सोमवार, अगस्त 31, 2009

गिरे हुए में लात कैसे मारें

हमारे समाज में गिरे हुए में लात मारने की परम्परा बहुत पुरानी है । महाभारत में गिरे हुए अभिमन्यु के सिर में जयद्रथ ने लात मारी थी । जरूरी नहीं कि लात मारने के लिए अपने पैर को कष्ट दिया जाय । यह कार्य जीभ द्वारा जितने अच्छे ढंग से किया जा सकता है, उतना पैर से शायद न हो सके ।

समझ लीजिए आप 'बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं' गुनगुनाते हुए रास्ते पर चले जा रहे हैं । तभी आपके सामने चल रहा कोई परिचित ठोकर खाकर गिर जाता है । अब आप क्या करेंगे ? आप अवश्य ही सबसे पहला कार्य हँसने का करेंगे । चाहे इसके लिए आपको दूसरी ओर मुंह फेरना पड़े । लाख कोशिश कर लीजिए हँसी तो आकर रहेगी । अब आप बेकार ही आत्मग्लानि से परेशान न हों । दरअसल इसमें आपका कोई दोष नहीं । हमें ईश्वर ने बनाया ही ऐसा है तो इसमें हमारा क्या दोष ? जैसा हमें बनाया गया है हम तो वैसा ही वर्ताव करेंगे न ?

हँस तो लिए । अब दो बातें हो सकती हैं । या तो ऑपरेशन-सुहानुभूति डाइरेक्ट प्रारम्भ किया जा सकता है । या पहले दो लात जमाकर फिर सुहानुभूति जता सकते हैं । जैसा आप उचित समझें । आपको अगर जीभ से लात जमानी है तो बस इतना ही कहना होगा, " अरे गिर गए क्या ? " गिरने वाले को इतनी चोट गिरने से न लगी होगी जितनी आपकी बोली से लग जाएगी । इसीलिए तो कहा गया है, 'बोली एक अमोल है, जो कोई बोलै जानि । हिए तराजू तौलिके तब मुख बाहर आनि ।' अगर आप यह मौका चूक गए तो न जाने आपको अगली बार गिरे हुए में लात मारने के लिए कब तक इंतजार करना पड़े । और मौका अगर मिल भी जाय तो हो सकता है, गिरने वाला लात खाने के लिए सुपात्र न हो । आजकल व्यस्तताएं भी इतनी बढ़ गयी हैं कि हर ऐरे-गैरे में लात मारने के लिए आजकल समय भी कहाँ बचा है ।

पर गिरने वाला भी सब समझ रहा होता है । मन में कहेगा, " अरे मूर्ख, तुझे दिखाई नहीं देता ? गिर ही तो गया हूँ । अन्धा कहीं का । " लेकिन प्रकट में घटना के कारण गिनाने लग जाएगा । कहेगा कि, "इन PWD वालों को तो चौराहे पर खड़े करके गोली मार देनी चाहिए । भृष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं । पता नहीं सड़क बनाते हैं या युद्ध की मोर्चाबंदी करते हैं । " फिर आपके पास इस बहस में उलझने के सिवाय कोई चारा न होगा । "

आजकल हमारे देश में एक पार्टी गिर गयी है । अपने प्रधानमंत्री जी, वैसे तो ऐसे नहीं लगते, लेकिन यह सुनहरा मौका उनसे न छोड़ा गया । बयान दे दिया कि, "मुख्य विपक्षी पार्टी का यह हाल होना अच्छी बात नहीं ।" यह तो सभी जानते हैं कि यह अच्छी बात नहीं । पर जब बड़े लोग मौज लेने पर उतर आये हैं तो मौज लेने से उन्हें कौन रोके ?

कुछ आदतन मौज लेने वाले लोगों को हालांकि मौज लेने के लिए 'उतर आये' शब्द का प्रयोग करने पर आपत्ति हो सकती है । हो सकता है उनकी नज़र में इसके लिए 'चढ़ गये' शब्द अधिक उपयुक्त हो । उन्हें आपत्ति दर्ज़ कराने की पूरी आजादी है । लेकिन इसमें 'चढ़ गये' कहने में हमें लगा कि कोई यह न समझ ले कि 'चढ़ गयी' होगी इसलिए चढ़ गए होंगे ।

लो उधर से जबाब भी आ गया तो सुनते( पढ़ते) जाइये । वेटिंग इन, वेटिंग इन, वेटिंग इन,.............∞ जी ने कहा है कि प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के बारे में सोचें । जबाब तो ठीक ही ठाक है पर मज़ा नहीं आया । भई प्रधानमंत्री तो पूरे देश की चिन्ता करते हैं तो भारतीय जनता पार्टी कोई देश से बाहर थोड़े ही है । ऐसे में दो ठो लात इस गिरी हुई पार्टी में लगा दीं तो क्या गज़ब हो गया ?

रविवार, अगस्त 30, 2009

जरूरी है सड़क पर आना

एक आदमी को सड़क के किनारे मल-त्याग करने की आदत थी । यह कोई बहुत अनहोनी बात नहीं । ऐसा अक्सर हो जाता है । पर तथाकथित सभ्य लोग इस दृश्य से आँखें बचाकर निकलने के सिवा करें भी तो क्या ?

लेकिन एक स्वयंभू समाज सुधारक से यह देखा नहीं जाता था । एक दिन उन्होंने चलते-चलते बोल ही दिया, " भाई क्यों सड़क को गंदा करते हो ? आखिर साफ-सफाई भी तो कोई चीज है । "

इस पर पप्पू भड़क गया । उसे लगा उसके आत्मसम्मान पर प्रहार किया गया है । बोला, "मल-त्याग करना मेरा निजी मामला है । आपको इसमें टाँग अड़ाने की आवश्यकता नहीं । वह भी तब जब आस-पास खेतों में और भी लोग सुन रहे हों । आपने सीधे-सीधे मेरे आत्मसम्मान को आहत किया है । क्या जिसके घर में टॉयलेट न हो उसको मल-त्याग करने का अधिकार नहीं ? आप साफ-सफाई की बात किसी और को सिखाना । मैं अस्पताल में सफाई कर्मचारी हूँ । "

इस पर खेतों में काम कर रहे कुछ मौजी टाइप लोग शोर सुन कर घटना स्थल पर आ गए । उनके लिए कदाचित मौज लेने का इससे अच्छा अवसर कई साल में एक बार आता होगा । मौज लेते हुए बोले, " हाँ भाई सही तो कह रहे हो । जरूरी है सड़क पर आना । चाहे मल-त्याग करने के लिए आया जाय या फिर टहलने के लिए । इन बुजुर्ग लोगों की तो आदत ही होती है टोकाटोकी करने की । आप नित्य सड़क पर आते रहें । जो होगा देखा जायेगा ।"

इतने में मौज लेने वाले और भी लोग आ गये । एक साहब बोले, " अच्छा ? आप अस्पताल में हो ? हमने कभी देखा नहीं आपको उधर । पर वहाँ की गंदगी देखकर आपकी बात की पुष्टि अवश्य होती है । "

एक आवाज आयी, " एक तो चोरी ऊपर से सीना-जोरी ! अब तो घोर कलयुग आ गया जी । शिव शिव । "
जितने मुँह उतनी बातें होने लगीं ।

अब पप्पू बोला, " आप लोग यह न समझें कि मेरे घर में टॉयलेट नहीं । मैं तो उन लोगों के समर्थन में यहाँ मल-त्याग करता हूँ जो अपने घर में टॉयलेट नहीं बनवा सकते । क्या गरीब लोगों का समर्थन करना कोई गलत बात है ?" पप्पू ने बात को घुमाव देने की पूरी कोशिश की ।

इतने में वहाँ एक रैली के बराबर भीड़ जमा हो चुकी थी । प्रयाग तक के विद्वान आ गए थे, बहस का निर्णय करने । किसी ने पूछा, " भाई क्या हुआ ?" बस प्रश्न करने की देर थी । उत्तर देने वाले तो पहले से ही लालायित थे कि कोई पूछे तो हम बताएँ । एक शरारती तुरंत सबके सामने घटना की पुनरावृत्ति करके बताने लगा । उसे जैसे-तैसे शांत किया गया ।
जिस शरारती को वहाँ बताने का मौका न मिला उसने चौपाल पर जाकर इसे करके दिखाया । उसे सराहना भी मिली ।

दूसरे दिन सुबह-सुबह पप्पू को कान पर जनेऊ लटकाकर लोटा लिए खेतों की ओर जाते देखा गया । होठों पर मंद मंद मुस्कान तैर रही थी ।

शुक्रवार, अगस्त 28, 2009

अथ् श्री जिन्ना रहस्यम् - वे ऐसे क्यों थे ?

( Muhammad Ali Jinnah )

बहती गंगा में हाथ धोने का मुहावरा किसने नहीं सुना होगा ? न केवल सुना होगा बल्कि अधिकांश लोगों ने कभी न कभी बहती गंगा में अवश्य ही हाथ धोए भी होंगे । इसी तर्ज पर आज हम भी बहती गंगा में हाथ धोते हुए मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में टूटे फूटे शब्दों में कुछ लिखने का निर्णय कर चुके हैं, ताकि थोड़ा सा लोकप्रियता रूपी गंगाजल हमारे पल्ले भी पड़ सके . क्या पता इस लेख से दिन पर दिन निर्जीवता की ओर बढ़ रहे इस ब्लॉग को संजीवनी मिल जाए ।

कुछ लोग कह सकते हैं कि जिन्ना पर लिखना लोकप्रियता का नहीं बदनामी का कारण हो सकता है । लोकप्रियता और बदनामी में अन्तर ही कितना है ? यह तो केवल दृष्टिकोण का भेद है । तो आइए आरम्भ करते हैं :

अथ् श्री जिन्ना रहस्यम्


अंग्रेजों के जमाने में आधुनिक गुजरात प्रान्त तत्कालीन बम्बई प्रेसीडेन्सी का ही एक भाग था । यहीं काठियावाड़ के गोंदल क्षेत्र में पनेली नामक गाँव था । इस गाँव में भाटिया जाति के राजपूत हिन्दुओं की अधिकता थी । गावों में मुसलमानों के पीर बाबाओं और सूफी संतों में हिन्दुओं की श्रद्धा हो जाना कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं होती । ऐसा अक्सर हो जाता है । पनेली गाँव के भाटिया लोगों के साथ भी यही हुआ । इनकी श्रद्धा किसी मुस्लिम पीर में हो गयी ।

धीरे-धीरे कालान्तर में इस समुदाय पर मुस्लिम रीति-रिवाजों का रंग चढ़ने लगा । अपने को शुद्ध हिन्दू मानने वाले ब्राह्मणों ने इनसे दूरी बनाना शुरू कर दिया । यहाँ तक कि इनके यहाँ शादी-विवाहों में भी मन्त्रोच्चारण के लिए ब्राह्मणों ने आना बन्द कर दिया । अब यह समुदाय एक कबीले की तरह हो गया और हिन्दू समाज से इसका सम्पर्क टूट गया ।

