा गौरैया
एक बार फिर आ गौरैया !
मंगलवार, मार्च 16, 2010
उदास मत हो ब्लॉगिंग
प्रिय ब्लॉगिंग,
आशा है तुम मज़े में होगी । मैं भी मजे में हूँ । अब यह न पूछना कि मैं तुमसे दूर रहकर भी मजे में कैसे रह रहा हूँ जबकि तुम तो मेरे बिना अधूरी अधूरी सी फील करती हो । वैसे अगर तुम ऐसा पूछ भी लो तो भी मेरे ऊपर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि मुझे तुम्हारा वह प्रश्न निहायत ही औपचारिक लगने वाला है ।
मुझे अच्छी तरह याद है कि जब तुमसे पहली बार मुलाकात हुई थी तो मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता भी न था । किन्तु कुछ ही दिनों में हालात ऐसे हो गए कि मुझे तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा नज़र ही न आता था । तुमने मेरा परिचय आभासी दुनिया के ऐसे ऐसे पात्रों से कराया जिनके सम्पर्क में रहकर मैं रोमांचित हुए बिना न रह सका । ऐसे ऐसे अनुभव इस दुनिया में हुए जो वास्तविक जीवन में शायद संभव न थे । मेरा ज्ञान बढ़ा ।आशा है तुम मज़े में होगी । मैं भी मजे में हूँ । अब यह न पूछना कि मैं तुमसे दूर रहकर भी मजे में कैसे रह रहा हूँ जबकि तुम तो मेरे बिना अधूरी अधूरी सी फील करती हो । वैसे अगर तुम ऐसा पूछ भी लो तो भी मेरे ऊपर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि मुझे तुम्हारा वह प्रश्न निहायत ही औपचारिक लगने वाला है ।
जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है कि अति किसी भी चीज की बुरी होती है । यह कहावत तुम्हारे विषय में भी सटीक बैठी । जल्दी ही मुझे महसूस होने लगा कि मैं वास्तविक दुनिया से कटता जा रहा हूँ । संयोगवश मैं तुमसे मिलने से पूर्व ही इंजीनियरिंग करने के लिए The Institution of Engineers(India) के सम्पर्क में आ चुका था । और वह मेरी रोजी रोटी से जुड़ा सवाल था । मेरे समय और रुचि की जब अध्ययन के लिए अतिआवश्यकता थी तब तुमने भी बड़ी चालाकी से इन दोंनो चीजों को अपने कब्जे में कर लिया और मुझे ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया । बच्चों के पढ़ाने की ओर ध्यान देना तो बहुत दूर की बात हो गयी थी ।
लेकिन जो होता है अच्छे के लिए होता है यह कहावत भी सटीक निकली । मानो मेरी तुमसे मुलाकात ही भले के लिए हुई थी । मैंने तुम्हारे और अपने बीच से इंजीनियरिंग को शीघ्रातिशीघ्र हटाने के लिए कमर कस ली । तुम्हारे प्यार में मैंने ने AMIE(Associate Member of Institution of Engineers) नाम की यह बाधा महज दो साल में ही पार कर ली । हालांकि इसके लिए कुछ समय के लिए मुझे तुमसे ज़ुदा भी होना पड़ा । जिसे तुम्हारे आभासी पात्रों ने टंकी पर चढ़ना बताया ।
यह सब ठीक उसी तरह हुआ जैसे किसी लड़की को चाहने वाले लड़के के सामने लड़की का पिता उच्च शिक्षा हासिलकरने की शर्त रख दे । किन्तु असल में लड़की का पिता यही सोचता है कि इस अवधि में यह बेमेल प्यार नाम की चीज हवा में वाष्पीकृत हो जायेगी । फिल्मों में तो हालांकि ऐसा नहीं होता लेकिन मेरे साथ यही हुआ ।
अब जब कल मेरा परीक्षा परिणाम घोषित हो गया है । मैं पास हो गया हूँ , और मेरे पास समय काफी है । ऐसे में मेरा तुम्हारे लिए वह प्यार कहीं ढूँढ़े नहीं मिल रहा है ।
फिर भी तुम्हें धन्यवाद पाने का हक तो है ही । धन्यवाद ब्लॉगिंग ।
अरे अरे तुम्हारा चेहरा क्यों लटक गया ? मैं कहीं तुमसे दूर थोड़े ही हूँ । हम अच्छे दोस्त तो बने रह ही सकते हैं न । इसी बहाने तुम्हारे पास आना-जाना लगा रहेगा । क्या पता कल को तुमसे फिर प्रेम हो जाये । ऐसी क्या बात है !
