गुरुवार, अक्तूबर 09, 2008

लुढ़कने वाला लोटा

तब था खतरा जान को, हुए फोन भी टेप ।
अब घावों पर लग गया, कैसा ठण्डा लेप ।
कैसा ठण्डा लेप ,मित्रता अब तो गहरी ।
बना मैम का मित्र, बड़े भैया का प्रहरी ।
विवेक सिंह यों कहें लुढ़कने वाला लोटा ।
है बाहर से चिकना पर अन्दर से खोटा ॥

5 टिप्‍पणियां:

मित्रगण