इस समुदाय के कुछ शिक्षित लोगों ने अपनी जड़ों से जुड़ने का प्रयास करते हुए, ब्राह्मणों से अपनी शुद्धि की गुजारिश की । किन्तु ब्राह्मणों ने इन्हें हिन्दू मानने से साफ इनकार कर दिया । इससे निराश होकर इस समुदाय ने मुस्लिम धर्म अपनाने का निश्चय किया और हिन्दू धर्म के प्रति इनके मन में क्रोध का भाव गहरे बैठ गया । इसी क्रोध में और मुस्लिम बनने के जोश में इन्होंने हिन्दू धर्म के सभी अवशेषों को चुन चुनकर मिटा दिया । नामकरण, विवाह आदि, सभी के मुस्लिम तरीकों को पूरी तरह अपना लिया गया ।

मुहम्मद अली जिन्ना के दादा श्री पूँजा गोकुलदास मेघ जी पनेली गाँव में ही रहे । किन्तु इनके पिता श्री जिन्नाभाई पूँजा, जो एक धनाढ्य व्यापारी थे, गाँव छोड़कर सिन्ध में जाकर बस गए थे । जिन्ना की माता का नाम श्रीमती मीठीबाई था ।

कहते हैं कि बालक पर उसके जन्म के समय के वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ता है । जिन्ना के जन्म के समय इनके परिवार में हिन्दुओं के प्रति एक द्वेष की भावना पल रही थी । इसका प्रभाव बालक जिन्ना पर पड़ना स्वाभाविक था ।

रही बात जिन्ना के सेक्युलर होने या न होने की तो आपको बता दें कि सेक्युलर बहुत कठिन शब्द है । किसी के सेक्युलर होने से सामान्यतया धर्म निरपेक्ष होने का अर्थ निकाला जाता है । इस अर्थ में जिन्ना बेशक धर्म निरपेक्ष थे । यदि उन्हें इस्लाम धर्म के तराजू पर तौला जाता तो वे खोखले ही साबित होते ।

वे एक महत्वाकांक्षी नेता थे जिसने केवल धर्म का उपयोग भर किया ।

कट्टर हिन्दू नेता यदि जिन्ना को सेक्युलर कहते हैं तो इससे यही समझ में आता है कि यह एक लम्बी सुविचारित रणनीति का हिस्सा है । जो कई चरणों में पूरी होने वाली है ।

पहले चरण में जिन्ना को सेक्युलर साबित किया जाएगा । अभी कुछ लोग इसे जिन्ना का सम्मान समझ रहे हैं । लेकिन जो लोग जिन्ना को सेक्युलर कह रहे हैं वे इसे जिन्ना का सम्मान करना नहीं मानते ।

दूसरे चरण में यह साबित किया जाएगा कि सेक्युलर होना बुरी बात है । सेक्युलर लोगों ने ही भारत का विभाजन कराया था । कालान्तर में सेक्युलर शब्द को एक गाली की तरह उपयोग करने की योजना है । जब किसी नेता को अपनानित करना होगा तो कहा जाएगा, " चल बे ! सेक्युलर कहीं का ।"

अभी इस रणनीति के दो ही चरणों का खुलासा हम कर सकते हैं । ऊपर से ऐसे ही आदेश हैं । बाकी के चरण भी धीरे-धीरे आपकी जानकारी में आते रहेंगे ।

आजकल जिसे देखिए सेक्युलर होने का तमगा लटकाए घूम रहा है । छोटे से छोटा नेता भी सेक्युलर है । लेकिन इसके बाद देश में कुछ साहसी नेता ही स्वयं को सेक्युलर कहलाने की हिम्मत कर सकेंगे ।

जब सेक्युलर कहलाने में नेताओं को शर्म आने लगेगी तभी तो आयेगा मजा राजनीति के खेल का ।

शनिवार, अगस्त 22, 2009

बीड़ी पीने के लिए ब्रेक

जब से हनुमान जी की पुस्तक का विमोचन हुआ है और राम-सेना से उनका तथाकथित निष्कासन हुआ है तब से नेपथ्य से कभी हनुमान तो कभी रावण जैसी ध्वनियों से वातावरण गुंजायमान है । ऐसा महसूस हो रहा है जैसे हम रामलीला देख रहे हों ।

हमने जिज्ञासावश अपने सूत्रों को पूछ लिया तो सूत्रों ने अपने सूत्रों से पूछकर बताया कि इसमें रहस्यमय कुछ है ही नहीं । चूँकि दशहरा आने वाला है इसलिए वास्तव में यह रामलीला की रिहर्सल ही चल रही है । चिन्ता न करें ।

चुनाव रूपी लंका-युद्ध में कुछ समय पूर्व रावण के पुत्र मेघनाद ने इन वेटिंग लक्ष्मण को क्लोरोफॉर्म सुँघाकर मूर्छित कर दिया था । रामों का संघ विलाप करने बैठ गया तो हनुमान जी संजीवनी बूटी ढूँढ़ने हिमालय की ओर निकल गये थे । हिमालय पहुँचकर उन्हें जब काफी सोचने पर भी बूटी की पहचान न हो सकी तो वे पूरी किताब ही उठा लाये ।

किताब लेकर हनुमान जी अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे थे तो ठाकुर भरतनाथ के जासूसों ने उन्हें अयोध्या की ओर आने वाले संकट की सूचना दी । भरत जी ने अपने जासूसों की बात को प्रमाण मानकर बिना किताब पढ़े ही हनुमान जी को वाण से नीचे गिरा लिया । दरअसल किताब हिन्दी में लिखे होने की वजह से भरत जी के पल्ले नहीं पड़ी थी । वे तो अब तक संस्कृत ही पढ़ते आये थे । हिन्दी देखकर चौंक गये । बोले ,"यह किसने संस्कृत के विसर्ग और हलन्त उड़ा दिये । यह क्या मजाक है ?"

हनुमान जी गिरकर चिन्तिति हुए कि अब लक्ष्मण जी को कैसे मूर्छा से बाहर निकाला जा सकेगा ?

अभी सीन यहीं अटका हुआ है । बीड़ी पीने का ब्रेक हो गया है ।

वैधानिक चेतावनी : बीड़ी पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है ।

आप सोच रहे होंगे कि यह चेतावनी सुन सुनकर तो कान पक गए कोई नई चेतावनी सुनाई जाय । तो सुनिये :

यह तो आप जानते ही होंगे कि बीड़ी पीने से धुआँ निकलता है जिसमें कार्बन डाई ऑक्साइड गैस निवास करती है . ग्लोबल वार्मिंग इस गैस की लंगोटिया यार है . आप यदि यह न जानते हों तो मान लें कि ऐसा है । और भी जो जो आप न जानते हों, मानते चलें । आप यह भी जानते होंगे कि धरती अपनी कीली पर 23.5 डिग्री झुककर सूरज की परिक्रमा करती रहती है । चूँकि धरती हमारी माता है इसलिए हम नहीं चाहते कि इसे झुकना पड़े । लेकिन वैज्ञानिकों ने हमारे माथे पर चिन्ता की लकीरें खींच दी हैं । लिहाजा हमें चिन्ता हो गई है । दरअसल वैज्ञानिकों ने बताया है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग पर लगाम नहीं कसी गयी तो पृथ्वी अपनी धुरी पर और भी ज्यादा झुक सकती है ।

इस समाचार से कुछ बिगड़ैल बच्चों ने ज्यादा बीड़ी पीना शुरू कर दिया है । उनका कहना है कि धरती को झुकाते झुकाते 90 डिग्री तक ले जाना है ताकि इससे पैदा होने वाली स्थिति का आनंद लिया जा सके । ये वही बच्चे हैं जो गाते फिरते हैं कि, "धीरे-धीरे प्यार को बढ़ाना है, हद से गुजर जाना है ।" यदि धरती 90 अंश झुक गयी तो कर्क रेखा और मकर रेखा को अपना खो देना पड़ेगा । उस स्थिति में शायद सूरज हमें सुदूर दक्षिण से सुदूर उत्तर तक जाता दिखाई देगा ।

जो देश अभी ठण्डे हैं वे भी गर्म हो लेंगे । धरती पर ऊर्जा का समान वितरण होगा । गोरे काले का भेद मिट जाएगा क्योंकि गोरे लोगों को भी कड़ी धूप में रहना होगा ।

हमने अभी यहीं तक सोचा है बाकी फिर सोंचेगे । कोई जबरदस्ती है क्या ?

गुरुवार, अगस्त 20, 2009

आपका स्टेमिना कमाल


आपका स्टेमिना कमाल ।
मचाते रहिये सदा धमाल ॥
हिन्दी ब्लॉगिंग केन्द्र-बिन्दु हो ।
अजी आप तो मौज सिन्धु हो ॥
गलती रहे आपकी दाल ।
आपका स्टेमिना कमाल ॥
पाँच साल से लगे हुए हो ।
किस खूँटी से टँगे हुए हो ?
लटके कैसे इतने साल ?
आपका स्टेमिना कमाल ॥
यूँ तो चर्चाकार कई हैं ।
किन्तु सदा उपलब्ध नहीं हैं ॥
आप सेवा देते तत्काल ।
आपका स्टेमिना कमाल ॥
नए बिम्ब की तलाश करते ।
टाँग खींचकर तुरत मुकरते ॥
किसी से नहीं ठोंकते ताल ।
आपका स्टेमिना कमाल ॥
टंकी पर जब लोग पधारें ।
समझाकर तब आप उतारें ॥
फ़ैलता रहे आपका जाल ।
आपका स्टेमिना कमाल ॥
किन्तु आजकल कम ही दिखते ॥
कृपया रोज बजाएं गाल ।
आपका स्टेमिना कमाल ॥
मचाते रहिये सदा धमाल !
आपका स्टेमिना कमाल !

बुधवार, अगस्त 19, 2009

ठेला-ठेली में समाज का आईना

ब्लॉग-जगत को लोग अक्सर आभासी विश्व की संज्ञा देते हैं । पर इस आभासी विश्व में वास्तविक विश्व के कमोवेश सभी तत्व मौजूद हैं । आइये देखते हैं कैसा है हमारा आभासी विश्व !

ब्लॉग-जगत में जब किसी नये चिट्ठाकार का आगमन होता है तो कुछ लोग जो बधाई गाने के लिए पहले से ही तैयार बैठे रहते हैं जाकर बधाई गा आते हैं . जैसे बच्चा पैदा होते ही दूसरी दुनिया के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता और अपनी ही धुन में रोता रहता है, वैसे ही नया ब्लॉगर ब्लॉग-जगत की रैरै-खैंखैं से अनजान अपनी ही धुन में मस्त पोस्ट लिख-लिखकर ठेलता रहता है . लेकिन उड़न तश्तरी की पहली टिप्पणी मिलते ही उसके टिप्पणी के मायाजाल में उलझने की शुरूआत हो जाती है . और इस मायाजाल में एकबार फँसने के बाद कुछ भाग्यशाली ब्लॉगर ही इससे बाहर निकलने में कामयाब हो पाते हैं, जिन पर ईश्वर की असीम कृपा होती है .