शनिवार, मार्च 06, 2010
ब्लॉग-शहर में गंगाराम
जब गंगाराम पटेल ने बुलाकी नाई के सवाल का संतोषजनक जवाब दे दिया तो बुलाकी नाई के पास उनके साथ ठहरने के सिवाय और कोई चारा न बचा । अगले दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही गंगाराम पटेल और बुलाकी नाई अपनी मंजिल की ओर रवाना हो गये । दिन भर चलते रहने के बाद जब शाम हो गई तो उन्होंने एक शहर के पास पड़ाव डाल दिया ।
आज बुलाकी जल्दी जल्दी शहर गया और सब सामान लेकर लौट ही रहा था कि शहर के बाहर एक मैदान से कुछ शोर सुनाई दिया । उसने जिज्ञासावश उधर जाकर देखा तो देखता ही रह गया । एक ओर मर्द थे और दूसरी ओर औरतें थीं । दोनों ओर से दे दनादन पत्थर एक दूसरे पर फ़ेंके जा रहे थे ।
बुलाकी जल्दी जल्दी पड़ाव की ओर चल दिया । उसे ऐसा सवाल मिल गया था जिसका जवाब देना गंगाराम पटेल के लिए उसके विचार से असंभव था । घर लौटने की कल्पना करके ही उसकी बाँछें खिल रहीं थीं ।
पड़ाव पर पहुँचकर सब काम निपटाया और सवाल दागने का वक्त आ ही गया । बुलाकी ने शहर का सब हाल कह सुनाया और उसका रहस्य पूछा ।
गंगाराम पटेल बोले, " यह शहर कोई साधारण शहर नहीं है । इसे ब्लॉग-शहर के नाम से जाना जाता है । जब इस शहर की स्थापना हुई थी तो यहाँ भी नर-नारी आपस में बड़े प्रेम से ब्लॉगिंग करते हुए टाइम पास करते थे । उनको भ्रम था कि वे हिन्दी की सेवा कर रहे हैं किन्तु असल में वे सब टाइम-पास करते थे ।
जैसा कि शास्त्रों में लिखा है 'एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है' । इस शहर में कुछ स्वयंभू नेताओं का प्रवेश हो गया । इनमें कुछ नारियाँ थीं जिन्हें स्वयं के सम्पूर्ण नारी जाति का प्रतिनिधि होने का गुमान हो गया था । ऐसे ही कुछ पुरुष भी अपने को संस्कृति का ठेकेदार समझने लगे थे । धीरे-धीरे ये सब अपने आस-पास के ब्लॉगरों में नर-नारी के बीच नफ़रत फैलाने लगे । और आज हालत यह है कि यहाँ नर-नारी गुटों के अलावा कोई तीसरा गुट ही नहीं है ।
यहाँ अब न उच्च जाति और निम्न जाति का भेद है और न हिन्दू और मुसलमान का । सब भेदभाव खत्म हो गया । भेद है तो केवल नारी और पुरुष का जो एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते । अगर तुमने गौर किया हो तो देखा होगा कि इस शहर में कोई बच्चा नहीं है ।
अब बुलाकी तुम्हीं कहो कि यह अच्छा हुआ या बुरा ?"
