सोमवार, सितंबर 01, 2008

मित्र का मित्र

मेरी पहली रेल यात्रा में मुझे मथुरा से झाँसी जाना पड़ा । झाँसी में मेरा मित्र था । मैं रात को रेलवे स्टेशन पर उतरा तो एक सज्जन सामने ही खड़े मिल गए । उन्होंने मेरी तरफ़ हाथ बढ़ाया तो मेरी बाँछें ( पता नहीं शरीर के कौन से हिस्से में होती हैं ) खिल गयीं । दर असल मुझे अपने मित्र के पास ऐसे समय जाना पड़ा था कि न तो उसे मेरे आने की सूचना थी और न मैंने उसका घर देखा था । मेरे पास बस कागज पर लिखा हुआ उसका पता ही था । उस समय फोन भी आजकल की तरह प्रचलित नहीं थे । बहरहाल जो भी हो मुझे उस आदमीं में भगवान दिखाई दिये और मेरे भेजे में यह बात घर कर गयी कि हो न हो यह मेरे मित्र के कोई परिचित हैं जिन्होंने मुझे उसके साथ कभी देखा होगा । मैंने भी बडी गर्मजोशी से अपना हाथ उनके हवाले कर दिया । मेरी आशा उस समय निराशा में बदल गयी जब उन्होंने कहा," ए मिस्टर ! होशियारी मत दिखाओ , टिकिट दिखाओ . " इससे पहले कि मैं हँसी का पात्र बनूँ , मैं टिकिट दिखा कर वहाँ से चलता बना ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत प्यारी पोस्ट।
    ऐसे ही सहज सरल अभिव्यक्तियों की प्रतीक्षा रहेगी।

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  2. बढिया है ..
    खट्टा मीठा अनुभव..
    मैं भी पानीपत में हूं कभी मिलियेगा ..

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  3. प्रोत्साहन हेतु आप का धन्यवाद .

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मित्रगण