जैसे सभी मनुष्यों का स्वभाव अलग-अलग होता है वैसे ही सभी ब्लॉगरों का स्वभाव भी एक जैसा नहीं होता . कुछ सुस्त टाइप के ब्लॉगर कुम्भकर्ण की भाँति सोते रहते हैं . कभी-कभार जागते हैं तो एक ठो पोस्ट ठेलकर फिर से सो जाते हैं . ऐसे आलसी ब्लॉगरजन एक पोस्ट ठेलने से ही बुरी तरह ठिलावट के शिकार हो जाते हैं . इनके परिचित लोग जब इनसे सुस्ती का कारण पूछते हैं तो इनका जवाब होता है," भाई, पिछले हफ्ते जनता की भारी डिमाण्ड पर एक पोस्ट ठेलनी पड़ गयी . अब तक अंग-अंग दुख रहा है . "

कुछ ब्लॉगर गाँव के उस बिगड़ैल बच्चे के समान होते हैं जो खेल में कभी पूरे मन से शामिल नहीं होता है, वह खेलते हुए भी किसी अवसर की ताक में रहता है . जैसे ही अवसर हाथ लगता है वह खेल का कोई सामान लेकर या किसी साथी को घूँसा मारकर भाग जाता है . ऐसे ब्लॉगरों की पोस्ट आती है और किसी न किसी साथी ब्लॉगर की शान्ति भंग कर जाती है . बाद में खूब लकीर पीटी जाती है , हाय तौबा मचती है लेकिन इनका कहीं अता-पता नहीं होता . भूमिगत हो चुके होते हैं .

कुछ संजीदा टाइप ब्लॉगर जिनके कंधों पर ब्लॉग-जगत की सारी चिंताओं का भार रखा रहता है, हमेशा गंभीर मुद्रा का लबादा ओढ़े रहते हैं . अगर इनको कहीं हँसी-मजाक होता दिख जाए तो ये फौरन हा हा-ठी ठी का झूठा केस बना देते हैं . हँसने मुस्कराने वाले लोगों से इन्हें सख्त नफरत होती है . ऐसे लोगों को देखते ही इनके तन-बदन में वैसे ही आग लग जाती है जैसे राम जी के हाथों शिव जी का धनुष टूट जाने पर मुनि परशुराम के शरीर में लग गई थी .

कुछ ब्लॉगर दुकानदार टाइप होते हैं . ये किसी को भी नाराज किये बिना जैसे-तैसे अपनी दुकान चलाने में विश्वास रखते हैं . इनके चेहरे पर ऊपरी तौर पर तो हमेशा हल्की हल्की बनावटी मुस्कराहट खेलती रहती है . लेकिन मन में हमेशा चिन्ता लगी रहती है कि कहीं ऐसा न हो कि कोई भाई टाइप ब्लॉगर आकर दुकान पर बखेड़ा खड़ा कर दे . इनका यह भय सर्वथा निर्मूल नहीं होता . ब्लॉग-जगत में ऐसे भाई ब्लॉगर भी मौजूद हैं जिनका काम मौज लेने के नाम पर ऐसे दुकानदार टाइप ब्लॉगरों को दौड़ाने का होता है . यदि भाई ब्लॉगर इन्हें कभी दौड़ा ले तो ये चुपचाप बिना गलती पूछे माफी माँगने में ही अपनी भलाई समझते हैं और आगे से बिना माँगे ही टाइम-टू-टाइम हफ्ता भाई ब्लॉगर के ब्लॉग पर उचित मात्रा में तारीफों के रूप में पहुँचाते रहते हैं . ताकि दुकान चलती रहे . ये यदा-कदा भाई के नाम पर पोस्ट ठेलकर भी भाई को संतुष्ट रखने के लिए प्रयासरत रहते हैं .

भाई भी किसी न किसी बहाने इनसे ज्यादा मौज लेने से बचते रहते हैं ताकि हफ्ता मिलता रहे . आखिर वे भी आपनी पोल नहीं खुलवाना चाहते क्योंकि रुस्तम का भय जो काम कर सकता है वह काम रुस्तम नहीं कर सकता .

कुछ बुजुर्ग टाइप ब्लॉगर बात बात पर अपने बुजुर्ग होने की दुहाई देते नहीं थकते . ये लोग सठियाई हुई बातें करके अपने अनुभव का हवाला देकर अन्य ब्लॉगरों की सहमति प्राप्त करना चाहते हैं . जैसे वास्तविक विश्व में बूढ़े लोग बच्चों को "हमारे जमाने में- हमारे जमाने में" बोल बोलकर उलझाए रहते हैं वैसे ही इनकी भी आदत होती है । इसी तर्ज़ पर चंद महिला ब्लॉगर हर बात को अपने महिला होने से जोड़ने के लिए प्रयासरत रहते हैं । भगवान जाने ये वास्तव में महिला हैं भी कि नहीं ।

कुछ ब्लॉगर हीरो बनने की छटपटाहट में उल्टे सीधे कार्य करते रहते हैं . इसी श्रंखला में कभी-कभी कोई न कोई इन्हें हड़काता रहता है . फिर ये टंकी पर चढ़कर नौटंकी करते हैं किन्तु टिप्पणियों की याद आते ही नीचे आ जाते हैं .

टिप्पणी का मोह छोड़ पाना कुछ संन्यासी टाइप ब्लॉगरों के ही वश में होता है . अन्यथा ब्लॉग-जगत में टिप्पणी की तुलना लक्ष्मी जी से की गई है . इसके लिए ब्लॉगरजन एडवांस में ही धन्यवाद आदि देते देखे जाते हैं . जैसे वास्तविक जगत में लोग लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं वैसे ही यहाँ ब्लॉगर टिप्पणी कमाने की फिक्र में लगे रहते हैं . जैसे पैसे से पैसा कमाया जाता है वैसे ही टिप्पणी से टिप्पणी कमाने का प्रचलन है .

कुछ लोग इस माया के प्रति इतने उदासीन हो जाते हैं कि कि ठेलने की गोली खा खाकर पोस्ट ठेलने में लगे रहते हैं . पोस्ट ठेलने में ये अपने को इतना व्यस्त कर लेते हैं कि टिप्पणी क्या है यही भूल जाते हैं . यह ऐसा ही है जैसे कोई संन्यासी मायामोह को भूलने के लिए भाँग पीने लगे .

कुछ सच्चे संन्यासी ब्लॉगर होते हैं जो बिना ब्लॉग लिखे ही केवल टिप्पणी बाँटते रहते हैं . ये माया के सम्पर्क में रहकर भी माया से दूर होते हैं .

हालांकि यहाँ किसी के अस्तित्व को पूरी तरह प्रमाणित नहीं किया जा सकता, फिर भी जिन ब्लॉगरों ने अपने बारे में बताते हुए संज्ञा शब्दों के स्थान पर सर्वनाम शब्दों का प्रयोग किया होता है उन्हें पहचान छिपाने वाला बताकर उपहास किया जाता है । ऐसे ब्लॉगरों को कुछ लोग हेय दृष्टि से देखते पाये गये हैं ।

सारी बातें अभी लिख देंगे तो बाद के लिए कुछ न बचेगा इसलिए अब यहीं विराम देते हैं । जय ब्लॉग-जगत !

मंगलवार, अगस्त 18, 2009

आप किस ताक में हैं ?

आजकल हमें सबसे अधिक जिस बात की चिन्ता खाए जा रही है वह यह है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग पर अंकुश न लग सका तो क्या होगा ?

सोचते हैं तो प्रलय की कल्पना करके ही दिल दहल जाता है । शास्त्रों में धरती के रसातल में चले जाने की जो बातें लिखी हैं उनका इशारा कदाचित इसी ओर होगा ।

कमजोर दिल वाले लोग तो अभी तक के परिणामों से ही घबराए हुए हैं । तापमान बढ़ने के साथ-साथ लोगों द्वारा कम कपड़े पहने जाना कोई बड़ी बात नहीं पर कुछ दकियानूसी तत्व इसे बड़ा इश्यू बनाने की फ़िराक में रहते हैं । दरअसल इस सबके पीछे वस्त्र-निर्माता कम्पनियों की साजिश नज़र आती है ।

प्रचार किया जाता है कि आधुनिक युवक-युवतियों द्वारा कम कपड़े पहने जाने का कारण उनमें शर्म का अभाव है । जबकि शर्म का कपड़ों के साथ दूर का रिश्ता भी नहीं मिलता । शर्म तो आँखों में रहती है , इसका कपड़ों से भला क्या लेना देना ?

जब आँखों में शर्म न मिले तो समझ लेना चाहिये कि शरीर में शर्म की मात्रा आवश्यक स्तर से नीचे है । इस स्थिति में शर्म की किसी विशेषज्ञ से जाँच करवाना जरूरी होता है । एक-एककर सभी अंगों की तलाशी ली जाती है और शर्म की उपस्थित मात्रा का अनुमान लगा लिया जाता है । यदि शर्म किसी भी अंग में न मिले तो बालों में अवश्य मिल जाती है । यदि बाल में भी न मिले ऐसे व्यक्ति को बेशर्म की उपाधि से विभूषित करने योग्य समझना चाहिये ।

कुछ लोगों में शर्म का स्तर धीरे-धीरे गिरते हुए शून्य हो जाता है । जबकि कुछ पर्याप्त शर्मदार लोग आवश्यकतानुसार इसे अस्थायी रूप से खूँटी पर टाँग देते हैं । इनका मूल-मन्त्र होता है कि,

" जिसने करी शर्म, उसके फूटे कर्म । "

इसलिए ये महाशय कर्म को फूटने से बचाने के लिए शर्म को खूँटी पर टाँग देते हैं । और जब जरूरत महसूस होती है इसे खूँटी से उतारकर अवसर के मुताबिक आँखों में रखने की बजाय ऊपर से ओढ़ लेते हैं । इससे ये पूरे ही शर्ममय दिखलाई पड़ते हैं । ध्यान रहे कर्म बड़ा ही भंगुर पदार्थ होता है । यह फूटने के लिए प्रसिद्ध है ।

जैसे शर्म आँखों में रहती है वैसे ही अक्ल का निवास स्थान दिमाग में बताया जाता है ।कभी औचक दौरा करने पर यदि अक्ल दिमाग में न भी मिले तो तुरंत यही नहीं समझ लेना चाहिये कि व्यक्ति में अक्ल का स्थायी रूप से अभाव है । कभी कभी अक्ल होते हुए भी अस्थायी रूप से घास चरने चली जाती है । दिमाग में यदि अक्ल नहीं है तो अधिकतर मामलों में इस रिक्त स्थान की पूर्ति भूसे द्वारा की जाती है । बिरले व्यक्तियों के दिमाग में भूसे के स्थान पर गोबर भी भरा हुआ पाया जा सकता है । ऐसा शायद उस स्थिति में होता होगा जब अक्ल को घास चरने की लत लग गयी हो और वह घास को गोबर में बदलकर दिमाग में भरती रहे । ऐसा होने पर यदि व्यक्ति के दिमाग की बिल्डिंग में ताजी हवा आने-जाने का रास्ता न हो तो अक्ल गोबर से निकली मीथेन गैस से घुटकर अक्सर मर जाया करती है , और गोबर ही शेष रहता है ।