बुलाकी कुछ न बोल पाया उसे घर न जा सकने का दु:ख था ।
आज बुलाकी जल्दी जल्दी शहर गया और सब सामान लेकर लौट ही रहा था कि शहर के बाहर एक मैदान से कुछ शोर सुनाई दिया । उसने जिज्ञासावश उधर जाकर देखा तो देखता ही रह गया । एक ओर मर्द थे और दूसरी ओर औरतें थीं । दोनों ओर से दे दनादन पत्थर एक दूसरे पर फ़ेंके जा रहे थे ।
बुलाकी जल्दी जल्दी पड़ाव की ओर चल दिया । उसे ऐसा सवाल मिल गया था जिसका जवाब देना गंगाराम पटेल के लिए उसके विचार से असंभव था । घर लौटने की कल्पना करके ही उसकी बाँछें खिल रहीं थीं ।
पड़ाव पर पहुँचकर सब काम निपटाया और सवाल दागने का वक्त आ ही गया । बुलाकी ने शहर का सब हाल कह सुनाया और उसका रहस्य पूछा ।
गंगाराम पटेल बोले, " यह शहर कोई साधारण शहर नहीं है । इसे ब्लॉग-शहर के नाम से जाना जाता है । जब इस शहर की स्थापना हुई थी तो यहाँ भी नर-नारी आपस में बड़े प्रेम से ब्लॉगिंग करते हुए टाइम पास करते थे । उनको भ्रम था कि वे हिन्दी की सेवा कर रहे हैं किन्तु असल में वे सब टाइम-पास करते थे ।
जैसा कि शास्त्रों में लिखा है 'एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है' । इस शहर में कुछ स्वयंभू नेताओं का प्रवेश हो गया । इनमें कुछ नारियाँ थीं जिन्हें स्वयं के सम्पूर्ण नारी जाति का प्रतिनिधि होने का गुमान हो गया था । ऐसे ही कुछ पुरुष भी अपने को संस्कृति का ठेकेदार समझने लगे थे । धीरे-धीरे ये सब अपने आस-पास के ब्लॉगरों में नर-नारी के बीच नफ़रत फैलाने लगे । और आज हालत यह है कि यहाँ नर-नारी गुटों के अलावा कोई तीसरा गुट ही नहीं है ।
यहाँ अब न उच्च जाति और निम्न जाति का भेद है और न हिन्दू और मुसलमान का । सब भेदभाव खत्म हो गया । भेद है तो केवल नारी और पुरुष का जो एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते । अगर तुमने गौर किया हो तो देखा होगा कि इस शहर में कोई बच्चा नहीं है ।
अब बुलाकी तुम्हीं कहो कि यह अच्छा हुआ या बुरा ?"
बुलाकी कुछ न बोल पाया उसे घर न जा सकने का दु:ख था ।
शुक्रवार, मार्च 05, 2010
मेरे सवालों का जवाब दो
कृपया किन्चित भी चिन्तित न हों, हम आपसे कोई सवाल नहीं पूछेंगे । यदि सवाल पूछ भी लिया तो भी चिन्ता की कोई बात नहीं । आप जवाब दें या न दें यह तो आप का अधिकार है । पोस्ट पढ़कर आप पतली गली से निकल जाएं । किसी को कानोंकान खबर भी न होगी कि आपने इसे पढ़ा है । यदि आपके बगल में कोई अन्य पाठक भी बैठा है तो थोड़ी कठिनाई होने की संभावना है । वह आपकी पोल सबके सामने खोल सकता है कि आपने सवाल पढ़ा पर जवाब नहीं दिया । आप बड़े ये हैं, बड़े वो हैं आदि आदि । उस केस में आपके पास भी पूरा अवसर है कि वादी को आरोपी बनाते हुए कह दें कि सवाल तो इसने भी पढ़ा था और जवाब नहीं दिया । एक कदम और आगे जाकर आप यह भी कह सकते हैं कि इसी ने मुझे मना किया था कि सवाल का जवाब नहीं देना चाहिये । बस वह आक्रामक मुद्रा से सुरक्षात्मक मुद्रा में आ जाएगा ।
हमें नेताओं से इस विषय पर काफी सीखने को मिलता है कि सवालों का जवाब कैसे दिया जाय । अगर सवाल आसान है तब तो उसका जवाब ढोल बजा बजाकर दें । खूब वाहवाही लूटें । पूछने वाला विरोधी खुद पछताएगा कि मैंने क्यों बेमतलब इसकी पब्लिसिटी करा दी । इसीलिए आजकल विपक्ष के नेता मंत्रियों से सवाल करने में कतराते हैं, कि मन्त्रीगण कहीं जवाब देने की आड़ में अपनी पब्लिसिटी न कर लें ।
फिर भी कोई सवाल यदि ऐसा पूछ लिया जाय जिसका सही जवाब देने पर लेने के देने पड़ जाने वाले हों तो उसे बिना देर किए हाइपोथेटिकल कह देना चाहिए । "मैं हाइपोथेटिकल सवाल का जवाब नहीं देता ।" ऐसा कहने से चलेगा ।
ताज़ा उदाहरण के तौर पर बता दें कि संसद में जब आडवाणी जी ने प्रधानमन्त्री जी से कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान से हुई वार्ता को संसद को बताने को कहा तो उन्होंने कहा, "मैं एक सवाल पूछता हूँ. स्ट्रोब टैलबॉट ने कितनी बार जसवंत सिंह के साथ बातचीत की? ऐसी बैठकों के बारे में कितनी बार संसद को बताया गया? आप क्यों सोचते हैं कि मैं हाइपोथेटिकल सवालों का जवाब दूँ?”