अक्ल अगर घास चरने न जाती हो तो दिमाग में कुछ मात्रा में उपस्थित भूसे की को खाने के कारण भी उपरोक्त स्थिति आ सकती है । अक्ल के ऐसा व्यवहार करने से इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि अक्ल भैं के समान है । शायद इसीलिए पूछा जाता है कि, "अक्ल बड़ी या भैंस ?" ऐसा उलझाऊ प्रश्न प्रतियोगियों को उलझाने के लिये ही द्विविकल्पीय बनाकर पूछा जाता है जबकि इसका सही उत्तर इन दोनों में से कोई नहीं होता क्योंकि भैंस अक्ल के समान होती है । न बड़ी न छोटी ।

यदि दिमाग खाली मिले तो उसे शैतान का घर समझ लेना चाहिए ।

कुछ अतिविरले व्यक्तियों में दिमाग की अवधारणा ही नहीं पायी जाती । ऐसे लोगों में प्रथम दृष्टया ही अक्ल का अभाव नहीं समझ लेना चाहिए । दिमाग न होने की स्थिति में कभी-कभी अक्ल घुटनों में भी पायी गयी है ।

इसी प्रकार बात को कान में डाला जाता है और कहा जाता है कि उसे ध्यान में रखा जाय । सामान्यत: ध्यान और जुबान का कोई कोई सम्बन्ध दिखाई नहीं देता क्योंकि ध्यान के समय जुबान शान्त ही रहती है । किन्तु आश्चर्यजनक रूप से जिस बात को कान में डालकर ध्यान में रखा गया था वह हमेशा जुबान से ही निकलती पायी जाती है । बात को ध्यान में रख पाना तभी संभव है जब उसे एक कान से डालते समय दूसरे कान से न निकलने दिया जाय । बात की यह प्रवृत्ति होती है कि वह कान, ध्यान, और जुबान से गुजरने की प्रक्रिया में अपना मूल स्वरूप प्राय: कायम नहीं रख पाती ।

दया का निवास हृदय में होता है और गम को खाकर पेट में रखने की सलाह दी जाती है । गुस्सैल व्यक्ति का गुस्सा हमेशा उसकी नाक पर ही रखा रहता है । गुस्सैल व्यक्ति सब नियम-कानूनों को ताक पर रख देता है । ताक पर काफी सामान रखा होने के कारण इससे कुछ भंगुर चीजें गिरकर टूट भी जातीं हैं । उन्ही में से एक चीज कानून है । कानून को ताक पर रखने से कानून गिरकर टूट सकता है । पर होनी को कौन टाल सकता है ? कानून ताक पर रखा और गिरकर टूटा । ऐसे में व्यक्ति रामचरितमानस की उस चौपाई को ही याद करता है जिसमें कहा गया है :

छुअत टूट रघुपतिहि न दोषू, मुनि बिनु काज करिअ कत रोषू ।

आजकल लोग घरों में जब अलमारियाँ तक नहीं बनवाते तो भला ताक क्या खाकर बनवायेंगे ? और बनवाएं भी क्यों आजकल दीपक रखने के लिए ताक की जरूरत ज्यादा इसलिए नहीं पड़ती कि बिजली सब जगह पहुँच गई है । जब दीपक ही नहीं तो भला ताक का क्या काम ? कुछ पुरानी ताक बची हुई हैं । और इधर ताक पर रखी जाने वाली चीजों की मारा बढ़ रही है । अब तो जो चीज पसंद न आए तुरंत ताक पर रख दी जाती है । सहनशीलता तो जैसे लोगों को छू तक नहीं गई .

कुछ प्राणी ताक में रहते भी हैं । वे इसका उपयोग ठीक ऐसे ही करते हैं जैसे सीमा पर मौजूद सैनिक मोर्चे का इस्तेमाल करता है । वे हमेशा किसी न किसी अवसर की ताक में रहते हैं और अवसर सामने आते ही उस पर टूट पड़ते हैं । जो लोग अवसर न मिलने का रोना रोते रहते हैं । उन्हें अवसर की ताक में रहना चाहिये ।

कुछ लोगों को ताक में रहने को बोला गया तो मिसकन्फ्यूजन के कारण वे ताक में रहने की बजाय आने-जाने वालों/वालियों को ताकने लगे । इस ताकाझाँकी से तकरार बढ़ गयी । और शान्त को ताक पर रखकर कलह का आगमन हुआ । कुछ ही देर में लोग एक दूसरे पर तक तककर पत्थर फेंक रहे थे ।

अत: प्यारे भाइयो ताक में रहना लेकिन ताकना मत !

सोमवार, अगस्त 17, 2009

घास खोदना विज्ञान है अथवा कला ?


जब कोई कार्य जल्दबाजी में उल्टा-सीधा कर दिया जाता है तो उसकी तुलना घास खोदने से की जाती है । लेकिन घास खोदना कोई साधारण काम नहीं जो हर कोई यूँ ही कर सके । यदि घास खोदने वाला इस फील्ड में नया है तो खुरपी घास की जड़ में न लगकर उस हाथ की उँगलियों को घायल कर सकती है जिससे घास को पकड़ा गया है । ऐसे में घास की बजाय उँगलियों की खुदाई होने से लेने के देने पड़ सकते हैं ।

घास खोदने से पूर्व कई बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है । घास खोदने में खुरपी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है । इसलिए सबसे पहले घर पर ही, प्रयोग की जाने वाली खुरपी की जाँच भली भाँति कर लेनी चाहिए ताकि बाद में पछताना न पड़े । खुरपी पर्याप्त पैनी हो, अगर हो सके तो घास का नमूना लेकर खुरपी से काटकर उसके पैनेपन की जाँच की जा सकती है । ध्यान रहे ऐसा करते समय खुरपी को अपने दायें हाथ से और घास को बायें हाथ से पकड़ें ( खब्बू लोग उल्टा समझें ) । यदि आपने खुरपी पहली बार ही देखी है तो बेहतर यही होगा कि किसी अनुभवी व्यक्ति से इसकी जानकारी ले ली जाय । खुरपी हत्थे पर अच्छी तरह कसी हो, यदि यह हत्थे पर ढीली होगी तो घास खोदते समय इस पर नियन्त्रण कर पाना उतना ही कठिन होगा । "खुरपी के नियन्त्रण में होने वाली कठिनाई हत्थे पर इसके ढीलेपन के समानुपाती होती है । " इसे खुरपी विषयक प्रथम नियम भी कहा जाता है ।

जब खुरपी की ओर से संतुष्ट हो लें तो उस स्थान की ओर प्रस्थान करें जहाँ घास खोदी जानी है । यहाँ पहुँचकर यूँ ही घास खोदने नहीं लग जाना है । कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व कई महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना आवश्यक है । सबसे महत्वपूर्ण मिट्टी की स्थिति होती है । यदि मिट्टी गीली है तो घास खोदने में आसानी रहेगी । " घास खोदने में होने वाली आसानी मिट्टी के गीलेपन और खुरपी के पैनेपन के समानुपाती होती है । " इसे खुरपी विषयक द्वितीय नियम भी कहा जाता है । यदि घास जमीन को जमीन को साफ करने के उद्देश्य से खोदी जा रही है तो मिट्टी का गीला होना अधिक लाभदायक होता है । किन्तु यदि घास खोदने का उद्देश्य भैंस आदि के लिये चारे की व्यवस्था करना है तो मिट्टी गीली न हो । ऐसे में खुरपी के पैनेपन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है ताकि घास के साथ मिट्टी न आये । यद्यपि इस प्रक्रिया में घास को खोदने की बजाय काटा जाता है तथापि यह शास्त्रों में इसका वर्णन घास खोदने के रूप में किया गया है ।


घास खोदने की ही एक विशेष परिस्थिति निराई होती है । इसमें किसी फसल विशेष में से घास को ऐसे ही निकाला जाता है जैसे खास आदमियों की सभा से आम आदमी को छाँट छाँटकर बाहर कर दिया जाता है ।

जब सारी बातों से अच्छी तरह परिचित हो जाएं तो घास खोदने का कार्य प्रभु का नाम लेकर आरम्भ किया जा सकता है । यदि घास खोदते समय असावधानीवश उँगली कट जाय तो घास को मुँह में अच्छी तरह चबाकर इसे घाव पर लगायें, तुरंत लाभ होगा । इसके बाद यदि आवश्यक लगे तो डॉक्टर से सम्पर्क करें ।

घास खोदते समय पसीना निकलता है । इस पसीने को चेहरे से न हटाया गया तो यह नमकीन पानी आँख में जाकर नुकसान पहुँचा सकता है । इससे बचने लिये चेहरे से पसीने को कोहनी से पोंछते रहना चाहिये । चेहरे से पसीना पोंछने के लिए गंदे हाथों का प्रयोग कदापि न करें ।


घास के बारे में हमारे समाज में कई मुहावरे और लोकोक्तियाँ प्रचलित हैं । विषय पर अच्छी पकड़ बनाने के लिए इनका ज्ञान होना अच्छा समझा जाता है ।

'घास खोदना' भी अपने आप में एक मुहावरा है जिसकी चर्चा हम लेख के प्रारम्भ में ही कर आये हैं । इसके अलावा कहा जाता है कि 'घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या ?' इस मुहावरे का जितना दुरुपयोग होता है उतना शायद ही किसी अन्य मुहावरे का होता होगा । इसका सहारा लेकर लोग धंधे के नाम पर अपने अच्छे से अच्छे मित्र और निकटतम रिश्तेदारों को ठगते देखे जाते हैं ।


कहा जाता है कि 'कुत्ता अगर घास खाने लगे तो दुनिया में सभी लोग कुत्ता पाल लेंगे' इस मुहावरे के द्वारा न केवल कुत्ते का घास से बेमेल रिश्ता जोड़ा गया है बल्कि यह भी जताया गया है कि आदमी को सुरक्षा की अपेक्षा पेट का खयाल रखना पड़ता है । सुरक्षा का खर्चा भूखे रहकर नहीं किया जा सकता । पर ध्यान देने की बात यह है कि कुत्ता बेचारा यदि घास खा सकता तो पालतू बनने आता ही क्यों ?


घास को आमतौर पर चरने और खोदने की वस्तु समझकर तिरस्कृत कर दिया जाता है । परन्तु इसकी महत्ता भी कम नहीं है । आजकल बड़े-बड़े शहरों में लोग सुबह-शाम पार्कों में कुछ समय बिताने के लिये तरसते देखे जाते हैं ऐसा इसीलिये होता है कि पार्क में हरी-हरी घास होती है जिस पर बैठने और लेटने का आनंद हज़ारों गद्दों से भी बढ़कर है । सुबह-सुबह ओस वाली घास पर नंगे पाँव टहलने से नेत्रों की ज्योति बढ़ती है ।


क्रिकेट से भी घास का गहरा रिश्ता है । क्रिकेट के खेल में मैदान पर घास होने या न होने का विशेष महत्व होता है और इससे भी अधिक महत्व पिच पर घास होने या न होने का होता है । घरेलू मैदान पर घास की स्थिति अपने अनुकूल और विपक्षी टीम के प्रतिकूल करके मैच जीतने की परम्परा क्रिकेट में पुरानी है । भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक मौका ऐसा भी आया जब पिच पर घास की स्थिति को लेकर हुए विवाद के कारण कप्तान ने चोट का बहाना करके मैच खेलने से ही इनकार कर दिया । और सचमुच भारत वह मैच हार गया था ।

एक प्रसिद्ध भारतीय तेज गेंदबाज के बारे में कहा जाता है कि वे बचपन में भैंसों को घास चराने जाते थे तो भैंस के सींगों को निशाना बनाने का अभ्यास करते करते उन्हें विकेट पर निशाना लगाना आ गया था ।

गायों को घास चराने तो हमारे मुरलीधर भगवान कृष्ण भी जाते थे । और महाराणा प्रताप के बारे में बताया जाता है कि जब वे चित्तौड़ के मुगलों के अधिकार में चले जाने के बाद अरावली की पहाड़ियों में परिवार सहित भटक रहे थे तो कई दिनों तक खाना न मिलने के बाद घास की ही रोटियाँ बनाई गयी थीं । इस रोटी को बालक अमर सिंह से हाथ से बिलाव छीन ले गया तो महाराणा एक क्षण के लिए देशभक्ति भूलकर अकबर की अधीनता के लिए तैयार हो गये थे ।


भगवान राम जब चौदह वर्ष के वनवास में रहे थे तो घास के बिछौने पर ही सोते थे । और भरत तो अयोध्या में होते हुए भी घास के बिछौने पर सोते थे । सीता जी का त्याग करने के बाद भी भगवान राम एक बार फिर घास के बिछौने पर सोने लगे थे ।


जिन गरीबों को हमारे नीति नियन्ता भूमि न दिला सके वे तमाम भूमिहीन आज भी गावँ में घास खोदकर जानवर पालते हैं या घास खोदकर शहर में जाकर बेच देते हैं । इसी तरह किसी प्रकार घास के सहारे उनका जीवन कट रहा है । अक्सर खेत की मेंड़ से खास खोदते समय इन्हें खेत मालिक के द्वारा अपमानित होना पड़ता है ।


घास से कागज भी बनता है । और आयुर्वेद दवाएं भी विशेष प्रकार की घास से तैयार की जाती हैं । कूलर में नमी बनाये रखने के लिये भी सूखी घास का उपयोग किया जाता है । खस नाम की घास से प्रसिद्ध खस की टट्टी बनायी जाती है ।


कुछ लोगों को जानकर आश्चर्य होगा कि बाँस भी एक प्रकार की घास ही है । अत: कोई यह न समझ बैठे कि घास तो बस पैरों तले रौंदने के लिए ही बनी है । बाँस भी घास है और घास भी खास है ।


घास खोदना विज्ञान है अथवा कला ? इस प्रश्न पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद मौजूद हैं । इससे सिद्ध होता है कि यह विषय चाहे विज्ञान हो या फिर कला पर महत्वपूर्ण अवश्य है ।


चूँकि क्रमबद्ध सुव्यवस्थित ज्ञान को ही विज्ञान कहा जाता है । और विज्ञान के सिद्धान्त हर बार दुहराने पर समान परिणाम देते हैं । इस परिभाषा की कसौटी पर यदि घास खोदने की क्रिया को कसा जाता है तो हम पाते हैं कि घास खोदना एक क्रमबद्ध क्रिया है और इसमें घास को काटने के बाद उसे व्यवस्थित करके ढेरियों के रूप में रखा जाता है . अत: यह विषय विज्ञान होना चाहिये . लेकिन यह बार बार दुहराये जाए पर एक ही परिणाम नहीं देता है . और कभी कभी हाथ भी कट जाता है . अत: विद्वान इसे विज्ञान मानने के विरोध में हैं .


दूसरी ओर इसे कला मानने वालों की भी कमी नहीं है . इसमें चूँकि बुद्धिचातुर्य और हस्तकौशल का विशेष महत्व होता है व इसका उपयोग समाज की भलाई के लिए होता है . यदि भैंस के लिए घास नहीं खोदी जायेगी तो समाज को दूध तो मिलने से रहा . इस प्रकार घास खोदना सामाजिक भलाई है . अत: इसे कला की श्रेणी में रखे जाने को लेकर कुछ विद्वानों ने विशेष उत्साह दिखाया है .


रविवार, अगस्त 16, 2009

कहाँ से कहाँ आ गये

16 अगस्त 1999 को जब SRF Ltd. भिवाड़ी (राजस्थान) में नौकरी शुरू की थी तो शुरु के दिनों में आठ घण्टे एक जगह पर बिताना बड़ा मुश्किल लगता था । लेकिन जब आज नौकरी करते दस साल हो गए हैं तो लगता है जैसे वह कल की ही बात हो ।

1999 का साल मेरे लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण था । इसी वर्ष पहले डिप्लोमा की पढ़ाई पूरी की, अभी परीक्षा का परिणाम भी न आने पाया था कि शादी करा दी गयी । 4 मई को परीक्षा सम्पन्न और 12 मई को शादी ।

तत्पश्चात अगस्त माह से नौकरी के फेर में पड़े तो पड़े ही हुए हैं । इस दौरान दो बच्चों का बाप भी बन गया ।

लगभग तीन साल चेन्नई में भी नौकरी की । अब इण्डियन ऑइल में हूँ और शायद यहीं रहूँ । इण्डियन ऑइल अपना स्वर्ण-जयन्ती वर्ष मना रहा है । छ: महीने चलने वाले समारोहों की श्रंखला में आज मिनी मैराथन दौड़ का आयोजन था । सुबह-सुबह ही 5 किलोमीटर की दौड़ 20 मिनट में पूरी की तो सुखद आश्चर्य हुआ कि दस साल प्रदूषण झेलने के बावजूद अभी भी काफी स्टेमिना बचा हुआ है । हमारा कोई नम्बर नहीं आया तो क्या हुआ 18-45 आयु वर्ग के जहाँ 300 लोग दौड़ रहे थे वहाँ पहले पचास में आकर भी हम कम खुश नहीं । पत्नी जी महिलाओं के अपने वर्ग में पाँचवें स्थान पर रही ।

जब लड़के को पता चला कि पापा पचास में और मम्मी पाँच में तो उसका हँस हँसकर बुरा हाल है । हमें शर्मिन्दा करने की पूरी कोशिश में है । पर हम शर्मिन्दा हो ही नहीं पा रहे । उसको समझाएं भी कैसे कि किस तरह पुरुषों और महिलाओं के वर्ग अलग अलग थे । इनकी तुलना नहीं की जा सकती । बस परसाई जी के मुताबिक 'अशुद्ध बेवकूफ' बनकर लड़के को खुश होने दे रहे हैं ।

अज्ञानता का भी अपना अलग मजा है । ज्ञान होने पर या तो मज़ा जाता रहता है या कम हो जाता है । फिल्मों को ही ले लीजिए । जब तक मालूम नहीं था कि ये फिल्में सच नहीं होतीं तब तक फिल्म देखने का अलग मजा था । लेकिन अब तो शाहरुख खान को अगर नहीं पहचाना तो बहुत बड़ी बात हो जाती है । अमेरिका वालों से यही चूक हो गई है । हम तो इस बात पर आश्चर्यचकित हैं कि अमेरिका में ऐसे लोगों को नौकरी पर कैसे रख लिया गया जो शाहरुख खान को नहीं जानते ।

अब अगर शाहरुख खान, जिन्हें ग्यारह मुल्कों की पुलिस जानती है, को अमेरिका वाले नहीं पहचानते तो स्वत: ही महान मुल्कों की लिस्ट में अमेरिका का नाम नीचे खिसककर बारहवें स्थान पर तो कम से कम आ ही जाना चाहिये । हमारे विचार से बेचारे अमेरिका के लिए इतनी सजा काफी है अब शाहरुख अमेरिका को माफ कर दें तो हमें कोई आपत्ति न होगी । आपको हो तो दर्ज करा दें ।

अब देखिए तो हम भटकते हुए कहाँ से कहाँ आ गये ?

शनिवार, अगस्त 15, 2009

फोर्थ अम्पायर

प्यारे देशवासियो !

आप सभी को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ।

मैच समाप्त हो गया । अंग्रेज हार गये । भारतीय जीत गये । महात्मा गाँधी जी को 'द मैन ऑफ द मैच' का पुरस्कार मिला । मैच समाप्त हुए आज 62 साल हो गए । लेकिन फोर्थ अम्पायर कार्यक्रम आज तक जारी है । आज तक लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा है कि क्या हम वाकई जीत गए हैं । पर हम यह नहीं पूछेंगे । हमने मान लिया है कि हम जीत गए । हम तो फोर्थ अम्पायर में आज यह प्रश्न लेकर बैठे हैं कि मैच का टर्निंग प्वॉइण्ट क्या रहा ? क्या होता तो क्या हो जाता ? और क्या नहीं होता तो क्या हो जाता ? हारने वाली टीम से बड़ी गलती कहाँ हुई ?

अगर अंग्रेजी सरकार भारत में 'हम दो हमारे दो' नारा लगा देती तो शायद वे मैच इतनी जल्दी न हारते क्योंकि उस स्थिति में 'द मैन ऑफ द मैच' रहे गाँधी जी को दुनिया में आने का मौका ही न मिलता । वे तो अपने माँ-बाप की तीसरी संतान थे । बस यहीं अंग्रेज मात गए । गाँधी जी का पैदा होना इस मैच का टर्निंग प्वॉइण्ट रहा ।

इसी के साथ इस साल का फोर्थ अम्पायर कार्यक्रम यहीं समाप्त होता है । अगले साल फिर मिलेंगे । तब तक के लिए नमस्कार !

शुक्रवार, अगस्त 14, 2009

अब तुम्हीं कहो, मैं अवतार कैसे लूँ ?


सभी कृष्ण-भक्तों को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाइयाँ ! आज हमारा वार्षिक उपवास है । पूरे वर्ष में आज ही के दिन हम उपवास करते हैं । भूखे ब्लॉग नहीं लिखा जाएगा । इसलिये भूख लगने से पहले ही लिख दिया ।

एक कृष्ण-भक्त भगवान को जोश दिला रहा था । उसे लगा होगा कि शायद भगवान जोश में आकर अवतार ले ही लें तो लगे हाथ दर्शन कर लें । जोर जोर से गा रहा था :

"कन्हैया कब लोगे अवतार ?
हो चुके काफी अत्याचार ॥
लुट चुके सामाजिक संस्कार ।
मिल रहे असुरों को अधिकार ॥
ताक पर रखे नियम-कानून ।
हुआ पानी से सस्ता खून ॥
हर कोई सहमा सा बेचैन ।
तरक्की की यह कैसी देन ?
लुट रहा अबला का सम्मान ।
देव ! अब तो ले लें संज्ञान ॥
बेचती है माँ अपना लाल ।
भाग्य का कैसा अद्भुत जाल ॥
किराए पर दी जाती कोख ।
कहीं पर कोई रोक न टोक ॥
देश खण्डित करने की चाह ।
तलाशें दुश्मन मिलकर राह ॥
उधर वह चीन बिछाता जाल ।
इधर ये पाकिस्तानी ब्याल ॥
फैलती महामारियाँ रोज ।
नहीं उपलब्ध दवा की डोज ॥
बचेगा किस प्रकार संसार ।
कन्हैया ! कब लोगे अवतार ?"