आडवाणी जी तो शान्त हो गये, लेकिन एक सवाल उठ खड़ा हुआ कि जब संसद में विपक्ष कोई सवाल पूछता है तो क्या सत्ता पक्ष इसलिए उसका जवाब देने से बच सकता है क्योंकि विपक्ष जब सत्ता में था तो उसने ऐसा ही किया था ? क्या सत्तापक्ष और विपक्ष आपस में ही एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी हैं ? क्या जनता के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं ? जनता का सवाल कौन पूछेगा ? जनता तो संसद में जा नहीं सकती न ।
अब यदि आप मुझे 'हाइपोथेटिकल' की हिन्दी पूछें तो मेरा कहना होगा, " मैं हाइपोथेटिकल सवाल का जवाब नहीं देता ।"
हमें नेताओं से इस विषय पर काफी सीखने को मिलता है कि सवालों का जवाब कैसे दिया जाय । अगर सवाल आसान है तब तो उसका जवाब ढोल बजा बजाकर दें । खूब वाहवाही लूटें । पूछने वाला विरोधी खुद पछताएगा कि मैंने क्यों बेमतलब इसकी पब्लिसिटी करा दी । इसीलिए आजकल विपक्ष के नेता मंत्रियों से सवाल करने में कतराते हैं, कि मन्त्रीगण कहीं जवाब देने की आड़ में अपनी पब्लिसिटी न कर लें ।
फिर भी कोई सवाल यदि ऐसा पूछ लिया जाय जिसका सही जवाब देने पर लेने के देने पड़ जाने वाले हों तो उसे बिना देर किए हाइपोथेटिकल कह देना चाहिए । "मैं हाइपोथेटिकल सवाल का जवाब नहीं देता ।" ऐसा कहने से चलेगा ।
ताज़ा उदाहरण के तौर पर बता दें कि संसद में जब आडवाणी जी ने प्रधानमन्त्री जी से कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान से हुई वार्ता को संसद को बताने को कहा तो उन्होंने कहा, "मैं एक सवाल पूछता हूँ. स्ट्रोब टैलबॉट ने कितनी बार जसवंत सिंह के साथ बातचीत की? ऐसी बैठकों के बारे में कितनी बार संसद को बताया गया? आप क्यों सोचते हैं कि मैं हाइपोथेटिकल सवालों का जवाब दूँ?”