तभी भगवान ने उसके ब्लॉग पर टिप्पणी के रूप में अपना जवाब भेजा : " भक्त ! आपकी प्रार्थना मिली । पढ़कर अति प्रसन्नता हुई । जानकर अच्छा लगा कि आज भी लोग मेरा इन्तजार कर रहे हैं । किन्तु क्या करूँ । धरती पर मामा कंस को इतना बदनाम कर दिया गया है कि अब कोई भाई अपनी बहन-बहनोई को जेल में डालने की हिम्मत ही नहीं करता । अब तुम्हीं कहो ,मैं कैसे अवतार लूँ ?"

टिप्पणी को प्रकाशित करने के लिये भक्त ने माउस क्लिक किया ही था कि मेरी आँख खुल गयी ।

सूचना : स्वप्नलोक के शुभचिन्तक श्री चन्द्रमौलेश्वर जी(कलम वाले) ने बड़ी तेजी से अपना टिप्पणियों का अर्धशतक पूरा किया है । उन्हें कम्पनी की ओर से ढेर सारी बधाइयाँ ।


बुधवार, अगस्त 12, 2009

निजता का उल्लंघन करके

फोटो में जो दिखाई दे रहे हैं । ये हमारे बड़े सुपुत्र अनन्त कुमार सिंह हैं । इन्हें हम सब प्यार से अन्तू बुलाते हैं । आज इनका हैप्पी बड्डे है । आज ये नौ साल के हो गए हैं । आज अपने जन्मदिन के अवसर पर इनका उत्साह देखते ही बनता है । आमतौर पर किसी काम को अपेक्षाकृत टालने में विश्वास रखने वाले अन्तू , आज कोई कसर छोड़ने के मूड में नहीं हैं । अपनी मम्मी के साथ मिलकर जन्मदिन से सम्बन्धित सभी योजनायें बना डाली हैं । कई दिन पहले से ही विचार विमर्श के दौर चल रहे थे कि किस किसको बुलाना है । क्या क्या खिलाना-पिलाना है । कल शाम को शायद सब योजनाओं को फिनिशिंग टच दे दिया गया है ।

कल जब बुलाए जाने वाले नन्हें दोस्तों के नाम फाइनल हो रहे थे तो एक अप्रत्याशित घटना हो गयी । छोटा भाई सनत जब यह सब सुन रहा था तो शायद अपने नाम का इन्तजार कर रहा था कि भैया मुझे भी बुलाएगा । जब अन्त तक उसे अपना नाम सुनने को नहीं मिला तो उसने नाराज होकर पूछ ही लिया, " भैया ! तूके बड्डे में मुझे नहीं बुलाएगा ?" । यह सुनकर हम सभी को हँसी आ गयी और मजाक में उसे कहा कि उसे नहीं बुलाया । कल शाम से ही आज सुबह तक उसका मुँह फूला रहा । हमें दरअसल कोई ध्यान ही न था पर बड्डे की बात चलते ही बच्चा सीरियस हो जाता । हालांकि और बातों पर वह नॉर्मल दिखने की कोशिश कर रहा था । उसके गुस्से का पता आज सुबह ही चला जब उसने स्कूल न जाने की घोषणा कर दी और वजह भी साफ़ कर दी । बड़ी मुश्किल से उसे मनाया गया । बड़े भाई ने सॉरी बोला तभी सन्तू माना । अन्यथा उसकी योजना थी कि जब केक कटेगा तो वह पार्क में खेलने चला जायेगा ।

पहले बड्डे गिफ्ट स्वीकार करते बड़ी झिझक होती थी । पर एक नयी अवधारणा रिटर्न गिफ्ट की देखने को मिली है । अब बड्डे में शामिल होने वाले सभी बच्चों को एक एक गिफ्ट दिया जाने लगा है । इसलिए हिसाब दोनों तरफ़ से बराबर रहता है । इससे एक लाभ यह हुआ कि जितना उत्साह बड्डे बॉय को होता है उतना ही उत्साह बड्डे में शामिल अन्य बच्चों को होता है ।


यह पोस्ट अन्तू के विशेष आग्रह पर प्रकाशित की गयी है । पिछली बार जब सन्तू के बड्डे वाली पोस्ट प्रकाशित हुई तो तब तक हमें निजता कानून का ज्ञान न था अब अन्तू की जिद है सन्तू की तरह उसका फोटो भी इण्टरनेट पर होना चाहिये । तो हमें पोस्ट करना पड़ा । केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' ने कहा है :


पिता पुत्र हित सब कुछ करता, कर्म, सुकर्म, कुकर्म ।

पाप, पुण्य, सत, असत, उचित,अनुचित, सब धर्म,अधर्म ॥


वैसे एक बार छोटे बच्चों की निज़ता का दायित्व माँ-बाप का ही होता है । एक बार अन्तू ने, जब वह बहुत छोटा था, जिद करके अपनी वस्त्र-हीन फोटो खिंचवाई थी । लेकिन जब थोड़ी समझ आने पर उस फोटो को देखा तो रोने लगा कि आपने मेरी ऐसी फोटो क्यों खिंचवाई ? और जबरन वह फोटो नष्ट करवा दी । हो सकता है कल को वह कहे कि आपने मेरा फोटो इण्टरनेट पर क्यों डाला ? तो हम क्या जवाब देंगे ? जबकि आज उसने जिद करके यह पोस्ट करवाया है ।


सूचना : स्वप्नलोक के एक और शुभचिन्तक श्री हिमांशु जी ( सच्चा शरणम् और अखिलं मधुरम् वाले ) टिप्पणियों का अर्धशतक लगाने में कामयाब रहे हैं । कम्पनी की ओर से उन्हें ढेर सारी बधाइयाँ ।

मंगलवार, अगस्त 11, 2009

आज ऐसे ही भाव आ रहे हैं

प्राय: दाँतों के बीच में भोजन-कण उदाहरणार्थ मिर्ची का बीच, अमरूद का बीज, पॉपकॉर्न का छिलका या कोई अन्य रेशा फँस जाता है । यह साधारण सी बात है । हमें यह भले ही साधारण लगे किन्तु जीभ के लिये यह बिल्कुल भी साधारण बात नहीं कि कोई बाहरी तत्व उसके क्षेत्र में रहे । अत: जब तक वह भोजन-कण निकल न जाये उसे चैन नहीं मिलता । उसका प्रयास जारी रहता है । ऐसी स्थिति में यदि भोजन-कण बुरी तरह फँसा हो तो जीभ को समझा बुझाकर शान्त बिठाना बड़ा कठिन होता है .

कभी-कभी हम जीभ को समझाने बुझाने में असफल रहते हैं तो भोजन-कण को उँगली से या किसी माचिस की तीली से निकालने का प्रयास किया जाता है । इससे काम नहीं बना तो नीम की सींक ली जाती है . नीम की सींक भले ही भोजन-कण को न निकाल पाए लेकिन मसूड़ों के बीच में इसके घर्षण से मज़ा आने लगता है . ज्यादा देर तक यह किया तो मसूड़ों से खून भी आने लगता है . ऐसा करते करते यह भ्रम हो जाता है कि खून निकलने से ही मज़ा आता है ।

कालान्तर में नीम की सींक का स्थान ऑलपिन द्वारा ले लिया जाता है । और ऐसा मज़ा लेने की लत सी पड़ जाती है । फिर चाहे भोजन-कण दाँतों में फँसे या न फँसे , अवसर मिलते ही व्यक्ति ऑलपिन से मसूड़े कुरेदने लगता है । और जाने अनजाने अपनी बत्तीसी को नुकसान पहुँचाता रहता है ।

फिर अगर किसी दिन बोध हो कि वह क्यों यूँ ही अपना नुकसान किये जा रहा है तो यह सिलसिला रुक जाता है पर मज़े की याद आते ही कुलबुलाहट शुरू हो जाती है ।

ऐसे में यदि दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर हमने दो तीन दिन कुलबुलाहट को सहन करते हुए भी बत्तीसी से छेड़छाड़ नहीं की तो सब सामान्य भी हो सकता है ।

समझदार लोग केवल भोजन-कण फँसने पर उसके निकालने तक ही सीमित रहते हैं । और अन्य लोग दाँत कुरेदने की लत पाल लेते हैं ।

आज ब्लॉगिंग करते एक साल पूरा हुआ तो मेरे मन में यही भाव आ रहे हैं ।

रविवार, अगस्त 09, 2009

पहेली हल हो गई

नमस्कार हर्ष का विषय है कि स्वप्नलोक पहेलिका के हमें सही जवाब मिल गये हैं । अब तक सही जवाबों को रोककर रखा गया ताकि कोई नकल न कर सके ।

अरहर की दाल वाले वर्मा जी तो जैसे पहेली के इन्तज़ार में ही बैठे थे । इधर पहेली छपी और उधर सही जवाब आ गया । इनके अलावा अर्चना तिवारी जी , संगीता पुरी जी , सैयद जी (लविज़ा के अब्बा ) , सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी , अनूप शुक्ल उर्फ़ फ़ुरसतिया जी और अनिल पुसदकर जी ने पहेलिका का सही उत्तर बताने में सफ़लता अर्जित की । मोहन वशिष्ठ जी का जवाब अन्तिम क्षणों में आया ।

सभी विजेताओं को कम्पनी की ओर से बहुत बहुत बधाइयाँ ।

एक बात और उल्लेखनीय है वह यह कि पहेलिका के मामले में कम्पनी की सर्वोच्चता को ताक पर रखते हुए उड़नतश्तरी नाम के एक सज्जन ने स्वयं ही घोषित कर दिया कि पहेली हल हो गयी । यह तो खैर हुई कि किसी ने इनके गलत जवाब की नकल नहीं मारी । अन्यथा अपने साथ औरों को भी ले डूबने का इनका इरादा था । वैसे मानना पड़ेगा कि इनका प्रयास अच्छा था । इन्हें सांत्वना पुरस्कार कम्पनी द्वारा दिया जाता है । चलते चलते इनका जवाब भी पढ़ते जायें ।

एक गावँ लम्बी सराय मीडिया वाले जिनके बारे मे बात हुई, दूसरे गावँ में कुआँ सुरेश जी की पोस्ट जिसमें रिश्तों वाली बात .

तीसरे गावँ में आग लगी थी चिट्ठाचर्चा पर जो आलेख आपने चैंपा, रीसते रिश्ते, चौथे में था धुआँ ॥हाहा!! निजता भंग वाली पोस्ट

--पहेली हल हो गई।

मात्र हल करने को हल की है...बवाल मचवाना मेरा मकसद नहीं है। :)


अन्य प्रयास करने वाले पाठकों को अगली पहेली के लिए शुभकामनायें । दुआ करिये जल्द ही कम्पनी से दूसरी पहेलिका की अनुमति मिले ।

सोचिये, आप किस स्तर पर हैं ?


वैसे तो आजकल किसी के पास इतनी फ़ुरसत बची नहीं कि अपनी व्यस्तता त्यागकर थोड़ा बहुत समय इधर-उधर देख ले . और अगर कभी देख भी ले तो लाँछन तैयार धरे रहते हैं, "ये तो बड़ा घूर के देखता है . " फ़िर भी हमारे कहने से आप अपने आसपास नज़र डाल ही लें और एक सर्वेक्षण करें तो पायेंगे कि यह दुनिया एक टेंशन समुद्र है लोग टेंशन के इस समुद्र में अलग अलग स्तर पर तैर रहे हैं । जो तैर नहीं पा रहे वे नीचे तल में घिसटते हुए चल रहे हैं ।

क्या कभी फ़ुरसत में सोचा है कि ऐसा क्यों है ? जब देखा ही नहीं तो सोच कहाँ से लिया . कोई बात नहीं . नहीं देखा, न सही . नहीं सोचा, न सही . ये दोनों काम हमने आपके लिए कर दिये .

दर असल आत्मा न मरती है न जन्म लेती है . हाँ, अपना शरीर चेंज कर लेती है . पर शरीर चेंज करना कोई घर की पंचायत नहीं कि जब चाहे उठाकर जो शरीर चाहा पहन लिया . एक बार जो शरीर मिल गया उसको निर्धारित समय से पहले छोड़ा नहीं जा सकता . विशेष परिस्थितियों में अगर छोड़ भी दिया तो उसका हिसाब किताब ऊपर चित्रगुप्त के कार्यालय में देना होगा .

यहाँ से जब शरीर छोड़कर आत्मा ऊपर पहुँची तो । बड़ी लम्बी कतार में लगना पड़ेगा । यह कतार केवल उन्हीं के लिये है जिन्हें यमदूत स्वयं आकर लेकर जाते हैं . जो स्वेच्छा से ही शरीर त्यागकर ऊपर पहुँच लिये उन्हें तो कतार में भी जगह नहीं . ऐसे ही भटकते रहना पड़ेगा . जब भटकने का समय पूरा होगा तो आपका आत्मा नम्बर पुकारा जाएगा . ध्यान रहे आपका कोई नाम नहीं रहेगा वहाँ । नम्बर सुनते ही आपको कतार में सबसे पीछे खड़े हो जाना है . अब कतार धीरे धीरे आगे बढ़ेगी . कतार के आगे बढ़ने की गति क्या होगी वह निर्भर करता है धरती पर . स्वर्ग से उसका कोई लेना देना नहीं है . शरीर का निर्माण तो स्वर्ग में नहीं होता . यह तो धरती पर ही होता है . वहाँ से तो बस निर्मित शरीरों की संख्या देखकर आत्माएं भेज दी जाती हैं . उन आत्माओं को पहले से ही सेट करके भेजा जाता है कि किसे किस शरीर में घुसना है . तदनुसार स्वर्ग या नरक में जगह खाली होंगी . और कतार आगे बढ़ेगी . हाँ, तो बात हो रही थी कतार के आगे बढ़ने की . जब आप कतार में बढ़ते बढ़ते चित्रगुप्त की टेबल तक पहुँचेंगे तो आपको देखकर ही ऑटोमेटिक सामने लगी स्क्रीन पर आपका लेखा जोखा आ जायेगा . इसमें पिछली बार इस ऑफिस से जाने से लेकर अब तक का पूरा लेखे जोखे के अनुसार कुछ स्कोर आपको मिलेगा . यह स्कोर बनने के बाद आपके पिछले पाप पुण्य सब डिलीट कर दिये जायेंगे . क्योंकि उनका इवैल्युएशन तो हो ही चुका तो अब ऐसे रिकॉर्ड को रखकर बेकार ही मेमोरी पर लोड क्यों बढ़ाया जाय ?

अब यदि आप स्वर्ग में जाना चाहते हैं तो आपका स्कोर प्लस में होना चाहिये और यदि स्कोर माइनस में हुआ तो नरक तो है ही । आपकी सेवा में हमेशा हाजिर । स्वर्ग या नरक में आपकी अवधि पूरी होने के बाद जब आपका स्कोर शून्य हो जायेगा तो आपको पुर्जन्म कार्यालय भेज दिया जायेगा । स्वर्ग में सुखों का उपभोग आप जितनी तेज़ी से करेंगे उतनी ही तेजी से आपका स्कोर भी शून्य की ओर अग्रसर होगा । मसलन आपने रम्भा का नृत्य ज्यादा देर तक देख लिया तो स्कोर बहुत जल्दी धड़ाम हो सकता है । और नरक में ठीक इसका उल्टा है । वहाँ आप जैसे जैसे कष्ट भोगते जायेंगे वैसे वैसे स्कोर शून्य की ओर उठेगा । जैसे ही स्कोर शून्य हुआ , आपको स्वर्ग या नरक से निकालकर पुनर्जन्म कार्यालय भेज दिया जायेगा ।

जिन आत्माओं का स्कोर स्वर्ग या नरक में जाने से पहले ही शून्य था उन्हें सीधे ही पुनर्जन्म कार्यालय भेज दिया जाता है । यहाँ एक विशाल वेटिंग रूम में आपको बिठा दिया जाएगा जहाँ एक बड़ी स्क्रीन पर उपलब्ध शरीरों का ब्यौरा लिखा रहेगा । इस ब्यौरे में सबसे प्रमुख प्रजाति का नाम होता है कि यह शरीर किस योनि का है । जब प्रजाति सलेक्ट कर लेंगे तो अन्य डिटेल्स खुल जायेगें जैसे कि इस शरीर की आयु कितनी है । इसे किस टेंशन लेवल पर सेट किया गया है आदि । जो भी धरती पर भाग्य के नाम से जाना जाता है वह वहाँ पहले से ही निर्धारित रहता है । इसके बाद आत्मा को काउन्सिलिंग के लिये बुलाया जाता है । अगर इस स्थिति में उपलब्ध शरीरों में कोई आत्मा को पसंद नहीं आया तो कोई बात नहीं । अगले बैच का इंतज़ार करने की पूरी छूट रहती है । अगले बैच में उसे सबसे पहली वरीयता मिलेगी । क्योंकि यहाँ पहले आओ, पहले पाओ धारा लागू रहती है ।

आशा है कि अब आपको टेंशन समुद्र के विभिन्न स्तरों का भेद पता चल गया होगा ।

दरअसल आत्मा ने स्वयं ही अपना भाग्य चुना है । इसीलिए कुछ लोग टेंशन समुद्र के ऊपर तैरते रहते हैं, जो कभी डूबते, कभी उतराते रहते हैं । कुछ तल में घिसटते रहते हैं । इनके कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ इतना रहता है कि कोशिश करने पर भी ऊपर आने में असफलता ही मिलती है । ऐसे लोगों को हमेशा दुनिया बदलने की चिंता सताती रहती है ।

कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्होंने काउन्सिलिंग में थोड़ी समझदारी दिखायी थी । वे तो टेंशन समुद्र से दूर ही रहते हैं । कभी कभार किनारे तक गये तो ठीक अन्यथा उन्हें पता ही नहीं रहता कि टेंशन समुद्र है क्या बला ?

अब आप अवश्य ही यह सोच रहे होंगे कि आप किस स्तर पर हैं । सोचिये सोचने में क्या जाता है । हो सके तो लगे हाथ अपने विचारों से कुछ बिचारों को लाभान्वित भी कर दीजिये ।

शनिवार, अगस्त 08, 2009

स्वप्नलोक प्रहेलिका


प्रिय पाठकों और पाठिकाओं का स्वप्नलोक में हार्दिक स्वागत है । आज एक पहेलिका पूछी जा रही है . इसका उत्तर सोच समझकर दें . यह पहेलिका चौकीदार बिठाये जाने के उपलक्ष्य में आयोजित की जा रही है . आपको बताना है कि नीचे के दोहे में किसके बारे में बात की गयी है . सभी उत्तर बाद में प्रकाशित किये जायेंगे ताकि कोई एक दूसरे की नकल न मार सके .

एक गावँ लम्बी सराय, दूसरे गावँ में कुआँ .
तीसरे गावँ में आग लगी थी, चौथे में था धुआँ ..
तो शुरू हो जाइये !
सूचना : समयचक्र और निरन्तर जैसे ब्लॉग लिखने वाले महेन्द्र मिश्र जी ( जबलपुर वाले ) स्वप्नलोक पर टिप्पणियों का का अर्धशतक लगाने में कामयाब रहे हैं । कम्पनी की ओर से इन्हें बहुत बहुत बधाई । ये कम्पनी पर सबसे पहले से टिपियाते आ रहे टिप्पणीकारों में से एक हैं ।

शुक्रवार, अगस्त 07, 2009

नेकी करके कहाँ डालें

मानव सभ्यता के इतिहास में कुएं का अपना अलग ही महत्व है । मानव सभ्यता पहले नदियों के किनारे पनपी होंगी । किन्तु जब कुएं का आविष्कार हुआ होगा तो लोग सुविधानुसार नदियों से दूर जाकर भी बसने लगे होंगे ।

कुछ साल पहले तक कम से कम गावँ में कुएं ने अपना दबदबा बनाए रखा था । सुबह शाम कुओं पर पानी ले जाने वाली महिलाओं की भीड़ लग जाती थी । कुएं पर जाकर खड़े खड़े बाल्टी से पानी खींचकर नहाने में भी मज़ा था । यहाँ पर विचार विमर्श का दौर चलता था । बहुत सी समस्याओं के समाधान यहीं खड़े खड़े निकल आते थे तो कुछ मामलों में समस्यायें पैदा भी हो जाती थीं । सास-बहू के झगड़े की रणनीतियाँ यहीं तैयार की जाती थीं ।

हालांकि कुआँ अभी भी अस्तित्व में है । पर यह कम्पनी दिवालिया सी हो गयी है । हैण्डपम्प ने कुआँ कम्पनी को टेकओवर कर लिया है ।

यूँ तो आज भी बच्चे के जन्म के अवसर पर कुआँ पूजन होता है । विवाह के अवसर पर भी कुआँ पूजन की रस्म अदा की जाती है । कुआँ खोदकर पानी पीने का मुहावरा अभी भी प्रचलन में है । पर जब कुआँ ही नहीं तो मुहावरे का स्वाद भी फ़ीका-फ़ीका सा लगता है । अब तो नल लगाकर पानी पीने का मुहावरा होना चाहिये ।

सर्वेक्षणों से पता चलता है कि आजकल भले लोगों का प्रतिशत लगातार गिरता ही जा रहा है । इसके पीछे भी कुएं का हाथ है । अब लोगों ने नेकी करना बन्द सा किया हुआ है । लोगों से पूछा जाय कि आजकल वे नेकी क्यों नहीं कर रहे तो जवाब मिलता है कि पहले नेकी करके कुएं में डालने का प्रोवीजन था । अब अगर नेकी की जाय तो उसे डिस्पोज करने की समस्या आती है । पहले ही इतनी नेकी कर करके कुओं में डाल दी गयी है कि कुएं ऊपर तक नेकी से भरे हुए हैं । ऐसे में अगर नेकी की गयी तो मजबूरन घर में रखनी पड़ती है । और अगर बच्चों की पहुँच में रख दी तो कहीं लेने के देने न पड़ जायें यही सोचकर नेकी अब विशेष परिस्थितियों में ही की जाती है ।

कुछ लोगों ने बोरवेल में नेकी डिस्पोज करने की कोशिश की थी तो वहाँ कोई न कोई बच्चा गिर गया वे भी बंद कराने पड़े ।

अब नेकी करें तो कैसे ?