आडवाणी जी तो शान्त हो गये, लेकिन एक सवाल उठ खड़ा हुआ कि जब संसद में विपक्ष कोई सवाल पूछता है तो क्या सत्ता पक्ष इसलिए उसका जवाब देने से बच सकता है क्योंकि विपक्ष जब सत्ता में था तो उसने ऐसा ही किया था ? क्या सत्तापक्ष और विपक्ष आपस में ही एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी हैं ? क्या जनता के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं ? जनता का सवाल कौन पूछेगा ? जनता तो संसद में जा नहीं सकती न ।
अब यदि आप मुझे 'हाइपोथेटिकल' की हिन्दी पूछें तो मेरा कहना होगा, " मैं हाइपोथेटिकल सवाल का जवाब नहीं देता ।"
गुरुवार, मार्च 04, 2010
पशोपेश में पड़ा हुआ हूँ
मैं सपनों की बात सुनूँ, या जनमत का सम्मान करूँ ।
पशोपेश में पड़ा हुआ हूँ, काम क्या करूँ क्या न करूँ ॥
उम्र गुजरती जाती है, पर मंजिल अब तक नहीं मिली ।
बाँछें बहुत खिलीं-मुरझायीं, लेकिन मेरी नहीं खिलीं ॥
शुभचिन्तक उकसाते हैं, पर आस टूटती जाती है ।
जनमत साथ न मेरे, किस्मत हाय रूठती जाती है ॥
तेन्दुलकर तो जमे हुए हैं, शायद मंजिल पा लेंगे ।
दो हज़ार ग्यारह में भी, उनको तो लोग खिला लेंगे ॥
लेकिन दो हज़ार चौदह तक, मैं भी क्या टिक पाऊँगा ।
अब जो भी एक बार फिर, किस्मत तो अजमाऊँगा ॥
मुझ पर खाकर तरस कदाचित्, जनमत साथ खड़ा हो ले ।
ढलता सूरज धूप बिखेरे, मेरा अक्स बड़ा हो ले ॥
जो विधि का विधान वह होगा, फिर क्यों चिन्ता में घुलता ।
मन को समझाता हूँ, फिर भी बढ़ती जाती व्याकुलता ॥
जी करता है माया तज, साधू बन प्रभु का ध्यान धरूँ ।
पशोपेश में पड़ा हुआ हूँ, काम क्या करूँ, क्या न करूँ ॥
पशोपेश में पड़ा हुआ हूँ, काम क्या करूँ क्या न करूँ ॥
उम्र गुजरती जाती है, पर मंजिल अब तक नहीं मिली ।
बाँछें बहुत खिलीं-मुरझायीं, लेकिन मेरी नहीं खिलीं ॥
शुभचिन्तक उकसाते हैं, पर आस टूटती जाती है ।
जनमत साथ न मेरे, किस्मत हाय रूठती जाती है ॥
तेन्दुलकर तो जमे हुए हैं, शायद मंजिल पा लेंगे ।
दो हज़ार ग्यारह में भी, उनको तो लोग खिला लेंगे ॥
लेकिन दो हज़ार चौदह तक, मैं भी क्या टिक पाऊँगा ।
अब जो भी एक बार फिर, किस्मत तो अजमाऊँगा ॥
मुझ पर खाकर तरस कदाचित्, जनमत साथ खड़ा हो ले ।
ढलता सूरज धूप बिखेरे, मेरा अक्स बड़ा हो ले ॥
जो विधि का विधान वह होगा, फिर क्यों चिन्ता में घुलता ।
मन को समझाता हूँ, फिर भी बढ़ती जाती व्याकुलता ॥
जी करता है माया तज, साधू बन प्रभु का ध्यान धरूँ ।
पशोपेश में पड़ा हुआ हूँ, काम क्या करूँ, क्या न करूँ ॥
बुधवार, मार्च 03, 2010
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
पाकिस्तान बड़ा नटखट है
सउदी इसको समझा दो ना !
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
करता यह अपनी मनमानी ।
कभी हमारी बात न मानी ।
मन में इसके बेईमानी ।
इसके मन को साफ करो ना !
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
गलती पूर्वज किए हमारे ।
जो मध्यस्थ नहीं स्वीकारे ।
हम आये हैं शरण तुम्हारे ।
अब तुम ही मध्यस्थ बनो ना ।
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
लेकिन जनता को मत कहना ।
पब्लिकली तुम चुप ही रहना ।
ताना पड़ जाएगा सहना ।
इस उलझन से दूर करो ना ।
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
अमरीका से भी कहलाया ।
उसने दोनों को बहलाया ।
सच में अपना काम चलाया ।
बोला, " बम एकत्र करो ना !"
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना ।
हम भी तेल तुम्हीं से लेंगे ।
दाम अन्य से ऊँचे देंगे ।
अहसानों की किस्त भरेंगे ।
पर पहले अहसान करो ना ।
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
पाकिस्तान बड़ा नटखट है ।
सउदी इसको समझा दो ना ।
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
पाकिस्तान बड़ा नटखट है
सउदी इसको समझा दो ना !