मुझको शक है

मुझको शक है, पाँच साल सरकार ये चल जायेगी ।
रौनक वो चुनाव की अब कई साल नहीं आयेगी ॥

मुझको शक है, भारत भृष्टाचार जाल में जकड़ा ।
यद्यपि मैंने रंगे हाथ न कोई अब तक पकड़ा ॥

मुझको शक है, कसाब को फाँसी की सजा बुलेगी ।
किन्तु उसे माफ़ी देने पर यह सरकार तुलेगी ॥

मुझको शक है, अर्थशास्त्री भारत के गृह-मन्त्री हैं ।
भारत में अपहरण फिरौती शायद टैक्स फ़्री हैं ॥

मुझको शक है, यूसुफ़ भारत-रत्न झटक ही लेंगे ।
अच्छे-अच्छे जो न पा सके, किस्मत पर रो लेंगे ॥

मुझको शक है, शायद मैं कुछ उल्टी बात कह गया ।
स्वयं नहीं मालूम मुझे, भावों में कहाँ बह गया ॥

गुरुवार, अगस्त 06, 2009

परदे के उस पार

जीवन के जिस क्षेत्र में भी दृष्टिपात किया जाय । परदे पर अभिनय करते लोग दिखाई देते हैं । सार्वजनिक दुनिया परदे के सामने रहती है । सरेआम इसकी चर्चा होती है ।

दूसरी दुनिया जिसे परदे के पीछे की दुनिया कहा जा सकता है, भी हर क्षेत्र में मौजूद है । इसकी चर्चा दबे स्वरों में होती है । न्यूनाधिक लगभग सभी लोग इससे परिचित होते हैं ।

अब देखिये परदे के सामने एक जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है, जो जनता से टैक्स वसूलती है । बदले में लोक कल्याण का दावा भी करती है । लेकिन इस चुनी हुई सरकार का माध्यम ईवीएम है जिसकी सत्यता परदे के पीछे है । दूसरी हुकूमत परदे के पीछे भी चलती है जो हफ़्ता वसूलती है । बदले में जीवनदान देने का दावा करती है । परदे के सामने वाली सरकार में जो काम गैरकानूनी हैं वे परदे के पीछे धड़ल्ले से चलते हैं जैसे सट्टा आदि । सट्टे के गेम में गज़ब की ईमानदारी बताई जाती है । अगर आपने सट्टा खेला और जीत गये तो पैसा आपके घर पहुँचना ही है, पर यदि आप हार गये और पैसा देने में आनाकानी की तो गये सीधे स्वर्ग या नर्क ।

बाजार में भी यही खेल है । कम्पनियाँ उत्पाद लौंच करती हैं, बाजार में उत्पाद पहुँचता है । लेकिन उससे पहले हूबहू उसकी नकल बाजार में पहुँच जाती है । यह नकली उत्पाद कहाँ बनते हैं किसी को नहीं पता । यहाँ तक कि दवायें भी नकली आ रही हैं ।

परदे पर दिखायी देंगे बड़े ऊँचे संत महात्मा हैं । अच्छे अच्छे प्रवचन सुनाते हैं । परदे के पीछे वही यौन शोषण, हत्या, अपहरण जैसे अपराधों में भी लिप्त पाये जा सकते हैं । सामने पूजा और पीछे काम दूजा ।

किसी बड़े शहर में अनजान लोगों से मिलें । पता चला बड़ी अच्छी फ़ैमिली है । संस्कारी लोग हैं । भेद खुला तो पता चला रिश्ते में भाई बहन हैं । घर से भागकर शादी की हुई है । घरवालों को इनका अता-पता भी नहीं मालूम । अन्यथा कल ही ये दुनिया से विदा कर दिये जायें ।

परदे पर एक से बढ़कर एक हास्य के चैम्पियन । पर परदे के पीछे के तथाकथित गंदे जोक्स के आगे सब फ़ेल ।

परदे पर एक से बढ़कर एक नामचीन ब्लॉगर का तमगा लटकाए घूमते लोग । परदे के पीछे वही अनाम टिप्पणीकार ।

परदे पर अच्छे अच्छे शिष्टाचार सुलझे हुए शब्दों में बातचीत । शरीर के कुछ अंगों का नाम लेना भी पाप । उन्हें विशिष्ट अंग के नाम से संबोधित किया जाना । परदे के पीछे उन्हीं का धड़ल्ले से उच्चारण और उनमें बीड़ी जलाना !

परदे के पीछे का मसाला कब सामने आयेगा ? कभी न कभी तो आयेगा ही । तो अभी क्यों नहीं ? क्या हमारे बाद ?

सूचना : यह पोस्ट मानसिक हलचल से प्रेरित है ।

बुधवार, अगस्त 05, 2009

सोचती यूँ क्रिकेट की बॉल



सोचती यूँ क्रिकेट की बॉल ।
" बने क्यों मेरा सदा मखौल ?
हमेशा पिटने को अभिशप्त ।
कभी बल्लेबाज न हो तृप्त ॥
नयी थी तो फेंका था तेज ।
फास्ट बॉलर को था कुछ क्रेज ॥
रगड़कर पहले मारी फूँक ।
दिया फिर मेरे ऊपर थूक ॥
स्विंग करने का उसको शौक ।
विरोधी जिससे जाये चौंक ॥
किन्तु था बैट्समैन फ़र्राट ।
रन लिये दो बॉलों पर आठ ॥
हुये जब ढीले मेरे अंग ।
तभी बदला कैप्टन ने रंग ॥
स्पिनर के हाथों में सौंप ।
बिठाया मेरे मन में खौफ ॥
घूमना, पिटना दोनों साथ ।
कभी यह समझ न आयी बात ॥
लुट चुका मेरा जब सम्मान ।
मैच यह पूरा हुआ महान ॥"

सोमवार, अगस्त 03, 2009

हमारी पहली रिफाइनरी-डिगबोई

बात अंग्रेजों के जमाने की है । असम के घने जंगलों में असम रेलवेज एण्ड ट्रेडिंग कंपनी द्वारा रेल लाइन बिछाने का काम चल रहा था . घने जंगलों से कुछ हाथी गुजर रहे थे । हाथियों को कच्चे तेल में लथपथ देखकर कंपनी के इंजीनियर को पेट्रोलियम की मौजूदगी का आभास हुआ । और वह सहसा अंग्रेजी में खुशी से चिल्लाया, "Dig boy ! Dig " । कहा जाता है कि इसी से इस स्थान का नाम डिगबोई रखा गया । यह बात 1866 की है ।

चूँकि इस कम्पनी को पेट्रोलियम के क्षेत्र में कोई अनुभव न था इसलिए 1889 में असम ऑइल कंपनी की स्थापना की गयी । इसी साल भारत में पहला तेल कुआँ खोदा गया । इसी असम ऑइल कंपनी द्वारा 1901 में डिगबोई रिफाइनरी की स्थापना हुई । 1981 में संसद ने कानून बनाकर असम ऑइल कंपनी को इंडियन ऑइल कॉर्पोरेशन लिमिटेड में विलय कर दिया । और यह इंडियन ऑइल कंपनी का असम ऑइल डिवीजन कहलाया ।

वर्तमान में यह विश्व की सबसे पुरानी रिफ़ाइनरी है जो चल रही है । इसकी रिफाइनिंग क्षमता को 0.5 MMTPA(Million Metric Tonne Per Annum) से बढ़ाकर 0.65 MMTPA कर दिया गया है । डिगबोई रिफ़ाइनरी के लिये कच्चा तेल असम ऑइल फील्ड्स से मुहैया कराया जाता है और इसके उत्पाद पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में खपाये जाते हैं ।

रविवार, अगस्त 02, 2009

संविधान में लिखा हुआ है

संविधान में लिखा हुआ है, जनता की सरकार ।
लाल बत्तियाँ छीन रही हैं जनता के अधिकार ॥

संविधान में लिखा हुआ है, सब हैं एक समान ।
सुख-सुविधा भोगें दलाल सब, भूखा मरे किसान ॥

संविधान में लिखा हुआ है, नहीं जातिगत भेद ।
ब्राह्मण मरे गरीबी में तो, नहीं किसी को खेद ॥

संविधान में लिखा हुआ है, राज्य धर्म-निरपेक्ष ।
अलग-अलग कानून यहाँ सब धर्मों के सापेक्ष ॥

संविधान में लिखा हुआ है, संप्रभु देश हमार ।
समानान्तर चलती रहतीं यहाँ कई सरकार ॥

संविधान में लिखा हुआ है, जीने का अधिकार ।
निर्दोषों का एनकाउण्टर करे पुलिस हर बार ॥

संविधान में लिखा हुआ है, भारत देश अटूट ।
फ़िर भी तो अलगाववादियों को मिलती है छूट ॥

संविधान में लिखा हुआ है, न्याय-प्राप्ति अधिकार ।
न्याय-प्रतीक्षा करते करते जाते स्वर्ग सिधार ॥

सब नेता हों भृष्टाचारी, उन्हें सुधारे कौन ।
यह भारत का संविधान बस इसी बात पर मौन ॥

सूचना : स्वप्नलोक कम्पनी के भीषण शुभचिन्तक श्री कुश जी, अपनी कलम वाले, टिप्पणियों का अर्धशतक लगाने में कामयाब हुए हैं । उन्हें कम्पनी की ओर से बहुत बहुत बधाइयाँ । इनसे एक दिन अचानक कुछ शब्द गिर गये तो हम मिल गये । अन्यथा कहाँ मिल पाते ?

शनिवार, अगस्त 01, 2009

किस्सा कैलोरी का

बचपन के दिन भी क्या दिन थे, जोश भरा रहता था ।
कोई काम नहीं मुश्किल यूँ रोम-रोम कहता था ॥
चार बार खाना खाते थे, फ़िर भी हल्के फ़ुल्के ।
नज़र बचाकर भागे वे दिन, खूँटों से खुल खुल के ॥
तीस पारकर शुरू हो गया, किस्सा कैलोरी का ।
अब हिसाब रखना पड़ता है, एक-एक रोटी का ॥
पूड़ी और कचौड़ी तो बस, सपनों में मिलती हैं ।
जलेबियों से मुलाकात हो तो बाँछें खिलती हैं ॥
तीन किलोमीटर नित दौड़ें, खाना कम खाते हैं ।
किन्तु वजन बढ़ता जाता है, समझ नहीं पाते हैं ॥
वे-मशीन से वजन पूछने रोज पहुँच जाते हैं ।
पाकर वही जवाब टका सा, मन में झुँझलाते हैं ॥
वे-मशीन भी अपने मन में झुँझलाती तो होगी ।
कुछ पागल सा या सनकी सा, हमें समझती होगी ॥
शीत-युद्ध सा चलता रहता, मेरा भारीपन से ।
"मुझको विजय श्री का वर दें" माँग रहा भगवन से ॥

मित्रगण