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
करता यह अपनी मनमानी ।
कभी हमारी बात न मानी ।
मन में इसके बेईमानी ।
इसके मन को साफ करो ना !
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
गलती पूर्वज किए हमारे ।
जो मध्यस्थ नहीं स्वीकारे ।
हम आये हैं शरण तुम्हारे ।
अब तुम ही मध्यस्थ बनो ना ।
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
लेकिन जनता को मत कहना ।
पब्लिकली तुम चुप ही रहना ।
ताना पड़ जाएगा सहना ।
इस उलझन से दूर करो ना ।
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
अमरीका से भी कहलाया ।
उसने दोनों को बहलाया ।
सच में अपना काम चलाया ।
बोला, " बम एकत्र करो ना !"
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना ।
हम भी तेल तुम्हीं से लेंगे ।
दाम अन्य से ऊँचे देंगे ।
अहसानों की किस्त भरेंगे ।
पर पहले अहसान करो ना ।
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
पाकिस्तान बड़ा नटखट है ।
सउदी इसको समझा दो ना ।
सउदी ! कृपया हेल्प करो ना !
सोमवार, मार्च 01, 2010
होली का त्यौहार निराला
होली का त्यौहार निराला ।
जमकर बरसें रंग-गुलाला ॥
भूत-प्रेत गलियों में डोलें ।
किन्तु आदमी जैसे बोलें ॥
पिच-पिचकर चलती पिचकारी ।
कर न सके आराम बिचारी ॥
कल तक मौसम था जाड़े का ।
लौट गया स्वेटर भाड़े का ॥
रंगों में सब सराबोर हैं ।
लाल रंग पर खूब जोर है ॥
पहुँचे भाई साहब के घर ।
किन्तु उन्हीं को साइड में कर ॥
भाभी जी से होली खेली ।
ऐसा अवसर मिले न डेली ॥
गुलाल सहलाया गालों पर ।
थोड़ा रंग डाला बालों पर ॥
पुरस्कार में गुझिया पायी ।
सीढ़ी चलते-चलते खायी ॥
समझे थे हम शेर बन गये ।
सीना गर्दन खूब तन गए ॥
कायम किन्तु न गर्व रह सका ।
दैव हमारा सुख न सह सका ॥
ज्यों ही मुख्य सड़क पर आये ।
सोचा निकलें नज़र बचाये ॥
लेकिन अब तो होंठ सिल गये ।
सवा-शेर सामने मिल गये ॥
हाथ-पैर पकड़े, लहराया ।
गड्ढे में हमको टपकाया ॥
उस कीचड़ में रंग था काला ।
आज बने हम कृष्ण गुपाला ॥
जमकर बरसें रंग-गुलाला ॥
भूत-प्रेत गलियों में डोलें ।
किन्तु आदमी जैसे बोलें ॥
पिच-पिचकर चलती पिचकारी ।
कर न सके आराम बिचारी ॥
कल तक मौसम था जाड़े का ।
लौट गया स्वेटर भाड़े का ॥
रंगों में सब सराबोर हैं ।
लाल रंग पर खूब जोर है ॥
पहुँचे भाई साहब के घर ।
किन्तु उन्हीं को साइड में कर ॥
भाभी जी से होली खेली ।
ऐसा अवसर मिले न डेली ॥
गुलाल सहलाया गालों पर ।
थोड़ा रंग डाला बालों पर ॥
पुरस्कार में गुझिया पायी ।
सीढ़ी चलते-चलते खायी ॥
समझे थे हम शेर बन गये ।
सीना गर्दन खूब तन गए ॥
कायम किन्तु न गर्व रह सका ।
दैव हमारा सुख न सह सका ॥
ज्यों ही मुख्य सड़क पर आये ।
सोचा निकलें नज़र बचाये ॥
लेकिन अब तो होंठ सिल गये ।
सवा-शेर सामने मिल गये ॥
हाथ-पैर पकड़े, लहराया ।
गड्ढे में हमको टपकाया ॥
उस कीचड़ में रंग था काला ।
आज बने हम कृष्ण गुपाला ॥
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